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Wednesday, September 14, 2016

मोदी जी की पाकिस्तान पाॅलिसी

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सभी उपलब्ध अंतरराष्ट्रीय मंचो पर पाकिस्तान के आतंकवाद का शोर मचाया है। यकीनन यह देश के श्रोताओं में लोकप्रिय भी हुआ है। लेकिन अपने इस प्रयास से मोदी जी पाकिस्तान को दुनिया के मंचो से कितना अलग- थलग कर सकते हैं यह देखना बाकी है। यह भी तय नहीं कि अमरीका जिसके साथ भरत नजदीकी बढ़ा रहा है ओर समरनीतिक समझौते करने की कोशिहश कर रहा है वह भी पाकिस्तान से पलला झाड़ लेगा। हाल में भारत आये अमरीकी विदेशसचिव जॉन कैरी के बयान से तो कमसे कम ऐसा नहीं लगता। उनके बयान से ऐसा लगता है कि वे दोनो की पीठ ठोकना चाहते हैं ओर दोनों को खुश रखना चाहते हैं। विदेश मंत्री सुषमा स्वराज के साथ वार्ता में जॉन कैरी ने कहा कि ‘आतंकवाद के बरअक्स शांतिवार्ता सफल नहीं हो सकती है। यह जरूरी है कि आतंकवाद बातचीत में पाकिस्तान राष्ट्रो के साथ बैठे।’ एक दिन के बाद वे दिल्ली में हीथे ओर कहा कि पाकिस्तान ने आतंकवाद के चलते कम हानि नहीं उठायी है। पाकिस्तान में आतंकवाद के कारण 50 हजार लोग मारे गये हैं। बाहर के लोग महान इस्लाम धर्म को कोई धर्म ही समझने को तैयार नहीं हैं। ऐसी स्थिति से साफ पता चलता है कि भारत अमरीका को अपनी तरफ करना चाहता है ओर अमरीका फिलहाल पाकिस्तान को न चेड़ने के मूड में है और ना मुश्कें कसने के मूड में है। अमरीका की इस बात से कोई भी समझ सकता है अमरीका को मालूम है कि वहां आतंकी हैं पर वह उसे(पाकिस्तान को) छोड़ना भी नहीं चाहता है। इसका कारण है कि अफगानिस्तान में अमन ओर चैन के लिये उसे पाकिस्तान की जरूरत पड़ेगी। क्योंकि वहां के तालिबानी और समस्त तालिबानी गुट पाकिस्तान में पनाह लेते हैं। अफगानिस्तान में अमन के लिये अमरीका को पाकिस्तान की इतनी जरूरत है कि वह अफगानिस्तान वार्ता में पाकिस्तान के अलावा उसके परम मित्र चीन को भी शमिल करना कबूल कर लिया है। पाकिस्तान और अफगानिस्तान के रिश्ते को यहां बहुत तरजीह नहीं दी जाती है क्योंकि यह भारत और नेपाल के सम्बंधों जैसाकरीबी ओर जटिल है। दरअसल दोनों देशो-अफगानिस्तान और पाकिस्तान – की सीमा पर कोई अवराध इत्यादि नहीं है साथ ही दोनों देशों के लोगों के रहन सहन और रीति-रिवाज भी मिलते जुलते हैं। भौगोलिक और सांस्कृतिक सम्बंदा बहुत जल्दी खत्म नहीं होते। यही नहीं अफगान आतंकी पाकिस्तान में शरण पाते ही हैं साथ ही उन्हें वहां से ट्रेनिंग ओर हथियार भी मिलते हैं। अफगानिस्तान के लिये भारत क्या कर सकता है। बहुत हुआ तो वह थोड़ा बहुत सैनिक साजो सामान दे देगा या अफगान सुरक्षा बलों को थोड़ी ट्रेनिंग दे देगा। इसलिये, भारत या अफगानिस्तान के संबंधों की प्रगाढ़ता के बावजूद अमरीका पाकिस्तान से हाथ नहीं झाड़ सकता है। अतएव अगर भारत यह समझता है कि वह अमरीका जैसे ताकतवर देश को पाकिस्तान से मुंह मोड़ने के लिये तैयार करा लेगा तो यह उसका मुगालता है या कहिये उसकी खुशफहमी है। इस स्थिति की रोशनी में हर आदमी कह सकता है कि पाकिस्तान की ताजा बलोचिस्तान नीति की संभावनाएं अनिश्चित हैं। कुछ लोग इसी बात को लेकर कीर्तन कर रहे हैं कि पाकिस्ताने जो कश्मीर में कर रहा है उसका मोदी जी का बलोचिस्तान वाला कथन सीधा और सटीक जवाब है। इधर यह तो हर विश्लेषक जानता है कि कश्मीर के सभी मामलों में इस्लामाबाद में बैठे लोग सक्रिय नहीं रहते। कुछ मामले स्थानीय भी होते हैं। कूटनीतिक हलकों में इसे नपा तुला कदम कहा जा सकता है और अगर पाकिस्तान से रिश्ते सुदारते हैं तो इस समरनीति में सुधार किया जा सकता है। केवल नवराष्ट्रवादी लोग ही इस बात पर भरोसा कर सकते हैं कि कश्मीर में जो कुछ हो रहा है , जितना भी कुछ हो रहा है उसके लिये पाकिस्तान ही जिममेदार है। बलो​चिस्तान का जुमला कश्मीरियों की पीड़ा या मुश्किलें दूर नहीं कर सकता ना ही उसके ऐतिहासिक समस्या को सुलझा सकता है। अतएव इस नयी स्थिति से आगे चल कर बहुत कुछ हासिल होगा ऐसी उममीद नहीं लगती। अलबत्ता इससे देश में राजनीतिक लाभ उठाया जा सकता है। क्योकि जहां तक पाकिस्तान और कश्मीर का सवाल है वहां प्रधानमंत्री जी को यह पड़ताल करनी होगी कि भारत को पाकिस्तान से चाहिये क्या। क्या वह पाकिस्तान से मित्रता नहीं तो सहअस्तित्व चाहता है या इसी तरह की मुखालफत।

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