उत्तर प्रदेश का आकार लगभग फ्रांस के क्षेत्रफल के बराबर है और सरकार के सभी महत्वपूर्ण पदों पर मुलायम सिंह यादव के परिवार वाले ही उसी तरह काबिज हैं जैसे पुराने जमाने में राजाओं नबाबों के समय होता था। इसलिये जब अखिलेश सिंह और शिवपाल सिंह का झगड़ा सामने आया तो उसका विश्लेषण करने में राजनीतिक पंडित एक बात भूल गये कि यह परिवार का झगड़ा है। जिस तरह परिवार के मुखिया मुलायम सिंह ने लखनऊ की विधानसभा से दिल्ली की संसद तक भाई भतीजे , बेटे बहू को तैनात कर रखा है उसी तरह वे इस पूरे मसले को सलटा भी देंगे। जहां तक पारिवारिक झगड़े की बात है संयुक्त भारतीय परिवार में यह तो होता ही है। हमारे प्राचीन ग्रंथों में इसके उदाहरण हैं। एक तो रामायण में है जिसमें रावण और विभीषण का झगड़ा मशहूर है और दूसरा महाभारत में , जिसके कारण इतना बड़ा सत्यानाश हुआ। हिंदू संयुक्त परिवार बाहर से नहीं टूटते बल्कि भीतर से ही उसका विनाश होता है। अब अगर आपके पास कोई पारिवारिक राजनीतिक दल है और वह तीन पुश्तों से संयुक्त है तो सोचने वाली बात है कि कि चुनाव के पहले इतना तीखा विवाद क्यों हुआ? कहीं ऐसा तो नहीं कि मुलायम सिंह अखिलेश को अयोग्य तो नहीं समझ रहे हैं और अब वे राजदण्ड अगली पीढ़ी को देना चाहते हैं। कुछ राजनीतिक पंडितों का कहना है कि जिन लोगों पर कुनबा परस्ती का अरोप लगाया जा रहा है वे तो निर्वाचित प्रतिनिधि हैं, फिर उनके बारे में कुछ भी कहना मतदाताओं का अपमान है। जो लोग ऐसा कहते हैं उन्हें भारत की समाजिक स्थिति का आकलन करना चाहिये। खासकर यहां, इस देश में , किसी बड़े राजनीतिज्ञ के वारिस को हराना कितना कठिन है। क्योंकि उन्हें गुंडों का और ताकतवर राजनीतिक लॉबी का समर्थन हासिल होता है। 1984 में यू पी में राजीव गांधी ने हेमवती नंदन बहुगुणा के खिलाफ अमिताभ बच्चन को खड़ा किया लेकिन बहुगुणा भारी मतों विजयी हुये। ीसनेमा में जिस तरह से स्टार की इमेज काम करती है राजनीति में उसी तरह से नेता की इमेज काम करती है। कश्मीर से कन्याकुमारी तक अगर आप देखें तो राजनीतिक नेताओं के वारिसों की एक बड़ी तादाद राजनीति में मिल जयेगी। भारत के लोकतंत्र की बदकिस्मती है कि इसका जैसे जैसे विकास हुआ यह कमजोर होती गयी। यू पी में भी जो कुछ हुआ वह राजनीति में परिवारवाद के दुर्गुण का ही उदाहरण है। अब देखें कि इस ताजा स्थिति से यह साफ पता चलता है कि मुख्यमंत्री अपने मंत्रियों के खिलाफ कठोर कार्रवाई नहीं कर सकते हैं। यह उत्तर प्रदेश की जनता का दुर्भाग्य होगा कि एक कमजोर और बेअसर मुख्यमंत्री उनका नेता है। चाहे जो हो यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिये एक तरह से जन्मदिन का तोहफा है। क्योंकि मोदी जी की यह हार्दिक इच्छा है कि अकेले या अन्य किसी दल से हाथ मिला कर उत्तर प्रदेश में शासन किया जाय। यूपी में फिलहाल चतुष्कोणीय समीकरण दिख रहे हैं जिसमें भाजपा और बसपा में तो गठबंधन होने से रहा और सपा तो लड़ाई का मुद्दा ही है। हो सकता है भाजपा इस जंग में कांग्रेस की मदद ले पर यह अभी से कहना कठिन है। यू पी की राजनीति का तर्क भाजपा- सपा गठबंधन है और अगर ऐसा हुआ और कुनबे में कलह की वजह से अगर सपा को कम सीटें मिलीं तो भाजपा सीनियर पार्टी बनेगी और बाबरी घटना के बाद पहली बार वह एक मजबूत राष्ट्रीय दल के रूप में यू पी में खड़ी होगी। कहते हैं कि खुश किस्मती या ब्दकिस्मती अकेले नहीं आती वह समूह में आती है। यू पी जहां भाजपा के लिये हालात सुधर रहे हैं वही बिहार में भी हालात भाजपा की ओर जाते दिख रहे हैं। शहाबुद्दीन के मामले को लेकर तनाव बढ़ता जा रहा है ओर लक्षण बता रहे हैं कि महागठबंधन अब ज्यादा दिन नहीं चलेगा। अगर बंधी गांठे खुल जाती हैं तो वहां भी नीतीश कुमार के साथ भाजपा आ सकती है। अब बची दिल्ली, जहां अरविंद केजरीवाल ने भाजपा को धूल चटा दी थी। लेकिन अब वक्त तेजी से बदल रहा है। केजरी वाल पंजाब और गोवा को लेकर उछल कूद कर रहे हैं। दिल्ली में कुछ नहीं हो रहा है और वहां की जनता झाड़ू छाप से विमुख हो रही है जिसका असर 2019 के चुनाव में जरूर दिखेगा।
Monday, September 19, 2016
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