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Friday, September 23, 2016

महबूबा से इस्तीफा क्यों नहीं मांगते

कश्मीर में विगत महीनों से जो चल रहा है और जितनी जन-धन हानि हुई अगर वैसा किसी और राज्य में हुआ होता तो मुख्यमंत्री के इस्तीफे की मांग करके लोग नाक में दम कर दिये होते। लेकिन कश्मीर शायद दूसरा मुल्क है जहां रोज सड़कों पर विरोध होता है ओर रोजाना सुरक्षा व्यवस्था बढ़ा दी जाती है। संभवत: यहां के लोगों को लोकतंत्र रास नहीं आता। यहां की स्थिति देख कर ऐसा लगता है कि अगर सुरक्षा बल के नौजवान सड़कों पर नहीं रहें तो देश की सुरक्षा खतरे में पड़ जायेगी। यही कारण है कि भारतीय राजनीतिक वर्ग कश्मीर में मौतों का दोष मुख्यमंत्री के सिर पर नहीं मढ़ते। कश्मीर के मुख्यमंत्री से यह अपवादपूर्ण आचरण कई सवाल खड़े करता है। खास कर लोकतंत्र के लिये। कश्मीर के बारे में ये सवाल खास कर वहां की जनता के इन सवालों को नहीं उठाने के दो कारण हैं। पहला कि , कश्मीर की जनता समझती है कि यह सारा किया धरा  केंद्र सरकार का है ओर दूसरा कि मुख्यमंत्री केंद्र के इशारे पर सबकुछ करता है वह अपने से कोई काम करने के लिये आजाद नहीं है। क्या कश्मीर में लोकतंत्र पर इससे बड़ा कोई अभियोग हो सकता है? इस प्रश्न के अलावा महबूबा मुफ्ती वहां जमी बैठीं हैं , इसके दो निष्कर्ष हो सकते हैं। वे कि प्रदर्शन , अशांति के कारण लोग ऊब जायेंगे और फिर खुद ब खुद शांत हो जायेंगे इसके बाद उनकी पार्टी ओर वे खुद कश्मीर समस्या को लटकाने के लिये केंद्र सरकार की खिंचाई करेंगी। इससे वहाकि जनता को लगेगा कि सरकार उनके लिये बोल रही है और फिर इस समस्या के लिये वे सरकार को खासकर महबूबा मुफ्ती को माफ कर देंगे। राज्य सरकार की यह मंशा उसके वरिष्ठ नेता मुजफ्फर हुसैन बेग के उस बयान से जाहिर होती है जिसमें उन्होंने कहा था कि अगर भाजपा उनके साथ तय समान न्यूनतम कार्यक्रम पर 6 महीने में अमल नहीं करती तो वे लोग सरकार से अलग हो जायेंगे। समान न्यूनतम कार्यक्रम में अन्य शर्तों के साथ यह भी तय है कि सारे सम्बद्ध पक्षों से वार्ता होगी और उनके सिद्धांतों तथा आइडियोलॉजी इस दौरान विचार नहीं होगा। साथ ही, सेना विशेषाधिकार अधिनियम को वापस लेने के लिये नये सिरे से क्षेत्र्त्तों को अधिसूचित किया जायेगा। बेग का यह बयान एक तरह से भाजपा को चेतावनी थी। इसका निष्कर्ष था कि वह राज्य सरकार को राजनीतिक सहूलियत दे वरना गठबंधन टूट जायेगा। बेग ने दलील दी थी कि पी डी पी घाटी में अपने जनाधार को इस तरह समाप्त होते नहीं देख सकती जबकि भाजपा का जनाधार जम्मू में कायम है। अब यहां प्रश्न है कि अगर महबूबा इस्तीफा दे देती हैं ओर पार्टी चुनाव के लिये जनता के बीच जाती है तो क्या उसके पास इतनी राजनीतिक पूजी है कि वह वोट हासिल कर सके। इन दिनों तो स्थिति यह है कि हर रोज पार्टी की साख गिर रही है। सुरक्षा बलों की गोलियों से मरने वाला हर आदमी उनकी लोकप्रियता को नष्ट कर रहा है। लोकीप्रयता का जितना ज्यादा नाश होगा भाजपा पर उनकी निर्भरता उतनी ज्यादा बढ़ती जायेगी। यही नहीं , मुफ्ती की नेतिक ताकत भी रोजाना छीज रही है और बिना नैतिक ताकत के कोई राजनीतिज्ञ अपने को सत्ता की दौड़ में वापस नहीं ला सकता है। मुफ्ती के साथ यह और भी ज्यादा है क्योंकि जिन विशेषणों में उन्हें आबद्ध किया गया है उसके लिये नैतिक ताकत जरूरी है। ऐसे में अगर वे अपनी कुर्सी पर कायम रहतीं हैं तो यह इस देश , कश्मीर और खुद उनके लिये प्रतिगामी होगा। लेकिन केंद्र सरकार शायद ही ऐसा करे क्योंकि इस समय कश्मीर में चुनाव के मायने दूसरे होंगे। अगर केंद्र ने उन्हें बर्खास्त करने का फैसला किया तो संभवत: वहां कुछ दिनों तक राष्ट्रपति शासन रह सकता है। इसमें दोनों को लाभ होगा। वैसे मुफ्ती को हटाया जाना जरूरी है क्योंकि उनके कायम रहने से वहां लोकतंत्र के सिद्धंत का खून होता दिखता है। लाकतंत्र का पहला सिद्धांत है जनता के विचारों का आदर। अगर जल्दी ऐसा कुछ नहीं हुआ तो कश्मीर पुराने दिनों में लौट सकता है जब कश्मीरी जनता मतदान का वहिष्कार करती थी और सुरक्षा बल भारतीय लोकतंत्र की प्रतिष्ठा बचाने के लिये लोगों को वोट डालने पर बाध्य करते थे।

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