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Thursday, September 29, 2016

उड़ी हमले के बाद नदी जल समझौता

उड़ी  हमले के बाद नदी जल समझौता

उड़ी हमले के बाद पाकिस्तान को दंडित करने के लिये देश भर में तरह तरह की बातें हो रहीं हैं। आम आदमी ओर विश्लेषक सभी तरह तरह के विकल्प सुझा रहे हैं। पाकिस्तान की मुश्कें कसने के अनेक उपायों में से एक है सिंधु जल समझौते की समीक्षा। यह समीक्षा पा​किस्तान के युद्धों, युद्ध की तरह के हालात, आतंकवाद की चरम स्थिति और ऐसे ही कई मौकों के बावजूद यह समझौता अपनी जगह कायम रहा। उड़ी हमले के बाद मोदी जी ने इस समीक्षा की ओर लोगों काध्यान यह कह कर आकर्षित कर दिया कि ‘खून और पानी साथ- साथ नहीं बह सकता है। ’ उड़ी हमले के बाद अचानक नदी जल समझौते के विशेषज्ञ उभर आये। कुछ लोगों ने समझौते की समीक्षा की बात कही जबकि कुछ ने तो इसे सिरे से रद्द करने की बात कह दी। खबर है कि इस समझौते की समीक्षा के बारे में सर्वोच्च स्तर पर बात चल रही है। इस बात के बाद तीन बातें दिमाग में आतीं हैं। पहली कि हालांकि इस समझौते को विश्व बैंक ने लागू किया था परंतु वह इसका गारंटर नहीं है। इसलिये इसे एकतरफा रद्द करने से दुनिया भर में देश की हंसाई होगी। दूसरी कि भारत ने ऐसी कोई ढांचागत तैयारी नहीं कर रखी है जिससे वह तीन नदियों – सिंधु, झेलम और चिनाब – के पानी को रोक सके या उसकी धारा की दिशा बदल सके। इसका उपयोग निषेधक की तरह हो सकता है जो परमाणु बम से ज्यादा घातक हो सकता है। तीसरी बात कि, पाकिस्तान में पश्चिम की नदियों का पानी ग्लेशियर के पिघलने पर निर्भर है और उपलब्धता खुद खतरनाक पर पहुंच चुकी है। अब अगर इसमें कमी गयी तो बलोचिस्तान और सिंध में पानी का अभाव हो जायेगा और वहां विपदजनक स्थिति पैदा हो जायेगी। लगभग तीन साल पहले का वाकया है जब भारत ने पाकिस्तान की ओर जाने वाली नदियों पर बांध बनाने का काम आरंभ हुआ था। इसके विरोध में वहां काफी तनाव हो गया था और वहां कहा जाने लगा था कि ये नदियां पाकिस्तान के लिये हैं और यह जल समझौते को तोड़े जाने के करीब है। इससे जंग हो सकती है। यह कोई नयी बात नहीं है। 1960 में नदी जल समझौता हुआ था और उस समय वहां सोहरावर्दी प्रधानमंत्री थे। उन्होंने साफ चेतावनी दी कि जल के लिये एकदम जंग हो सकती है। इस तरह की​ि धमकियां इतनी बार दी जा चुकी हैं कि खुद अपना अर्थ खो चुकी हैं। वहां तो पाकिस्तान में मीडिया में भी अक्सर कहा जाता है कि जल के लिये परमाणु युद्ध हो सकता है। अप्रैल 2008 में पाकिस्तान में सिंधु जल समझौते के कमिश्नर जमात अली शाह ने एक इंटरव्यू में साफ कहा था कि भारत की नदी परियोजना से जल समझौते पर कोई असर नहीं पड़ता है। लेकिन , पाकिस्तान में बहुत ऊंचे स्तर पर भी लोग यह उत्तेजना फैला रहे हैं कि ‘भारत पाकिस्तान का पानी​ चुरा रहा है।’ सन 2004-2005 में जब बगलीहार परियोजना पर विवाद हुआ था तो पाकिस्तान ने हरचंद कोशिश की थी कि इस समझौते पर फिर से समझौता हो। इसका मतलब कि कम पानी के मौसम में भी जल का बंटवारा। दुख की बात यह है कि इस समझौते के इतिहास को जाने बगैर हमारे देश के कुछ कथित विश्लेषकों ने इस समझौते की समीक्षा की बात उठानी शुरू कर दी है। एक विश्लेषक ने यहां तक कह दिया कि दुबारा समझौते से दौनों देों में विश्वास बढ़ेगा । व्यवहारिक तौर पर  यह एक सपना है जो नामुमकिन है। उन्हें यह समझना चाहिये कि सिंधु जल समझौता अपने आप में अकेला है। इसमें जल का बंटवारा नहीं हुआ है बल्कि नदियों का बंटवारा हुआ है। इस समझौते से कई मुश्किलें और विवाद खत्म हो गये। कुल मिला कर अगर कहें तो यह समझौता दोनो तरफ से कुछ लेने और कुछ देने के आधार पर हुआ है। इसके लिये सहमति पूर्ण वातावरण और पारस्पिरिक विश्वास जरूरी है जो दोनो देशों के बाच पूरी तरह अभाव में है।

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