आज हिन्दी दिवस है। कहने को तो इसे तकनीकी शब्दावली में राजभाषा दिवस कहते हैं पर चूंकि हिंदी का नाम जुड़ा है और हिंदी से अगाध प्रेम के चलते हरदम यह कचोटता है कि कभी की रानी रही हिंदी इन दिनों क्यों इतनी दुरावस्था में पहुंच गयी हे। हालांकि यह अतयंत विस्तृत विषय है और इसका मूल समाजशास्त्र और दर्शन में निहित है फिर भी भाष का प्रेम इतना उत्कट होता है कि उसका नाम आये तो बिना उसपर चर्चा किये बात आगे बड़ाने की इच्छा नहीं होती। आज हिंदी ही एक मात्र ऐसी भाषा है जिसने अपनी छोटी उम्र में ही दुनिया के विशालतम साम्राज्य की नीवें हिला दीं। बेशक हिंदी की जड़ें हजारों वर्ष पुरानी संस्कृत और उस समय की प्रचलित बोलियों से जुड़ीं हैं पर आज की हिंदी ने तो भारतेन्दु हरिश्चनद्र जैसे मनिषी के मानस से उत्पन्न हुई है। इतने ही कम समय में इसने भारतीय मनुष्य और उसके आत्मबोध से वह सम्बंध स्थापित कर लिया कि राष्ट्रीय चेतना में वह सबसे भिन्न हो गया। विभिन्न भाषाओं की तरह हिंदी केवल एक भाष ही नहीं है एक स्वप्न भी है। एक स्मृति है जो इतिहास के झंझावातों से तहस नहस नहीं होती। शुरुआती दिनों में भारतेन्दु हरिश्चंद्र से पहले विख्यात पश्चिमी इंडोलॉजिस्टों – हीगल और मैक्समूलर-ने भारतीय स्वर्ण युग को सुदूर अतीत में गड़े खंडहर की संज्ञा देकर इसे खारिज कर दिया था पर भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने बताया कि यह कोई ग्रीक या रामन सभ्यता के अवशेष नहीं है बल्कि यह एक जीवित संस्कृति है। मैकाले ने स्वीकार किया कि वैचारिक स्वतंत्रता की जड़ें हिंदी में निहित हैं इसलिये अंग्रेजी के जरिये वैचारिक गुलामी के तंत्र विकसित किये जाएं। हिंदी की बात करते हुये हम अक्सर हिंदी और संस्कृत को मिलाने लगते हैं तथा हिंदी की प्राचीनता का गान करने लगते हैं। लेकिन सच तो यह है कि हिंदी की खड़ी बोली , जिसमें अधिकांश हिदी साहित्य की रचना हुई है, महज डेढ़ – पौने दो सौ साल पुरानी है। गुप्त जी से लेकर निराला जी तक लेखकों ओर कवियों को अपनी संवेदनाओं को अभिव्यक्त करने के लिये अपनी काव्यात्मक भाषा खुद गड़नी पड़ी थी , बंगला के लेखकों की तरह उन्हें बनी बनायी विरासत नहीं मिली थी। सोचिये, हिंदी में कितनी ऊर्जा है कि इसने इतने कम समय में इतनी ज्यादा मंजिले पार कर लीं हैं। यह हिंदी की ही ताकत है कि इसने इतने कम समय में अपना संवेदनात्मक तंत्र तैयार कर लिया है।वैसे यह मान्यता हे कि जिससे आपको ज्यादा प्रेम है उसके बारे में चुप रहें। लेकिन आज यहां हिंदी की बात इस लिये उठानी जरूरी है कि आज हिंदी की दशा देख कर गहरा क्षोभ होता है। जिस भाषा ने भारतीय स्वतंत्रता चेतना का प्रतिनिधित्व किया स्वतंत्रता के सिर्फ 70 साल बाद खुद को गहरी हीन भावना से ग्रस्त पा रही है। दुनिया की कोई भी भाषा बहुत दिनों तक सरकारी अनुदानों या मौखिक आत्म प्रशंशाओं द्वारा जीवित नहीं रह सकती। इसकी संजीवनी शक्ति का स्त्रोत ऊपर से नहीं नीचे से आता है जहां समाज के संस्कार और स्मृतियां वास करती हैं। पिछले वर्षों में हिंदी का यह सनातन स्त्रोत धीरे – धीरे सूखता चला गया है और नतीजतन हमारे विश्वविदालयों, हमारी शिक्षा पद्धतियों और हमारे सामाजिक कार्यकलापों में हिंदी भाषा हाशिये पर चली गयी। पराधीन भारत में देश की चतना का आज बौद्िध्क दासता से तुलना करें तो लगेगा कि उस समय हम ज्यादा आजाद थे। हमारी भाषा में हमारा विश्वास कहीं ज्यादा गहरा था और हमारी सांस्कृतिक मर्यादाएं ज्यादा आत्म निर्भ थीं। पिछले दिनों से अंग्रेजी का प्रभुत्व जिस तरह हमारी शिक्षा पद्धतियों पर पड़ा है , हमारे जीवन व्यवहार पर फैला है उससे तो लगता है कि राजनीतिक आजादी मिलने भर से ही वैचारिक स्वाधीनता हासिल नहीं हो जाती।
Tuesday, September 13, 2016
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