अशांति भरा हो सकता है यह वर्ष
यहां बात देश में चल रही राजनीति पर हो रही है ना कि किसी तरह की भविष्यवाणी पर। सबसे पहले तो नया साल हमारे पाठकों, विज्ञापन दाताओं और हितैषियों को सफलता समृद्धि और खुशियों से भर दे।
हां तो बात चल रही थी देश में सियासत की। 2019 में चुनाव के बाद चाहे जो शीर्ष पर आए राहुल गांधी हो या नरेंद्र मोदी अथवा खिचड़ी सरकार लेकिन यह तो स्पष्ट है कि शासन बहुत ज्यादा बाधाओं से भरा हुआ होगा और इन बाधाओं को केवल गंभीर आर्थिक तथा सामाजिक शक्तियों को समझने वाला ही लांघ सकता है। लेकिन ऐसा कोई व्यक्ति स्पष्ट रूप से दिख नहीं रहा है। कमोबेश भारतीय राजनीतिक वर्ग में मध्यम मेधा के ही व्यक्ति भरे हुए हैं। यहां तक कि उच्च स्तर पर भी ऐसे ही लोग हैं। देश का भविष्य बहुत ज्यादा उम्मीद नहीं पैदा कर पा रहा है । यह राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक नजरिए से बड़ा निराशा पूर्ण है ।
राजनीति से ही बात शुरू करें। यदि मोदी जी विजयी होते हैं तो उनके पास उतने सांसद नहीं होंगे जितने इस बार हैं और हो सकता है बहुमत के लिए उन्हें अपने गठबंधन पर निर्भर होना पड़े। इससे गठबंधन के दलों का वर्चस्व बढ़ जाएगा ऐसी स्थिति में तो यह खतरा और भी है जब वे यह महसूस कर लें कि मोदी जी अपनी पुरानी चमक खो बैठे हैं। बदली हुई अवधारणा के तहत एक प्रश्न खड़ा होगा कि मोदी जी एक नेता के रूप में कितने प्रभावशाली हैं। यह प्रश्न न केवल गठबंधन के दलों की ओर से उठाया जा सकता है बल्कि पार्टी के मंत्रियों और अधिकारियों की तरफ से भी उठ सकता है। ऐसी स्थिति में संदेह है कि मोदी जी गठबंधन को चला सकेंगे। उन्हें इसका पूर्व अनुभव नहीं है। यहां तक कि उनकी वर्तमान सरकार भी तेलुगू देशम और राष्ट्रीय लोक समता पार्टी का अलग होना देख चुकी है। शिवसेना की ओर से असंतोष के शब्द स्पष्ट रूप से उभर कर आ चुके हैं। चुनाव के बाद की ताजा स्थिति में ऐसे विद्रोह और देखने को मिल सकते हैं। ऐसे में संभवत मोदी जी अर्थव्यवस्था में नई जान फूंकने में कामयाब ना हो सकें। प्रशासन के क्षेत्र में भी ऐसी ही लाचारी दिखेगी। जो नेता शीर्ष पर होंगे उनकी नाफरमानगी भी झेलनी पड़ेगी। इसके अलावा मोदी जी पर दक्षिणपंथी ताकतों का भी दबाव होगा। यही नहीं, सरकार के भीतर और बाहर जो वामपंथी ताकतें हैं उनके दबाव भी बर्दाश्त करने पड़ेंगे। नतीजतन 1991 में नरसिंह राव में जो लाइसेंस राज खत्म किया था उस तरह का कुछ भी या 2014 में मोदी जी ने जिस उद्यम विकास की बात की थी वह निकट भविष्य में पूरा होता हुआ नहीं दिख रहा है।
एक ढुलमुल अर्थव्यवस्था किसानों के लिए कर्ज माफी और बेरोजगार नौजवानों के लिए नौकरियों में आरक्षण की प्रतिगामी मांग को बढ़ावा दे सकती है। दोनों बहुत अल्प जीवी मांगे हैं और देश को पीछे की ओर ले जाने वाले हैं। उदाहरण के लिए कर्ज माफी कृषि जैसे सार्वजनिक निवेश के लिए रखे गए कोष में कमी करेगी और इसका नतीजा होगा कि दुख और बढ़ेंगे। दूसरी तरफ शिक्षा संस्थानों और सरकारी कार्यालयों में आरक्षण से मेधावी लोग लाभान्वित नहीं होंगे ,केवल जाति और राजनीतिक संबंध ही प्रमुख रहेगा। गिरता हुआ स्तर सरकारी नौकरियों में कमी करेगा और इससे फिर निजी क्षेत्रों में आरक्षण की मांग उठने लगेगी। एक बार फिर से लाइसेंस परमिट राज शुरू हो जाएगा और निवेशक भयभीत हो जाएंगे।
किसानों के दुख और नौजवानों की बेरोजगारी के समाधान में बहुत गंभीर संबंध हैं। कृषि क्षेत्र को सुधारने का एकमात्र उपाय है की जमीन पर से दबाव कम किया जाए और छोटे किसानों को कृषि से हटाकर कारखानों में काम दिया जाए या फिर किसी उद्यम से जोड़ा जाए। इससे सरकार को नए रोजगार के अवसर पैदा करने में सहूलियत होगी। आजादी के तुरंत बाद इस उद्देश्य को पूरा करने की तरफ कदम बढ़ाया गया था और इसे सार्वजनिक क्षेत्र से जोड़ा गया था लेकिन बाद में निजी क्षेत्र को नजरअंदाज कर दिया गया। केवल जो दरबारी पूंजीपति थे उनका ही कारोबार चलता रहा। 1955 में कांग्रेस द्वारा समाजवादी समाज की रचना का संकल्प किए जाने से निजी क्षेत्र से उसकी दूरी बढ़ती गई। यहां तक कि 1991 में जब मनमोहन सिंह वित्त मंत्री बने और उन्होंने नेहरू के विचारों को अलग कर दिया तब भी पार्टी के भीतर और देश के भीतर बड़ा तीव्र विरोध हुआ था।
जब राहुल गांधी ने सूट बूट की सरकार कह कर मोदी सरकार का मजाक उड़ाया उसमें भी निजी क्षेत्र के उनके विरोध की झलक मिलती है। जब तक राजनीतिक वर्ग डेंग शियाओपिंग का साहस नहीं दिखाएंगे तब तक हम विकसित नहीं हो सकते और किसी भी तरह से पश्चिमी जीवन शैली के आस पास नहीं पहुंच सकते हैं। मनमोहन सिंह और नरसिंह राव ने ऐसा साहस दिखाया था। जब तक छोटे और बड़े व्यापारों और उद्यमों द्वारा रोजगार के अवसर नहीं पैदा किए जाएंगे तब तक सामाजिक परिदृश्य बेरोजगार युवकों के कारण तनावपूर्ण रहेगा और बेशरम राजनीतिज्ञों के हाथों का खिलौना बनते रहेंगे। यह बता देना उचित है कि हमारे देश के एक तिहाई सांसदों की पृष्ठभूमि आपराधिक है और ये सांसद हिंसा फैलाने के लिए इन बेरोजगार युवकों का उपयोग करते रहेंगे। यदि सत्तारूढ़ दल द्वारा गौ रक्षकों और असामाजिक तत्वों को बढ़ावा दिया जाता रहेगा तब तक देश में निवेश शायद ही हो। यह बेरोजगारी का जहरीला चक्र है जिससे हिंसा को बढ़ावा मिलेगा और निवेश कम होता रहेगा। लिहाजा दिनों दिन बेरोजगारी बढ़ती रहेगी यह केवल मोदी जी की सरकार बनेगी वैसी सूरत में ही नहीं बल्कि चाहे जिसकी भी सरकार बने ऐसा ही होने की आशंका है।