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Monday, December 31, 2018

अशांति भरा हो सकता है यह वर्ष

अशांति भरा हो सकता है यह वर्ष

यहां बात देश में चल रही राजनीति पर हो रही है ना कि किसी तरह की भविष्यवाणी पर। सबसे पहले तो नया साल हमारे पाठकों, विज्ञापन दाताओं और हितैषियों को सफलता समृद्धि और खुशियों से भर दे।
       हां तो बात चल रही थी देश में सियासत की। 2019 में चुनाव के बाद चाहे जो शीर्ष पर आए राहुल गांधी हो या नरेंद्र मोदी अथवा खिचड़ी सरकार लेकिन यह तो स्पष्ट है कि शासन बहुत ज्यादा बाधाओं से भरा हुआ होगा और इन बाधाओं को केवल गंभीर आर्थिक तथा सामाजिक शक्तियों को समझने वाला ही लांघ सकता है। लेकिन ऐसा कोई व्यक्ति स्पष्ट रूप से दिख नहीं रहा है। कमोबेश भारतीय राजनीतिक वर्ग में मध्यम मेधा के ही व्यक्ति भरे हुए हैं। यहां तक कि उच्च स्तर पर भी ऐसे ही लोग हैं। देश का भविष्य बहुत ज्यादा उम्मीद नहीं पैदा कर पा रहा है । यह राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक नजरिए से बड़ा निराशा पूर्ण है । 
        राजनीति से ही बात शुरू करें। यदि मोदी जी विजयी होते हैं तो उनके पास उतने सांसद नहीं होंगे जितने इस बार हैं और हो सकता है बहुमत के लिए उन्हें अपने गठबंधन पर निर्भर होना पड़े। इससे गठबंधन के दलों का वर्चस्व बढ़ जाएगा ऐसी स्थिति में तो यह खतरा और भी है जब वे यह महसूस कर लें कि मोदी जी अपनी पुरानी चमक खो बैठे हैं। बदली हुई अवधारणा के तहत एक प्रश्न खड़ा होगा कि मोदी जी एक नेता के रूप में कितने प्रभावशाली हैं।  यह प्रश्न न केवल गठबंधन के दलों की ओर से उठाया जा सकता है बल्कि पार्टी के मंत्रियों और अधिकारियों की तरफ से भी उठ सकता है। ऐसी  स्थिति में संदेह है कि मोदी जी गठबंधन को चला सकेंगे।  उन्हें इसका पूर्व अनुभव नहीं है। यहां तक कि उनकी वर्तमान सरकार भी तेलुगू देशम और राष्ट्रीय लोक समता पार्टी का अलग होना देख चुकी है। शिवसेना की ओर से असंतोष के शब्द स्पष्ट रूप से उभर कर आ चुके  हैं। चुनाव के बाद की ताजा स्थिति में ऐसे विद्रोह और देखने को मिल सकते हैं। ऐसे में संभवत मोदी जी अर्थव्यवस्था में नई जान फूंकने में  कामयाब ना हो सकें। प्रशासन के क्षेत्र में भी ऐसी ही लाचारी दिखेगी।  जो नेता शीर्ष पर होंगे उनकी नाफरमानगी  भी झेलनी पड़ेगी। इसके अलावा मोदी जी पर दक्षिणपंथी ताकतों का भी दबाव होगा। यही नहीं, सरकार के भीतर और बाहर जो वामपंथी ताकतें हैं उनके दबाव भी बर्दाश्त करने पड़ेंगे। नतीजतन 1991 में नरसिंह राव में जो लाइसेंस राज खत्म किया था उस तरह का कुछ भी या 2014 में मोदी जी ने जिस उद्यम विकास की बात की थी वह निकट भविष्य में पूरा होता हुआ नहीं दिख रहा है।
         एक ढुलमुल अर्थव्यवस्था किसानों के लिए कर्ज माफी और बेरोजगार नौजवानों के लिए नौकरियों में आरक्षण की प्रतिगामी मांग को बढ़ावा दे सकती है।  दोनों बहुत अल्प जीवी मांगे हैं और देश को पीछे की ओर ले जाने वाले हैं। उदाहरण के लिए कर्ज माफी कृषि जैसे सार्वजनिक निवेश के लिए रखे गए कोष में कमी करेगी और इसका नतीजा होगा कि दुख और बढ़ेंगे। दूसरी तरफ शिक्षा संस्थानों और सरकारी कार्यालयों में आरक्षण से मेधावी लोग लाभान्वित नहीं होंगे ,केवल जाति और राजनीतिक संबंध ही प्रमुख रहेगा। गिरता हुआ स्तर सरकारी नौकरियों में कमी करेगा और इससे फिर निजी क्षेत्रों में आरक्षण की मांग उठने लगेगी। एक बार फिर से लाइसेंस परमिट राज शुरू हो जाएगा और निवेशक भयभीत हो जाएंगे।
         किसानों के दुख और नौजवानों की बेरोजगारी के समाधान में बहुत गंभीर संबंध हैं। कृषि क्षेत्र को सुधारने का एकमात्र उपाय है की जमीन पर से दबाव कम किया जाए और छोटे किसानों को कृषि से हटाकर कारखानों में काम दिया जाए या फिर किसी उद्यम से जोड़ा जाए। इससे सरकार को नए रोजगार के अवसर पैदा करने में सहूलियत होगी। आजादी के तुरंत बाद इस उद्देश्य को पूरा करने की तरफ कदम बढ़ाया गया था और इसे सार्वजनिक क्षेत्र से जोड़ा गया था लेकिन बाद में निजी क्षेत्र को नजरअंदाज कर दिया गया। केवल जो दरबारी पूंजीपति थे उनका ही कारोबार चलता रहा। 1955 में कांग्रेस द्वारा  समाजवादी समाज की रचना का संकल्प किए जाने से निजी क्षेत्र से उसकी दूरी बढ़ती गई। यहां तक कि 1991 में जब मनमोहन सिंह  वित्त मंत्री बने और उन्होंने नेहरू के विचारों को अलग कर दिया तब भी पार्टी के भीतर और देश के भीतर बड़ा तीव्र विरोध हुआ था।
                जब राहुल गांधी ने सूट बूट की सरकार कह कर मोदी सरकार का मजाक उड़ाया उसमें भी निजी क्षेत्र के उनके विरोध की झलक मिलती है। जब तक राजनीतिक वर्ग डेंग शियाओपिंग का साहस नहीं दिखाएंगे तब तक हम विकसित नहीं हो सकते और किसी भी तरह से पश्चिमी जीवन शैली के आस पास नहीं पहुंच सकते हैं। मनमोहन सिंह और नरसिंह राव ने ऐसा साहस दिखाया था।  जब तक छोटे और बड़े व्यापारों और उद्यमों द्वारा रोजगार के अवसर नहीं पैदा किए जाएंगे तब तक सामाजिक परिदृश्य बेरोजगार युवकों के कारण तनावपूर्ण रहेगा और बेशरम राजनीतिज्ञों के हाथों का खिलौना बनते रहेंगे। यह बता देना उचित है कि हमारे देश के एक तिहाई सांसदों की पृष्ठभूमि आपराधिक है और ये सांसद   हिंसा फैलाने के लिए इन बेरोजगार युवकों का उपयोग करते रहेंगे। यदि सत्तारूढ़ दल द्वारा गौ रक्षकों और असामाजिक तत्वों को बढ़ावा दिया जाता रहेगा तब तक देश में निवेश शायद ही हो। यह बेरोजगारी का जहरीला चक्र है जिससे हिंसा को बढ़ावा मिलेगा  और निवेश कम होता रहेगा। लिहाजा दिनों दिन बेरोजगारी बढ़ती रहेगी यह केवल मोदी जी की सरकार बनेगी वैसी सूरत में ही नहीं बल्कि चाहे जिसकी भी सरकार बने ऐसा ही होने की आशंका है।         

Sunday, December 30, 2018

इस बार क्या कर सकते हैं कांग्रेस और भाजपा

इस बार क्या कर सकते हैं कांग्रेस और भाजपा

यदि इस बार के विधानसभा चुनाव के परिणामों से कई संदेश आते हैं तो यह तय है कि 2019 के चुनाव में कांग्रेस और भाजपा दोनों ऐसे अनजाने क्षेत्रों में पैर रखेंगे जिसके बारे में किसी को अनुमान नहीं है।
एक तरफ जहां कांग्रेस अपने को बहुत ताकतवर महसूस कर रही है वहीं दूसरी तरफ वह गठबंधन के बगैर साधन विहीन है और  पुराने नेताओं पर उसकी निर्भरता  काम करने के पुराने तौर-तरीकों की ओर ले जाएगी। यही नहीं वैचारिक तौर पर भी उनमें पुरानापन दिखेगा । मध्य प्रदेश , छत्तीसगढ़ और राजस्थान में बहुजन समाज पार्टी से तालमेल नहीं होने के कारण कांग्रेस बहुत ही मामूली अंतर से विजयी हो सकती है। इतना ही नहीं कांग्रेस फिर पुराने नेताओं के निर्देशन में चली जाएगी। इसके फलस्वरूप आने वाले दिनों में कांग्रेस बहुत अच्छा परिणाम नहीं हासिल कर सकेगी।
         देश की इस सबसे पुरानी पार्टी की खूबी है कि वह लंबी पराजय के बाद भी उभरकर आ जाती है। पार्टी के अध्यक्ष द्वारा मंदिरों के दौरे हिंदुत्व की लहर और जातीयता की बहस का जवाब है। बेशक उसकी कथित धर्मनिरपेक्षता  की खिल्ली उड़ाई जाती है और उसकी  आलोचना की जा रही है लेकिन कुछ ऐसे लोग भी हैं जिन्होंने इस का समर्थन किया है। अभी हाल में हमारे एक पाठक मधुसूदन मसकारा ने जवाहरलाल नेहरू के जनेऊ पहन कर कुंभ स्नान की तस्वीर राहुल गांधी को ट्वीट की है। जो लोग कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता की बात करते हैं उनको यह जवाब है। इन सब के बावजूद अगर ऐतिहासिक रुझान को देखें पता चलेगा बहुत दिनों से सत्तारूढ़ दल  को लगातार दूसरा मौका नहीं मिला है। मनमोहन सिंह इसके अपवाद हैं। उन्हें दूसरी बार भी सत्ता में आने का अवसर मिला था। अब कांग्रेस पार्टी कैसे विजयी होती है वह केवल चुनावी वायदों पर निर्भर नहीं है बल्कि बेचैन मतदाताओं को विश्वास दिलाने पर भी बहुत ज्यादा निर्भर है।
       दूसरी तरफ भाजपा सत्तारूढ़ है। हालांकि भाजपा के कार्यकर्ता उत्साह पैदा नहीं कर पाए। जिसका कारण व्यवस्था विरोधी भाव भी था और काफी प्रचार के बावजूद भाजपा विधानसभा चुनाव में जीत नहीं सकी। दरअसल 2014 में पार्टी ने यूपीए सरकार के उच्च पदों पर भ्रष्टाचार को प्रचारित कर सत्ता में आई । भ्रष्टाचार का यह प्रचार अन्ना हजारे द्वारा चलाए गए आंदोलन के कारण सामने आया । भ्रष्टाचार एक ऐसा मसला था जो हर भारतीय के दिल को छू गया। नरेंद्र मोदी की सबसे बड़ी ताकत थी उनकी व्यक्तिगत साख। उनके बारे में लोगों को भरोसा था कि वह भ्रष्ट नहीं हैं और ना उन्हें भ्रष्ट किया जा सकता है। लेकिन कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी द्वारा उनकी साख पर लगातार हमले, खासकर राफेल सौदे को लेकर ,उनके भ्रष्टाचार के बारे में जो बात प्रचारित की गई उससे लगने लगा कि भाजपा सरकार भी भ्रष्टाचार के लांछन से मुक्त नहीं है। इससे विपक्ष हो यह उम्मीद हो गई कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की छवि  भी लोगों की मन में धुंधली की जा सकती है। भाजपा ने मोदी को विकास पुरुष के रूप में प्रचारित कर चुनाव जीता था लेकिन विपक्ष के प्रचार के कारण इस पर प्रश्न चिन्ह लग गया। 
   वस्तुतः मध्यप्रदेश में पार्टी के मतों का हिस्सा कांग्रेस से सिर्फ 0.1% था।  इन तीन हिंदी भाषी प्रांतों में चुनाव हुए भाजपा हार गयी। अब उसे मतदाताओं की अपेक्षाओं की अनुरूप अपने में सुधार लाना होगा। "राम" से ज्यादा "काम" पर ध्यान देना होगा। उसे ऐसे काम करने पड़ेंगे जिस में सचमुच विकास होता हुआ दिखे। अभी भाजपा के लिए सबसे जरूरी है कि वह किसानों ,नौजवानों ,गरीबों और पिछले समुदाय के लिए कुछ करे। साथ ही, पार्टी बेरोजगारी की ओर भी ध्यान दे ।  गांधी परिवार को लगातार बदनाम करने और  कांग्रेस की असफलताओं को गिनाने  की यह प्रक्रिया बंद करें । क्योंकि इससे पार्टी ने 2014 में जो वायदे किए थे उन वायदों से विमुख होती हुई दिख रही है । विपक्ष में अपने साठ- सत्तर वर्षों के शासन में कुछ नहीं किया यह बताने से मतदाताओं की अंदर जो अपेक्षाएं हैं वह कभी भी पूरी नहीं होंगी।  2019 के चुनाव के बाद मतदाताओं को सत्तारूढ़ दल से बहुत सी उम्मीदें हैं और यदि भाजपा उन्हें उम्मीदों के पूरे होने का आश्वासन नहीं देती है तो यह उसके लिए शुभ नहीं होगा।बीता हुआ वर्ष भाजपा के लिए चुनावी नजरिए से अच्छा वर्ष नहीं होगा देखते हैं 2019 पार्टी के लिए कैसा होता है।

Friday, December 28, 2018

नमो समर्थक नाराज क्यों?

नमो समर्थक नाराज क्यों?

इन दिनों नमो समर्थक नाराज दिख रहे हैं। यहां नमो लिखा जा रहा है न कि नरेंद्र मोदी वहीं गौर करेंगे कि समर्थक और भक्तों में भी फर्क है। यहां इसे पृथक कर देना जरूरी है जो समर्थक है वे भाजपा या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के परंपरागत मतदाता नहीं हैं। वे जन सामान्य हैं। मध्य वर्ग के लोग जो मामूली दक्षिणपंथी हैं। यह आबादी देश में बहुत बड़ी है और इसे सरकार से बहुत अपेक्षाएं हैं। आज नए भारत में उनका मोहभंग हो गया है। ये गर्वित भारतीय हैं ना कि अति राष्ट्रभक्त । धर्म के मामले में ये हिंदू हैं लेकिन  कट्टरपंथी नहीं हैं। हिंदुत्व के बारे में उनका विचार शंकराचार्य, विवेकानंद, अरविंद और  रमन महर्षि से प्रभावित हैं। वे हिंदुत्व और हिंदू में फर्क समझते हैं । उन्हें यह भरोसा था कि बहुत दिनों से भारत भ्रष्ट और अदूरदर्शी राजनीतिज्ञों के गिरफ्त में रहा है। इसने निहित स्वार्थ के लिए लोगों को जाति और धर्म के आधार पर विभाजित कर दिया है । उनकी मंशा थी कि भारत छद्म धर्मनिरपेक्षता और छद्म समाजवाद से मुक्त हो जाए। वे गुणों के आधार पर सामाजिक संरचना के लिए बेचैन थे ।उन्हें नई सरकार में एक नवीन उत्साह ,नई दृष्टि दिखी।  उसने सरकार में विकास तथा उद्यम के लिए एक इच्छा का अनुभव किया। नमो को इसका बिंब माना और इसी के कारण बहुत बड़ी संख्या में लोग अपने परंपरागत राजनीतिक विचारों से मुक्त होकर नमो के पीछे जमा हो गया । नमो एक फिनोमिना का नाम हो गया।
          नमो की आलोचना कोई असर नहीं पैदा कर सकी क्योंकि मध्यमवर्ग समाज को यह उम्मीद थी कि नमो इन सारी आलोचनाओं को मिथ्या साबित कर देंगे तथा शासन की एक नई संस्कृति में भारत का पदार्पण होगा । पांच वर्षों के बाद उम्मीदें तो हार गई और इस समुदाय का मोह भंग हो गया वह इसलिए नहीं कुंठित हो गए कि नमो ने जो कहा उसे पूरा नहीं कर पाए ,क्योंकि उन्हें मालूम है कि असफलता जीवन का एक हिस्सा है । उनकी नाराजगी इसलिए थी  कि इस समय वह नमो को ऐसी ताकतों के साथ जुड़ा देख रहे हैं जिनका डर था। इसलिए अपने को असहाय पा रहे हैं । नमो का जादू भंग हो रहा है। साथी उनसे दूर हो गए हैं और पार्टी के लोग साथ छोड़ रहे हैं। मीडिया भी उनसे अलग होती हुई दिख रही है। नमो एक ताकतवर नेता की तरह सत्ता में आए थे । एक ऐसा नेता जिसका हर पक्ष पर नियंत्रण था लेकिन पार्टी के "एक पक्ष" पर नियंत्रण खोता हुआ दिख रहा है और इससे उनकी व्यक्तिगत साख को आघात पहुंच रहा है। लोगों ने देखा कि नमो एक सीईओ के सांचे में ढले हुए हैं और उनके साथ सही लोगों की टीम है जो कुछ भला करेंगे। नमो ने जिन मंत्रियों जिन मुख्यमंत्रियों और जिन अफसरों का चयन किया उससे लोग हैरत में आ गये। नमो समर्थकों की पीड़ा तब काफी बढ़ जाती है जब वह देखते हैं कि जिन लोगों को जेल में होना चाहिए वे बड़े आराम से टीवी पर प्रवचन दे रहे हैं। वे बहुत सदमे के साथ या देखते हैं कि मीडिया में जो कहा लिखा गया था है उसे उस  पुराने संस्थान ने लपक लिया जो पहले ही निराश कर चुके थे। जिस मध्यवर्ग और छोटे-मोटे कारोबारियों की उम्मीद बन कर नमो सत्ता में आए थे वह उम्मीद खत्म हो गई । नोट बंदी की असफलता और जीएसटी के शिकंजे ने छोटे-मोटे व्यापारियों की कमर तोड़ दी ।लेकिन सरकार को विशेषकर नामों को इसकी कोई चिंता नहीं है। इसका सबसे ताजा उदाहरण है हाल में भाजपा के पुडुचेरी के एक नेता निर्मल कुमार जैन ने प्रधानमंत्री से यह पूछा आखिर सरकार मध्यवर्गीय समुदाय से टैक्स वसूलती है लेकिन मध्यवर्गीय समुदाय के  छोटे कारोबारियों को बैंकों से कर्ज लेने की सुविधा क्यों नहीं प्रदान करती ? मोदी जी ने जवाब में कहा " आप व्यवसाय की बात करते हैं मैं आम आदमी की बात करता हूं और आम आदमी का ख्याल रखा जाएगा।" यहां एक प्रश्न है कि क्या छोटे व्यवसाई आम आदमी की श्रेणी में नहीं आते या फिर दोनों अलग अलग हैं। अगर हैं फिर नमो का यह नारा सबका साथ सबका विकास क्या मायने रखता है ? ऐसे कई छोटे-छोटे मसले हैं या स्थितियां हैं जो देश के मध्य वर्गीय समुदाय को बहुत बुरी तरह साल रही हैं।  यही कारण है कि  जिन्होंने 2014 में नमो का समर्थन किया था वे आज गुस्से में हैं। गौर कीजिएगा यहां वोट देने और नहीं देने का कोई प्रश्न नहीं है । केवल समर्थकों के गुस्से को  रेखांकित करने की कोशिश की जा रही है। ऐसा भी हो सकता है कि 2019 में चुनाव के बाद फिर नमो की सरकार बने लेकिन समर्थकों में जो उम्मीदें उफन रही थीं वह शायद उतनी ज्यादा नहीं होंगी। उम्मीदों के उफान पर मजबूरियों के पानी के छींटे पड़ जाएंगे।

मार्च के पहले पाकिस्तान भारत पर हमला कर सकता है

मार्च के पहले पाकिस्तान भारत पर हमला कर सकता है

हरिराम पाण्डेय
अब से कोई 40 साल पहले क्रिसमस के दिन सोवियत फौज के टैंक और सैनिक काबुल में उतारे गए थे और वहां कम्युनिस्टों तथा इस्लामी मुजाहिदीनों में खूनी जंग छिड़ गई थी। इन मुजाहिदीनों को पाकिस्तान, अमीरात, सऊदी अरब और पश्चिम के कई देश मदद कर रहे थे। 80 के दशक एक तरह से अफगान जिहाद के दशक थे और 1990 का वर्ष गृह युद्ध का था।  काबुल में तालिबान विजयी हुए थे। 21वीं सदी में आतंक के खिलाफ वैश्विक जंग आरंभ हुई। यह जंग अफगानिस्तान और अन्य मुस्लिम राष्ट्रों में थी। अफगान अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण दंडित हुए और पाकिस्तान पुरस्कृत हुआ। आधुनिक युग में यह किसी देश द्वारा लड़ा जाने वाला सबसे बड़ा युद्ध था । आज जब भी अफगानिस्तान का जिक्र आता है तो उसके साथ यह भी कहा जाता है कि अमरीका ने यहां सबसे लंबी लड़ाई लड़ी थी। कोई यह नहीं सोचता कि असहाय अफगानी एक नहीं खत्म होने वाली जंग के शिकार हुए और इसका उन्हें 40 वर्षों तक दंड भोगना पड़ा । दरअसल अफगानिस्तान महाशक्तियों की प्रतिद्वंद्विता  के चौराहे पर फंस गया था जबकि उनकी कोई गलती नहीं थी। लेकिन बात यह उड़ाई गई कि उसे कम्युनिस्टों से मुक्त करने के लिए जंग लड़ी जा रही है । न्यू यॉर्क के डब्ल्यू टी सी पर हमले में सऊदी अरब की भूमिका थी। तालिबान अलकायदा को शरण दे रहे थे और पाकिस्तान खुफिया विभाग तालिबान की मदद कर रहा था। अफ़ग़ानिस्तान एक ऐसी जगह थी जहां क्रोधित अमरिका अपना गुस्सा उतार सकता था। अमरीकी गलत जगह लड़ाई लड़ रहे थे। अफगानिस्तान सही जगह नहीं थी। पाकिस्तान दो तरफा चाल चल रहा था और अमरीकी वहां डॉलर झोंक रहे थे। वहां बड़े आराम से जंग लड़ी जा रही थी वहां जो लोग मारे जा रहे थे उनकी तस्वीरें एलईडी स्क्रीन पर दिखाई जाती थी लेकिन अफगानियों के दर्द कभी रिकॉर्ड नहीं किए गए। हवाई हमलों पर ज्यादा भरोसा था। कोई भी महाशक्ति चुपचाप नहीं रह सकती क्योंकि इसका मतलब होता है जंग में पराजय।  इसमें हैरत नहीं कि जिन तालिबानियों को खत्म करने की  अमरीका ने शपथ ली थी  आज  अफगानिस्तान से सुरक्षित बाहर निकलने के लिए उसी  तालिबान से  अमरीका   वार्ता कर रहा है।
     डोनाल्ड ट्रंप का अमरीका पहले की नीति का यह स्पष्ट प्रदर्शन है। अमरीका अफगानिस्तान से बाहर निकलने के लिए शायद कोई निश्चित तिथि की घोषणा करने  वाला था कि उसने कहा कि वह पूरी फौज नहीं निकालेगा। उसके प्रतिनिधि तालिबान से बातचीत कर रहे हैं।वहां हिंसा जारी है। 25 दिसंबर को अचानक एक आत्मघाती हमले में काबुल में 50 लोग मारे गए । तालिबान ने इस हमले की जिम्मेदारी लेने से इंकार कर दिया तो शायद संदेह की सुई इस्लामिक स्टेट की ओर जा रही है। कहा जा रहा है कि इस्लामिक स्टेट अफगानिस्तान में अपनी ताकत बढ़ा रहा है। सूत्रों के मुताबिक अफगानिस्तान में 1 जनवरी से 8 दिसंबर 2018 के बीच 46,655 लोग मारे गए ,यमन में इसी अवधि में 28,862 लोग मारे गए ,सीरिया में 2018 में 25,854 लोग मारे गए। इनमें नागरिक सरकारी फौजी और आतंकी सब शामिल थे। इसमें अफगानिस्तान सबसे आगे है। आतंकी गिरोहों में भारत की चर्चा है। अफगानिस्तान में सुरक्षा की स्थिति खराब होती जा रही है और तालिबान के कब्जे वाले हैं क्षेत्र में तो यह और भी खराब होती जा रही है।  अमरीका वहां सेना नहीं भेज पा रहा है। सैनिकों की कमी का सीधा अर्थ है हवाई हमलों पर निर्भरता और इस कारण लगातार बम गिराए जाएंगे। मरने वालों की संख्या बढ़ती जाएगी तालिबान और इस्लामिक स्टेट के बीच प्रतिद्वंद्विता वहां स्पष्ट दिखाई पड़ रही है
              अब से अगले दो महीनों में हो सकता है तालिबान नई ताकत के साथ उभरे। पाकिस्तान सिर्फ इसका इंतजार कर रहा है। आने वाले दिनों में अफगानिस्तान की सरकार तालिबान को ज्यादा महत्त्व देगी। तालिबान राजनीतिक आंदोलन नहीं बन सका और जिहादी ताकत बनकर रह गया। उम्मीद नहीं है कि वह अफगानिस्तान के संविधान को स्वीकार करें और बहुत संभव है इस्लामी कानून लागू करने की बात करें ।अमरीका पर बातचीत के मामले में भारी पड़ने का मतलब है अमरीका तो बच निकलेगा लेकिन वहां शांति नहीं आएगी। अफगानिस्तान कबीलों और आदिवासियों के तनाव में फंस जाएगा। ऐसे में इस्लामिक स्टेट के ताकतवर होने की आशंका और बढ़ जाती है। खबर है कि इस्लामिक स्टेट इस्लामिक मूवमेंट आफ उज़्बेकिस्तान और तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान से भी हाथ मिला रहा है और उसकी उपस्थिति उत्तरी अफगानिस्तान में बढ़ रही है।
         दिल्ली में आईएसआईएस सेल का भंडाफोड़ होने से इस बात की आशंका और बढ़ जाती है ऐसे सेल्स देश में और भी कई जगह होंगे और यह भारतीय सुरक्षा के लिए बेहद खतरनाक हो सकते हैं । इसे अरबों द्वारा चलाए जाने की संभावना नहीं है। इसे कुछ लोकल लोग हैं चला सकते हैं । इधर अगर अफगानिस्तान या कहें तालिबान और अमरीका से बातचीत सफल हो जाती है इसका घाटा पाकिस्तान को उठाना पड़ेगा। इसके लिए वह पहले से ही तैयार हो रहा है और उसने अमीरात, सऊदी अरब और चीन से कुछ धन हासिल किया है ताकि उसकी ढुलमुल अर्थव्यवस्था को मदद मिल सके। इसका एक पहलू यह भी है कि दूसरे रूप में यह खेल चलता रहेगा। अभी हाल में राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने ट्वीट किया था की सीरिया के पुनर्निर्माण के लिए सऊदी सरकार धन देने को तैयार है । यह एक गहरी चाल है।   जिस क्षेत्र को अमरीका ने बर्बाद किया था उसी क्षेत्र को फिर से बसाने के लिए अमरीकी उद्योग को अवसर मिलेगा। लेकिन एक बार अगर अमरीका अफगानिस्तान से बाहर आ जाता है तो वह पाकिस्तान में दिलचस्पी नहीं लेगा या कहें पूरे क्षेत्र में दिलचस्पी नहीं लेगा। वह पूर्वी सीमा में शांति के लिए झूठा प्रयास करेगा। हो सकता है कि अफगानिस्तान समझौता होने तक  खालिस्तान और कश्मीर का मसला थोड़ा दब जाए । लेकिन पाकिस्तान तालिबान की अफगानिस्तान में विजय को अपनी नीतियों की असफलता मानेगा और वह दूसरी महाशक्ति की ओर मुड़ सकता है।  जैसे ही ऐसा होगा भारत के खिलाफ  जंग के लिए  तैयार किए गए   गजवा ए हिंद बटालियन सक्रिय हो जाएगा। हमें किसी झांसे में नहीं आना है या कोई भरोसा नहीं करना है हमें तैयार रहना होगा ।बहुत डर है कि आने वाले एक-दो महीनों में गजवा ए हिंद बटालियन भारत पर हमला बोल दे इस हमले से मुकाबले के लिए भारत को तैयार रहना होगा।

Thursday, December 27, 2018

धरती का बिछौना और आकाश का ओढ़ना

धरती का बिछौना और आकाश का ओढ़ना

थोड़ी देर से ही सही भारत में सर्दियां शुरू हो चुकी हैं। लगभग, हर जगह तापमान 10 डिग्री के नीचे है और इसका प्रभाव सब पर है, चाहे वह बड़ा हो या छोटा ,गरीब हो या अमीर। लेकिन अमीरों को थोड़ी राहत है क्योंकि उनके पास ओढ़ने बिछाने और पहनने के लिए प्रचुर कपड़े हैं रहने के लिए घर है और गर्मी पाने के अन्य के साधन भी है मतलब रूम हिटर इत्यादि इत्यादि। लेकिन गरीबों के लिए मौसम हमेशा विपत्ति दे कर आता है , चाहे वह सर्दी हो या तेज गर्मी। जो लोग दिन और रात सड़कों, फुटपाथों या फिर परित्यक्त पड़ी नालियों ,मंदिरों की सीढ़ियां  और भी कई जगह  अपनी जिंदगी गुजारते हैं उनके लिए कुछ नहीं है ।यह मत भूलिए ,अभी और भी लोग हैं जिनकी पीड़ा, जिन का दुख ना हम बोल सकते हैं, ना जानते हैं  और ना सुना गया है।  इस साल अभी तक शीतलहर से मरने वालों की संख्या अखबारों में नहीं आई है।  बहुत बड़ी संख्या में लोग  रैन बसेरा में सोते हैं और यह स्थिति घर विहीन आबादी के बारे में बहुत कुछ बताती है। इन  लोगों के साथ जो बच्चे होते हैं उनमें प्रतिरोध क्षमता कम होती है और वह कम वजन के होते हैं जिसके कारण सर्दियों के शिकार होकर मर जाते हैं । गरीबी बेरोजगारी और गिरते स्वास्थ्य  व खराब मानसिक स्थिति इत्यादि के कारण सर्दियों के प्रभाव से मरने वाले लोगों की संख्या बढ़ जाती है। लगता है कि तंत्र ,हालात और माहौल के बाद अब मौसम भी गरीबों का दुश्मन होता जा रहा है। गर्मी में तपता हुआ एक गरीब  सोचता है कि कब बारिश आएगी और थोड़ी राहत मिलेगी।  जब बारिश आती है तो वह इसके जाने का इंतजार करता है कि सर्दियां आए तो कुछ कपड़े इत्यादि मिलें। लेकिन भयानक  सर्दी में फिर गर्मी की कल्पना मन में उभरने लगती है। गरीब न गर्मी में ठीक से रह पाता है ना बरसात में ना सर्दी में। ऐसा नहीं कि यह हालात बदले नहीं जा सकते।  बेघरबार लोगों के लिए एक विस्तृत नीति और सोच के अभाव के कारण ऐसा नहीं हो रहा है। कई कल्याणकारी योजनाओं से कुछ ही लोग लाभ पाते हैं । एक जमाना था जब सरकार रात में अलाव का इंतजाम करती थी और इसके आसपास सिमटकर  गरीब  सर्दियों में अपना जीवन गुजार लेते थे। इससे उनके प्राणों की रक्षा हो जाती थी ।   अब तो सरकार के लिए सब्सिडी में कटौती का मुद्दा महत्वपूर्ण हो गया है, क्योंकि पैसा नहीं बचेगा तो विकास का काम कैसे होगा? शहरों को खूबसूरत कैसे बनाया जा सकता है ?फुटपाथ पर रहने वाले  नागरिकों या बेरोजगार ग्रामीण मजदूरों की चिंता किसे है ? यह सरकार के आगे गैर जरूरी है। दरअसल ठंड से ज्यादा यह मामला गरीबी से जुड़ा है, भूख और कुपोषण से जुड़ा है। पुराने समाज के रिश्ते और उनकी सुरक्षा खत्म हो गई है।  नए समाज का ढांचा भी पूरी तरह बना नहीं है कि वह लोगों को सुरक्षा दे सके । सरकारी कार्यक्रम की अजीब दास्तां है। इसमें सामाजिक संस्थाएं जो परंपरागत रूप से सेवा कार्य में लगी हैं वह आपस में लड़ने , शोषण और लूट में भागीदार बनने का तंत्र बन जाती हैं।  ऐसे किसी तंत्र का विकास नहीं किया जा सका जो बखूबी समाज की संस्थाओं को उनके परंपरागत आधार से जोड़ सकें । गरीबों के उत्थान के लिए जो सरकारी नीतियां बनती हैं उनमें तालमेल का अभाव है। हमारे देश में अगर उदार अर्थव्यवस्था लागू करनी है तो उसके साथ साथ सामाजिक सुरक्षा के तंत्र विकसित करने होंगे जिससे समाज के सबसे गरीब लोगों को बुनियादी जरूरतों के सामान  मुहैया कराया जा सकें। बेशक, कई शहरों में रैन बसेरा हैं और वहां लोग रहते हैं । लेकिन जो लोग रहते हैं उनकी भी हालत बहुत खराब है। इसके कई कारण हैं। कुपोषण और निम्न प्रतिरोध क्षमता ही नहीं रैन बसेरों में चोरी और उठाई गिरी के कारण हालत और खराब हो जाती है । जो लोग इनमें रहते हैं उनमें बहुत बड़ी संख्या बंद पड़ी मिल कारखानों के गरीब मजदूरों की है। ये लोग छोटे-छोटे काम करके जीवन बसर कर रहे हैं। इनमें से बहुत बड़ी संख्या में लोग अपराधियों तथा ड्रग्स बेचने वालों के हाथ लग जाते हैं और वे या तो ड्रग्स की खेप इधर-उधर करने में फंस जाते हैं या चोरी करने मारपीट करने अथवा भीख मांगने जैसे कामों में लगा दिए जाते हैं । अलबत्ता हर शहर में कुछ लोग या समुदाय ऐसे हैं जो इन गरीबों की मदद के लिए सामने आते हैं। कंबल, दवाइयां ,खाने के सामान इत्यादि मुहैया कराते हैं। लेकिन ऐसा सबके लिए नहीं होता।  यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि हर आदमी के लिए छत होनी चाहिए फिर भी इतनी बड़ी आबादी में सबके लिए घर बनाना एक दुष्कर कार्य है और कह सकते हैं लगभग असंभव है ।  बढ़ती सर्दी और दूसरे हवा  में घुला जहर जिस में हम सांस लेते हैं इसकी दोहरी मार पड़ती है। हालात दिनों दिन बिगड़ते जा रहे हैं और जब तक सरकार तथा आम जनता इस शर्मनाक हकीकत प्रति जागरुक नहीं होगी और सामूहिक स्तर पर अपनी नैतिक और सामाजिक जिम्मेदारी नहीं निभाएंगे  तब तक सुधार नहीं हो सकता।

Wednesday, December 26, 2018

राम मंदिर  का बहुत असर  नहीं होगा 

राम मंदिर  का बहुत असर  नहीं होगा 

लोकसभा चुनाव की सरगर्मियां शुरू हो गई हैं और ऐसे मौके पर एक सवाल पूछा जा रहा है कि राम मंदिर मामले को तूल देने का चुनाव पर क्या असर हो सकता है । उत्तर एक ही हो सकता है कि यह समर्थकों को एकत्र करने का एक तरीका तो जरूर है लेकिन इससे किसी तरह का फैसला होता हुआ नजर नहीं आ रहा है। दूसरे कि समय के साथ इसका प्रभाव घटता जा रहा है। भारत इस समय बाजार की अर्थव्यवस्था के शिकंजे में है और विज्ञापनों के माध्यम से एक प्रकार की उपभोक्ता संस्कृति का जन्म हुआ है। अगर मतदाताओं से पूछा जाए कि क्या चाहते हैं तो वह  कहेंगे कि रोजगार जिससे  हम अपनी जरूरत के सामान खरीद सकें , भोजन कर सकें तथा उन चीजों का अर्जन कर सकें जिनके लिए हम तरस रहे हैं। बहुत कम लोग कहेंगे -अगर कहते हैं तब भी- कि वह अयोध्या में राम मंदिर चाहते हैं। इसका यह अर्थ यह नहीं है कि उन्होंने मंदिर की  इच्छा छोड़ दी है या अयोध्या में किसी राम मंदिर में पूजा करना नहीं चाहते बल्कि इसका यह अर्थ है कि मंदिर सर्वोच्च प्राथमिकता में शामिल नहीं है। मंदिर बने तो बहुत अच्छा लेकिन अगर नहीं बनता है तो इससे जीवन प्रभावित नहीं होने वाला।
      यह आश्चर्यजनक नहीं है अगर कहें कि जब से पूंजीवाद का विकास हुआ और इंसान के व्यक्तिगत उपभोग पर आर्थिक गतिविधियों का प्रभाव शुरू हुआ तब से धर्म का प्रभाव कम होने लगा। ब्रिटिश इतिहासकार आर एच टोनवे ने अपनी पुस्तक "धर्म और पूंजीवाद का विकास" में लिखा है "जब16वीं शताब्दी में सुधार का युग  आरंभ हुआ तब तक धन प्रभावशाली नहीं था और आध्यात्मिकता का प्रभाव सबसे ज्यादा था। जो धार्मिक सिद्धांतवादी थे उनकी अपील सर्वमान्य थी। अर्थव्यवस्था का कोई वर्चस्व नहीं था। उपभोक्तावाद समाज में त्याज्य था चर्च ही समाज के नियम तय करता था और कई बार तो वह शासन को हुक्म  भी देता था। 17 वीं शताब्दी में नाटकीय रूप से यह सब बदल गया। सुधारवादी आंदोलन चला और ईसाइयत विभाजित हो  गई । चर्च का अधिकार घट गया। समाज धर्मनिरपेक्षता की ओर बढ़ने लगा तथा सामाजिक अनुबंध को मान्यता मिली, ना कि सम्राट के दैविक अधिकार को ।चर्च तथा नई सामाजिक आर्थिक  शक्तियों और सुधारवादियों में संघर्ष शुरू हो गया और अंत में समझौते से सब कुछ तय हुआ। समझौते के मुताबिक राजनीति ,व्यवसाय और धार्मिक गतिविधि सबका पृथक महत्व है और सब का अस्तित्व पृथक रहेगा और सबके अपने अपने नियम कायदे रहेंगे और वैसी स्थिति में वही मान्य होगा।" इंसानी हस्तक्षेप ऐतिहासिक प्रबंधों की सक्रियता को सीमित करता है। जबकि आर्थिक विकास के डायनामिक्स समाज और संस्कृति को प्रभावित करते हैं। इसलिए धर्म और अर्थव्यवस्था समानांतर है। उनके बीच कोई अवरोध नहीं है भारत में भी यही प्रक्रिया है और यही कारण है कि सामाजिक गतिविधियों में अर्थव्यवस्था का प्रभाव बढ़ता जा रहा है और धर्म अपनी अलग प्रमुखता लिए किनारे खड़ा है ।धर्म का वर्चस्व सामाजिक गतिविधियों में सीमित है, संपूर्ण नहीं है ।
         कुछ लोग तर्क दे सकते हैं श्रीराम मंदिर या और हिंदुत्व की अपील घटी नहीं है। मंदिर के चाहने वाला और मंदिर आंदोलन से जुड़े लोगों की संख्या इसका गवाह है।  यह तर्क बहुत ताकतवर नहीं है क्योंकि भय भी एक तरह का शस्त्र है। सुरक्षा और स्वतंत्रता का भय सबसे बड़ा तंत्र है उग्र आंदोलनों में लोगों को आकर्षित करने का। जब से लोग पैदा लेते हैं और जवान होते हैं तथा जीवन यापन के रास्ते पर निकल पड़ते हैं हरदम उनके जीवन में कोई ना कोई भय बना रहता है। इस पर विजय का एकमात्र साधन है स्नेह और कार्य द्वारा भावुक तथा बौद्धिक  अभिव्यक्ति । बहुत से लोग ऐसा नहीं कर पाते वे अपने भय पर विजय नहीं प्राप्त कर पाते  ,या सुरक्षा पर विजय नहीं प्राप्त कर पाते हैं और एक प्रभुत्व संपन्न व्यक्ति या संस्था के समक्ष घुटने टेक देते हैं। वे इससे सुरक्षा महसूस करते हैं । इसका मूल इस बात में है कि कौन कितने लोगों की भावनाओं पर काबू कर सकता है और उन्हें सुरक्षा का भरोसा दिला सकता है । अगर आप भय के मनोविज्ञान का अध्ययन करेंगे तो पाएंगे यह आदमी की बुनियादी जरूरतों से पैदा होता है और कमजोर ना कहे जाने के भाव के कारण टिका रहता है। मनोविज्ञान के अनुसार एक सामूहिक आंदोलन या जन आंदोलन किसी चिंता अकेलापन और अस्तित्व की बेचारगी के कारण आत्मसमर्पण है । ऐसे आंदोलनों से कुंठा कम होती है और एक उम्मीद बढ़ती है। दिल से वह व्यक्ति अपने जीवन में मौजूद दुखों से थोड़ी देर के लिए मुक्त हो जाता है । जो लोग अयोध्या में राम मंदिर बनाने के समर्थक हैं उनके बीच बेशक हिंदुत्व का एक बंधन है लेकिन इससे यह स्पष्ट नहीं होता है कि इतने लोग मंदिर बनाने के लिए एकत्र क्यों हो रहे हैं? हिंदुओं की बहुत बड़ी संख्या इस आंदोलन से जुड़ी नहीं है कुछ लोग इसके विरोधी भी हैं। क्योंकि उनके मन में डर है कि इससे सांप्रदायिक तनाव पैदा होगा जिससे हिंसा भड़केगी तथा कई लोग तो हिंदू होने के बावजूद इस बात से भी डरते हैं कहीं ऐसे आंदोलनों के बाद जाति वर्ण और भाषा को लेकर नया बवाल न खड़ा हो जाए। अगर राम मंदिर का मसला लोगों को आकर्षित करता है तो यह भी  विकर्षित भी करता है। यह एक समुदाय को अगर समाहित करता है तो उन्हें विभाजित भी करता है। कुल मिलाकर राजनीतिक  और चुनावी  वातावरण के लिए राम मंदिर बहुत महत्वपूर्ण और संवेदनशील मसला नहीं है। जगतगुरु शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती ने हाल में कोलकाता में कहा था कि कोई भी सरकार राम मंदिर बना ही नहीं सकती है। बेशक, कोर्ट का फैसला उसे पक्ष में भी आ जाए तब भी। क्योंकि, जैसे ही कोई सरकार बनती है वह संविधान की शपथ लेती है और हमारा संविधान धर्मनिरपेक्ष है वह मंदिर बनाने की इजाजत या मस्जिद बनाने की इजाजत नहीं देता। हाल में संपन्न हुए विधानसभा चुनाव इसके उदाहरण हैं लोकसभा चुनाव में इसका क्या असर होगा इसका सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है।

Tuesday, December 25, 2018

कृषि नीति में सुधार के बिना कुछ नहीं होगा 

कृषि नीति में सुधार के बिना कुछ नहीं होगा

राहुल गांधी ने किसानों का मसला उठाकर कहने को तो सरकार को झकझोर दिया है और इसी की लहर पर सवार होकर उन्होंने 3 विधानसभाओं में चुनाव में जीत लिए। अब उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चुनौती दी है कि जब तक वे सभी किसानों के कर्ज माफ नहीं कर देंगे तब तक उन्हें चैन से सोने नहीं देंगे। लेकिन अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सचमुच देश का हित चाहते हैं और ग्रामीण अर्थव्यवस्था का विकास चाहते हैं तो वे बेशक नींद त्याग दें लेकिन किसानों के कर्ज माफ ना करें । क्योंकि यह मांग देश के लिए विशेषकर देश की अर्थव्यवस्था के लिए और खुद किसानों के लिए बेहद घातक है । राजनीतिक प्रवृतियां आमतौर पर पुरानी हिंदी फिल्मों की तरह  होती हैं। जिस तरह फिल्मों में कहावतें- डायलॉग ज्यादा पसंद किए जाते हैं उसी तरह भारत की राजनीति में भी होता है। फिल्मों में खलनायक हमेशा बुरा होता है और मां की आंखें आंसुओं से भरी होती हैं और किसान सदा से गरीब ही रहे हैं । यहां तक कि हमारे पूर्वज कवि- लेखक भी कह गए हैं कि "भारत माता ग्रामवासिनी" और उसके बाद पंच परमेश्वर का होरी और उसके बैलों की जोड़ी का जिक्र है । होरी की  गुरबत का जिक्र है। यकीनन किसानों को हमारी सहानुभूति चाहिए और टैक्स देने वालों के पैसे भी । लेकिन जरा सोचिए अगर आप शहर में मजदूरी करते हैं और कम कमाते हैं या किसी निजी स्कूल में संघर्षरत शिक्षक हैं तब भी आपको कर्ज माफी की बात करने का अधिकार नहीं है। अगर आप ने कुछ बंधक रखा हुआ है और ई एम आई नहीं दे पाते हैं तब भी  बैंक या सरकार से यह उम्मीद मत कीजिए कि वह कर्ज माफ कर दे । यहां तक कि आप लघु या सूक्ष्म उद्योग  उत्पादक है तब भी राजनीतिज्ञों को आप जैसे लोगों के प्रति कोई सहानुभूति नहीं है। अब किसानों का मामला देखिए । अगर आप  किसान हैं तो रोनी सूरत बनाए रखें और चेक हासिल कीजिए। भारत में किस तरह राजनीतिज्ञों ने किसानों के दुख और विपत्ति  का यह बवाल खड़ा कर उसे दैत्य बना दिया है। हमारे पाठकों में से बहुतों को 1960 का वह मंजर याद होगा जब देश में अनाज की किल्लत थी और लगातार दो बार अकाल पड़े थे। अमरीका से अनाज आता और देश के अधिकांश लोगों का पेट पालता था। 1950 के दशक में कृषि पर ध्यान नहीं देने का नतीजा था यह। क्योंकि, वह उद्योगी करण का युग चल रहा था किसानों को मदद करने की किसी  भी तरह की कोई बात करने वाले को दक्षिणपंथी या प्रतिक्रियावादी कहा जाता था। सोवियत मॉडल की औद्योगिक नीति अपनाने का नतीजा रूसी शैली  की कृषि विपत्ति भी आ गई। इसके बाद हरित क्रांति आरंभ हुई। ज्यादा उत्पादन करने वाले बीज बनाए गए या बाहर से मंगाए गए और सब्सिडी की गारंटी दी गई ताकि किसान ज्यादा उत्पादन कर सकें और बाजार में भेज सकें। वामपंथी पार्टियों ने कहा हरित क्रांति असफल होगी और उसके बाद "लाल आंदोलन" आरंभ होगा। क्योंकि हरित क्रांति में बड़े किसानों को मदद मिलती है और केवल गेहूं उत्पादक ही लाभ पाते हैं ।इससे असमानता बढ़ेगी और भारत के गांव आंदोलन से धधकने लगेंगे। लेकिन जैसा आमतौर पर होता है इस तरह की बड़ी-बड़ी बातें नाकाम हो जाती हैं वामपंथ की यह बात भी व्यर्थ हो गई । दूसरी तरफ हरित क्रांति की असफलता से जो सबक मिला उससे सरकार सीख नहीं पाई । कृषि  निजी क्षेत्र का सबसे बड़ा उद्योग था और सदियों के बाद यह मुनाफा देने लगा था।  निजी उद्योग के लिए जो मदद और विशेषज्ञता चाहिए वह कृषि में नहीं हो सकी ताकि शहरों से गांव में नौजवान मजदूर आ सकें। दुनिया का हर विकसित देश इसी राह पर चलकर विकसित हुआ है। भारत ने भी 70 के दशक के मध्य में इस पर चलना शुरू किया था लेकिन काश वह इस पर चलता रहा होता।  देश में जो भी सरकार आई उसने मशीन से उत्पादन तथा निजी क्षेत्र के प्रति संदेह खुद जारी रखा । इंदिरा जी ने निजी क्षेत्र पर संदेह जाहिर किया और उन्होंने बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया ,यही नहीं कई निजी उद्योगों का भी राष्ट्रीयकरण कर दिया । एक जमाने में भारत का कपड़ा उद्योग विश्व विख्यात था । वह ट्रेड यूनियन के चलते बर्बाद हो गया । बंगाल का जूट उद्योग खत्म हो गया। सारी मिले बंद हो गईं और उसके बाद सब देख रहे हैं कि मुंबई या कोलकाता लग्जरी अपार्टमेंट्स और शॉपिंग मॉल से भर गए। एक वक्त में जहां मजदूर रहते थे और मिलों के सायरन उनकी घड़ियां थीं आज वहां चमकते मॉल हैं या बहुमंजिला फ्लैट्स। रोजगार समस्या हो गई और दो तिहाई भारत गांव में जमा हो गया। जहां  नौकरी नहीं थी ,रोजगार नहीं थे और ना पिछले 40 वर्षों से जिसके लिए कोई योजना थी। आज के गांव पुरानी हिंदी फिल्मों के गरीब खांसते किसान की तरह हैं। भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए भी यब एक खांसता हुआ मरीज है।  देश के राजकोष से  उसे ऋण माफी की अफीम खिलाई जाती है ताकि उसकी पिनक में वह कुछ देर के लिए अपना दुःख भूल जाये। लेकिन जैसे ही वह नशा उतरता है वह फिर बीमार पड़ जाता है यही नहीं उसकी बीमारी और बढ़ जाती है। आज गांव के सारे गावों के हालात बिगड़ते बिगड़ते एक ऐसी जगह पहुंच गये हैं जहां यदि उनमें सुधार ना लाया गया तो पूरी व्यवस्था चौपट हो जाएगी।  उसके लिए सबसे पहले जरूरी है कि कृषि को उत्पादक बनाया जाए। जिससे उस में रोजगार मिल सके और इसके लिए कर्ज माफी कोई उपचार नहीं है। सबसे पहला उपचार होगा कि पूरी व्यवस्था को सुधारा जाए जिससे कर्ज माफी की जरूरत ही ना पड़े।
    अगर ऐसा नहीं होता है या कहीं ऐसा नहीं किया जाता है तो पहले गांव और उसके बाद शहर भयंकर दरिद्रता की चपेट में आ जाएंगे।  जो अराजकता बढ़ेगी वह सरकार संभाल नहीं पाएगी ।क्योंकि, भूखा इंसान कुछ भी कर सकता है। पेट नहीं भरने की सूरत में उद्योगों का विकास कैसे होगा यह भी एक समस्या है। सरकार को मूलभूत समस्या पर ध्यान देना चाहिए ना कि राहुल गांधी जैसे नौसिखए राजनीतिज्ञ की बात सुननी चाहिए।

Monday, December 24, 2018

सावधान ! आपकी हर सांस पर सरकार की नजर है

सावधान ! आपकी हर सांस पर सरकार की नजर है

जी हां अब आपका कंप्यूटर सिर्फ भौतिक रूप में आपका है लेकिन उसमें सुरक्षित सभी डाटा सरकार की निगाहों में है । सोवियत संघ के जमाने में एक कहावत चलती थी कि आपके सोने का कमरा केजीबी की नजर में है। आज लगभग वही बात हमारे देश में है। सरकार ने 10 सरकारी एजेंसियों को यह दे दिया है कि वह आपके कंप्यूटर को इंटरसेप्ट करें और सभी व्यक्तिगत डेटा की समीक्षा करें । गृह मंत्री राजनाथ सिंह के विभाग द्वारा जारी यह आदेश अत्यंत विवादास्पद है। इसने  अपने प्रभाव के कारण आधार को भी पीछे  छोड़ दिया। देश में व्यक्तिगत निजता की वकालत करने वाले लोगों में इसे लेकर काफी चिंता है। सरकार के आदेश के मुताबिक है 10 एजेंसियां जिनमें इंटेलिजेंस ब्यूरो ,नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो, एनफोर्समेंट डायरेक्टरेट, सेंट्रल बोर्ड आफ डायरेक्ट टैक्सेज, डायरेक्टरेट ऑफ रेवेन्यू इंटेलिजेंस, सीबीआई ,नेशनल इन्वेस्टिगेशन एजेंसी और रॉ तथा केवल जम्मू कश्मीर ,उत्तर पूर्व एवं  असम में डायरेक्टरेट आफ सिगनल इंटेलिजेंस इसमें शामिल है। इन्हें  यह अधिकार दिया गया है कि वह देश के भीतर किसी भी कंप्यूटर में एकत्र आंकड़ों देख सके तथा उनके द्वारा भेजे गए और प्राप्त किए गए किसी भी आंकड़े को बीच में ही देख सकें और उस पर रोक  सकें। सरकार के आदेश में यह भी कहा गया है जो व्यक्ति कंप्यूटर के प्रभार में होगा या फिर इंटरनेट सर्विस प्रोवाइडर होगा जिसके नेटवर्क पर कई कंप्यूटर चल रहे होंगे वह जांच एजेंसियों को मदद करने के लिए बाध्य है वरना उसे 7 वर्ष की सजा हो सकती है।
         इस आदेश के दूरगामी प्रभाव को देखते हुए कई सामाजिक कार्यकर्ता और विपक्षी दल सरकार पर हमले भी करने लगे हैं । कांग्रेस के अहमद पटेल ने यह प्रश्न उठाया है कि फोन और कंप्यूटर इत्यादि की यह निगरानी क्यों? वह भी बिना किसी रोक के ! यह अत्यंत चिंताजनक है। एजेंसियों द्वारा इसके दुरुपयोग की पूरी आशंका  है। पूर्व वित्तमंत्री पी चिदंबरम ने इस कदम की आलोचना करते हुए कहा कि भारत ओरवेलियायी  राज्य में बदल रहा है। कई और नेताओं ने सरकार के इस कदम की आलोचना की और भविष्य में इसके दुरुपयोग की आशंकाओं पर चिंता जाहिर की।
          यहां सवाल है कि यह आदेश हमारे लिए क्या मतलब रखता है । यानी हमारे रोजाना की जिंदगी में इसके क्या अर्थ हैं? कुछ भी नहीं । क्योंकि देश की दस बड़ी जांच एजेंसियों को एक व्यक्ति की जासूसी करने पर लगाए जाने  जैसे इस आदेश से आम जनता में बेचैनी हो सकती है । पिछले कुछ वर्षों से डिजिटल निजता पर बात चल रही है और इस अधिकार को अक्षुण्ण रखने की मांग की जा रही है। क्या जनता इसे स्वीकार कर लेगी। यह आदेश एक तरह से देश में आपात स्थिति की याद दिलाता है- ना कुछ कहो ,न कुछ सुनो। जनता की जुबान पर ताला जड़ देने की यह कोशिश है । इस आदेश के जारी होते ही आपके कंप्यूटर, लैपटॉप, टेबलेट और यहां तक कि फोन के डाटा के एक-एक बाइट सरकार की निगाहों में आ गया है या आ जाने का खतरा है। एक नहीं दस - दस एजेंसियों को यह अधिकार देकर सरकार ने ना केवल व्यक्तिगत निजता पर हमला किया है बल्कि अगर कुछ गलत होता है तो उस विशेष व्यक्ति की साख पर भी प्रभाव पड़ेगा। इस आदेश का एक और गलत प्रभाव होगा कि इसने किसी विशिष्ट तथ्य या स्थिति की बात नहीं की है बल्कि सभी कंप्यूटरों की कभी भी निगरानी का आदेश दे दिया है। यही नहीं आदेश में जो शब्द कंप्यूटर का इस्तेमाल हुआ है वह बड़ा ढीला ढाला  है। आदेश में सीधे कंप्यूटर लिख दिया गया है और उसके तहत इस डिजिटल युग में कई चीजें आती हैं यहां तक कि आपका मोबाइल टेलीफोन भी। जिसका कोई अलग से उल्लेख नहीं है। यानी अब अगर आप टेलिफोन करते हैं तो डर है कि सरकार आपकी बातें सुन ले। कभी इमरजेंसी के जमाने में ऐसा हुआ करता था। इससे जिस हालात के पैदा होने का डर है वह हमें चीन   में कम्युनिस्ट शासन कि याद दिलाता है। जहां कहते हैं के हर कमरे की दीवारों में माइक्रोफोन लगा रहता था और आपकी फुसफुसाहट  भी सुनाई पड़ती थी। यह नागरिकों के निजता के अधिकार का खुल्लम खुल्ला हनन है।
       

Sunday, December 23, 2018

किसान कर्ज माफी से बात बनेगी क्या?

किसान कर्ज माफी से बात बनेगी क्या?

एक प्रश्न है, क्या नरेंद्र मोदी की सरकार किसानों और कृषि क्षेत्र की सभी मुश्किलों के लिए जिम्मेदार है ? शायद नहीं, किसानों की पीड़ा भारत की अर्थव्यवस्था के विकास के साथ जुड़ी है और यह पिछले दो दशकों से लगातार बिगड़ती जा रही है । मौजूदा संकट के  हालांकि कई कारण हैं, जिनमें तेल की बढ़ती कीमत ,आंतरिक आर्थिक निर्णय जैसे नोटबंदी और जीएसटी इत्यादि। किसानों की पीड़ा का बहुत बड़ा राजनीतिक महत्व है। कृषि क्षेत्र  एनडीए सरकार लगातार ध्यान में है , लेकिन राहुल गांधी और कांग्रेस ने किसानों की पीड़ा और उनके दुख को बहुत बढ़ा चढ़ाकर जनता के सामने रखा। विपक्षी दलों ने भी इस मामले का इस्तेमाल किया। इसे लेकर राजनीति करना बिल्कुल गलत नहीं है। राजनीति और शासन दोनों अवधारणा से जुड़े हैं और एक नकारात्मक अवधारणा का उपयोग विपक्ष करेगा ही।  2014 के आम चुनाव के प्रचार के दौरान भाजपा ने कांग्रेस को एक भ्रष्ट सरकार के रूप में चारों तरफ चित्रित किया । अब राहुल गांधी और कांग्रेस ने किसानों की कर्ज माफी के बारे में बात करके बहुत बड़ी गलती कर दी। क्योंकि किसान कर्ज माफी की घोषणा विगत एक दशक से या कह सकते हैं उससे कुछ ज्यादा समय से एक फैशन बन गई है । अब तक कर्ज माफी की कोई नीति नहीं बनी है। हालांकि , सभी सरकारों ने इसकी घोषणा की है और इसे लागू भी किया है। ताकि किसानों को दुख से बाहर निकलने  में मदद मिल सके। लेकिन, सवाल है कि क्या यह नीति प्रभावशाली हो  सकती है ? क्या किसानों की छोटी सी आबादी भी यूपीए सरकार के साठ हजार  करोड़ की कर्ज माफी से लाभान्वित हुई है? हम कई राज्यों में किसान कर्ज माफी की बात सुनते हैं। लेकिन कभी यह सुनने में नहीं आया इससे किसानों की पीड़ा कम हो गयी हो।फिर भी, भारत के राजनीतिज्ञ कर्ज माफी की घोषणा करते हैं। यह ठीक उसी तरह है जिस तरह पुराने जमाने के राजा- महाराजा किसी संकट के समय लोगों की मालगुजारी माफ कर दिया करते थे। भारत को आजाद हुए 70 वर्ष हो गए लेकिन हम इस सोच से उबर नहीं सके हैं । किसान कर्ज माफी के विरुद्ध कई तर्क हैं। पहला कि छोटे किसानों के लिए संस्थानिक कर्ज अपवाद हैं।  माफी इसे कभी लाभदायक नहीं बनाती। दूसरे, कर्ज माफी खेती का एक मौसम खत्म होने के बाद होती है, लेकिन तब तक फसल नुकसान हो चुकी होती है। सरकार को किसानों की मदद करनी चाहिए लेकिन यह मदद तब हो जब कृषि का मौसम शुरू हो। मसलन, बुवाई के समय ना की कटाई के समय। सरकार को किसानों को तब मदद करनी चाहिए जब वह बीज ,खाद इत्यादि खरीदता है या बुवाई के लिए खेत तैयार करता है। क्योंकि, इसी समय खर्च पड़ता है।  यह खर्च खेती की लागत में जुड़ जाता है। लागत की ज्यादा वापसी अपेक्षित होती है और यह ऋण माफी से ज्यादा महत्वपूर्ण है । वर्तमान में 1.7 लाख करोड़ रुपए  की कृषि ऋण माफी योजना चल रही है। यदि यह रकम फसल की शुरुआत में दी गई होती तो इसके लौटने या लाभप्रद होने की उम्मीद थी।  इसी समय किसानों को मदद चाहिए ,चाहे वह आर्थिक हो या कोई और। इस मदद को सब्सिडी या सीधे खाते में जमा करके दिया जा सकता है। इस मौके पर अगर मदद मिलती है तो इससे कर्ज कम होंगे। किसान भीख नहीं चाहते हैं। उन्हें सिंचाई के लिए पैसा चाहिए ,प्रतियोगिता मूलक बाजार चाहिए जिसमें वह अपना उत्पादन बेच सकें और बाजार दलाल विहीन होने चाहिए। कृषि कर्ज माफी बैंकिंग और अन्य आर्थिक क्षेत्र के लिए एक फंदा भी है। क्योंकि हर बार कर्ज माफी उधार के नियमों में या कहें उसके अनुशासन में बाधा डालती है और उसको बिगाड़ देती है। कर्जे से जूझ रहे किसान में यह सुरक्षा का मिथ्या भाव पैदा करती है।
            राजनीतिक दल कर्ज माफी की घोषणा करके एक दूसरे को नीचा दिखाने के चक्कर में रहते हैं । लेकिन सच तो यह है कि इसका प्रत्यक्ष आघात अर्थव्यवस्था पर होता है। कुछ किसान तो यह सोचते हैं कि अब उन्हें कर्ज वापस ही नहीं करना पड़ेगा। इससे कर्ज देने वाली संस्थाओं के आगे समस्या पैदा हो जाती है । आगे चलकर यह छोटे किसानों के लिए मुश्किल बन जाती है। बड़े किसान तो बैंकों इत्यादि से कर्ज ले लेते हैं और बाद में माफी का मजा लूटते हैं।  जो किसान खेती के लिए जरूरी सामान खरीदने की ताकत नहीं रखते वे ऊंचे ब्याज दर पर महाजनों से कर्जा लेते हैं और धीरे-धीरे लगातार गरीब होते जाते हैं इनमें से कई आत्महत्या कर लेते हैं। यह किसानों ,राजनीतिज्ञों  और  बैंकों  के बीच  का एक कुत्सित चक्र है। राहुल गांधी ने हाल में किसानों की कर्ज माफी की घोषणा की, क्या यह राजनीतिज्ञ किसानों की पीड़ा को अपनी लोकप्रियता बढ़ाने के लिए इस्तेमाल करना बंद कर सकते हैं। राहुल गांधी क्यों नहीं इस दिशा में कदम बढ़ाते हैं।

गांधी परिवार का नाम लेने  के लिए मिशेल पर बढ़ते जा रहे हैं दबाव

गांधी परिवार का नाम लेने  के लिए मिशेल पर बढ़ते जा रहे हैं दबाव

हरिराम पाण्डेय
अगस्ता वेस्टलैंड वीवीआइपी हेलीकॉप्टर की खरीद में घोटाले मैं कथित दलाल क्रिश्चन मिशेल सीबीआई ने दुबई से प्रत्यर्पित किया यह प्रत्यर्पण राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत दोवाल की देखरेख में हुआ। लेकिन, जिस उद्देश्य से यह किया गया वह पूरा होता हुआ नजर नहीं आ रहा है और क्रिश्चियन मिशेल पर लगातार दबाव बढ़ रहा है कि वह गांधी परिवार का नाम ले ले। फिलहाल वह तिहाड़ जेल में है और उसे 28 दिसंबर तक हिरासत में भेजा गया है।
      अगस्तावेस्टलैंड हेलीकॉप्टर घोटाले सामने रखकर  भाजपा  लंबी चाल चलने वाली थी, वरना क्या कारण थे कि मिशेल का प्रत्यर्पण 19 नवंबर को मंजूर हो गया था और उसे 4 दिसंबर को दुबई से एक विशेष विमान से भारत लाया गया। जबकि बड़े-बड़े आतंकवादियों को भी कमर्शियल एयरलाइंस से लाया जाता है। 
      सन्मार्ग ने कुछ ऐसे विवादास्पद कागजात भी देखे हैं जिसमें देश के कुछ बड़े राजनीतिज्ञों के नामों के पहले अक्षर हैं और इसी ने मौजूदा राजनीतिक वातावरण में मिशेल को मोहरा बना दिया है। यह दस्तावेज कथित रूप में बताते हैं कि भारतीय अधिकारियों को रिश्वत दी गई है। जिनमें राजनीतिज्ञ भी हैं। यह रिश्वत कुल मिलाकर 3 करोड़ यूरो के बराबर थी। जो शुरुआती अक्षर से उनके अनुसार कुछ ऐसे बनते हैं नाम:
ए एफ - एयर फोर्स अधिकारी -पच्चीस लाख यूरो 
बी यू आर- ब्यूरोक्रेट्स ,जेएसए- ज्वाइंट सेक्रेट्री एयर फोर्स, सीवीसी - सेंट्रल विजिलेंस कमिशन-  30 लाख यूरो 
एफएएम यानी फैमिली यानी गांधी परिवार-  1.6 करोड़ यूरो ।
हालांकि इटली की अदालत ने इस सबूत को मानने से इनकार कर दिया है। यही सबूत भारत में मिशेल को महत्वपूर्ण बना रहे हैं और हो सकता है आने वाले दिनों में इसी को अफवाह बनाकर उड़ाया जाए । 
    राज्यों के चुनाव कुछ दिन पहले 4 दिसम्बर 2018 को हुए  इस प्रत्यर्पण ने अब मोदी जी को निराश करना शुरू कर दिया है। जिस दिन मिशेल को लाया गया उसके ठीक एक दिन बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक इलेक्शन रैली को संबोधित करते हुए घोषणा की कि मिशेल मैडम सोनिया गांधी सहित गांधी परिवार के राज  खोलने वाला है। मोदी जी ने कहा कि क्रिश्चियन मिशेल अब उस डायरी के बारे में बताएगा इसमें सोनिया गांधी का नाम है आप लोग मैडम सोनिया गांधी के  पत्र के बारे में जानते ही होंगे ।जब हम सत्ता में आए तो हमने फाइल को खोजा और उसके राजदार को खोजना शुरू किया और अंत में पकड़ लिया। मोदी जी ने यह बात 5 दिसंबर को कही थी।उसे 14 दिन की हिरासत में भेज दिया गया था और इन 14 दिनों में मिशेल ने गांधी फैमिली और न कांग्रेस पार्टी के किसी नेता का कोई नाम नहीं लिया। मोदी जी ने उसी रैली में कहा था कि मिशेल "नामदार" के मित्रों सेवा करता है। सरकार  उसे भारत ले आयी है और अब यह "राजदार" सभी राज को खुलेगा । मालूम नहीं यह कहां तक जाएगा।
           लेकिन सरकार की इन अपेक्षाओं के विपरीत मिशेल ने हिरासत के दौरान गांधी परिवार के किसी भी सदस्य का नाम लेने से इंकार कर दिया कि उसने हेलीकॉप्टर सौदे में  रिश्वत दी थी ऐसा लगता है कि मिशेल का प्रत्यर्पण गांधी परिवार और कांग्रेस पार्टी को डराने के लिए किया गया था कई लोग तो प्रत्यर्पण किस समय पर भी उंगली उठा रहे हैं और आरोप लगा रहे हैं कि भाजपा कांग्रेस को चुनाव के दौरान बदनाम कर राजनीतिक लाभ उठाना चाह रही है लेकिन ऐसा तभी संभव होता जब मिशन में कोई नाम दिया होता लेकिन भाजपा निराश हो गई दलाल ने कोई नाम नहीं लिया अब वही स्थिति यह है की मिशन के कुछ नहीं कहने के कारण कांग्रेस पार्टी ने ताल ठोकना शुरू कर दिया कि कांग्रेस ने खुद ही अगस्ता वेस्टलैंड के मामले में मुकदमा शुरू किया था और अब भाजपा यह सब इसलिए कर रही है कि वह खुद को पांच राज्यों में पराजित होता हुआ पा रही है। चुनाव के बाद परिणाम कांग्रेस के पक्ष में आए।
        
सन्मार्ग की खोज के मुताबिक मिशेल को भारत के अनुरोध पर 8 अक्टूबर 2016  को ही गिरफ्तार कर लिया गया था और उसने दुबई में अभियोग पक्ष को बयान दिया था कि " उसने मनमोहन सिंह के जमाने में भारत में काम किया था और तब तक करता रहा था जब 2014 में नरेंद्र मोदी की सरकार बनी।" उस पर आरोप लगाए गए कि वह एक बार पिछली सरकार के हेलीकॉप्टर सौदे में जुड़ा था बाद में जब उससे पूछा गया कि क्या खरीद के बारे में फैसला करने वालों को रिश्वत दी गई थी तो मिशेल ने कहा कि "मेसर्स ग्लोबल सर्विसेज और मेसर्स इंटरनेशनल ट्रेडिंग कंपनी को 7 करोड़ यूरो की रिश्वत दी गई थी।" मिशेल ने दुबई में जन अभियोजक की जांच के दौरान कहा कि "वह अब भी अपने बयान पर कायम है कि उसने मनमोहन सिंह सरकार के साथ काम किया था और उस पर आरोप लगाए जा रहे हैं। मुझ पर यह मामला इसलिए चल रहा है कि मैं पिछली सरकार के खिलाफ बयान दूं। यह सौदा बिना किसी दलाली के हुआ था या मैंने किसी को रिश्वत नहीं दी थी और मैं भारत में किसी कंपनी शाखा में काम नहीं करता था। जब हेलीकॉप्टर की उड़ान की ऊंचाई को 6000 मीटर से घटाकर 4000 मीटर किया गया तब शायद मैं इंग्लैंड की कंपनियों के शाखा में काम करता था। मिशेल ने  यह भी कहा है कि उसके खिलाफ यह मामला पहले भी भारत सरकार ने दायर किया था और इटली तथा स्विजरलैंड की सरकारों ने भी भारत के कहने पर यह मुकदमा शुरू किया था।
       अभी पता चला है  भारत सरकार उस पर दबाव दबाव डाल रही है कि वह गांधी परिवार का नाम ले ले और इसके लिए कई तरह के हथकंडे अपनाए जा रहे हैं । जो पता चला है उसके मुताबिक उसने अभी तक कबूल नहीं किया है।

Friday, December 21, 2018

बंगाल में भाजपा का घेरा : बंगाल की बहुलतावादी संस्कृति की अग्नि परीक्षा

बंगाल में भाजपा का घेरा : बंगाल की बहुलतावादी संस्कृति की अग्नि परीक्षा

हरिराम पाण्डेय
यह आरएसएस और बीजेपी के लिए जबरदस्त महत्व है कि पश्चिम बंगाल और अधिक विशेष रूप से कोलकाता केसरिया रथ के हमले के नीचे दब गया है। यह महत्वपूर्ण  इसलिए है कि बंगाल और कोलकाता हमेशा से  सांप्रदायिक सद्भाव का प्रतीक माना जाता रहा है। यहां के  लेखकों, कवियों, कलाकारों, नाटककारों, संगीतकारों और फिल्म निर्माताओं ने पिछले दो सौ वर्षों से  लगातार धर्मनिरपेक्षता, समतावाद और बहुलतावाद को   देश के रक्त में प्रवाहित किया है।पश्चिम बंगाल संघ की पसलियों में लगातार कांटे की तरह रहा है।
जब नरेंद्र मोदी अपनी विशिष्ट  उत्तेजक शैली में कब्रिस्तान बनाम शमशान के बारे में विभाजित रूप से बात करते हैं, तो राज्य में हिंदुओं और मुसलमानों की एकता की पुष्टि करते हुए एक नाजरूल इस्लाम के गीत हिंदू और मुस्लिम को एकजुट करने की कोशिश करते हैं।  टैगोर की कविता - "जहां मन डर के बिना है" - किसी भी प्रकार की जेनोफोबिया के खिलाफ शंखनाद  है। यह एक प्रसिद्ध तथ्य है कि आरएसएस के लिए अब कुछ समय के लिए उनका बना हुआ राष्ट्रीय गान आश्रय  रहा है। वे स्पष्ट रूप से 'वंदे मातरम्' पसंद करते हैं। 
जब कोई  सीधे लोकप्रिय और सम्मानित 'आइकन' को चुनौती नहीं दे सकता है, तो वह किनारों से हमले शुरू करता है।
बहुत अर्सा नहीं हुआ जब सोशल मीडिया पर एक प्रचार किया जा रहा था कि  ' जन गण मन' को नए ब्रिटिश  सम्राट जॉर्ज पंचम  की प्रशंसा के लिए  लिखा गया था। कई लोगों ने निम्नलिखित पोस्ट करके इस मिथक का भंडाफोड़ किया। 
10 नवंबर 1 9 37 को, टैगोर ने श्री पुलिन बिहारी सेन को एक पत्र लिखा (बंगाली में लिखे गए पत्र को रविंद्रजीवानी - टैगोर की जीवनी में प्रभातकुमार मुखर्जी, खंड 2 पृष्ठ 339 ):
"महामहिम की सेवा में एक खास उच्चाधिकारी  , जो मेरे मित्र भी थे, ने अनुरोध किया था कि मैं सम्राट की प्रशंसा में एक गीत लिखूं। अनुरोध ने मुझे आश्चर्यचकित कर दिया। यह मेरे मन में एक बड़ी हलचल का कारण बन गया। उस भीषण मानसिक अशांति के जवाब में, मैंने भारत के उस भाग्य विधाता  के जन गण मन में जीत का गायन किया। लेकिन जिसने बरसों बाद तथा हर मोड़ पर या उतार चढ़ाव में  भारत के रथ को स्थिर रखा, वह भगवान जॉर्ज वी, जॉर्ज षस्ठम, या कोई अन्य जॉर्ज कभी नहीं हो सकता है। मेरे आधिकारी दोस्त ने भी इस गीत के बारे में यही  समझा। आखिरकार, अगर ताज के लिए उनके मन में  प्रशंसा अत्यधिक थी, तो उसे  सामान्य ज्ञान में कमी मानी जा सकती है। "
बंगाली शायद मूल रीति-रिवाजों और विश्वासों के बारे में अपने चुटकुलों  में अद्वितीय है। यह 1 9वीं शताब्दी से पहले की बात है।एंग्लो-इंडियन कवि के छात्रों हेनरी विवियन डेरोजियो (180 9-1831) ने प्रदर्शनीवाद के आधार पर उत्साह का प्रदर्शन किया। बंगाल खासकर कोलकाता वह जगह है जहां हमारे समकालीन रूप और उपहास के बीच समानता समाप्त होती है।
पश्चिम का अनुकरण करने वाले युवा  सच थे। उनमें से कई ने  ईसाई धर्म अपना लिया।उनके लिए, ईसाई धर्म का अर्थ प्रगति और पुराने से दूर होना था ।  हमारी  उपभोक्तावादी  और युवा संस्कृति हमारे  माता-पिता के बहादुर और समाजवादी मध्यम वर्ग के मूल्यों से आज़ादी  का प्रतिनिधित्व करती है।
लेकिन वे ह्यूम और बेंटहम के दर्शन और थॉमस पाइने जैसे कट्टरपंथी विचारकों से प्रभावित थे। उनका एक सुधारवादी आंदोलन था। उसमें कारण और तर्कसंगतता थी, इसके द्वारा वे अपनी दुनिया को मापने की कामना करते थे - और इसे बदलते थे।
यह अनिवार्य रूप से राजनीतिक था कि वे धार्मिक सिस्टम को खारिज करने की कोशिश कर रहे थे। यह युवा बंगाल आंदोलन था।  वे अपने हिंदू धर्म से विमुखता में परम्पराभंजक ,  अंधविश्वासों,  शोषण और ज्यादतियों,जिसमें  इसके समर्थकों और उग्रपंथियों के  हित निहित थे और जो उस समय के प्रशासन में शक्तिशाली  थे । 
यंग बंगाल आंदोलन बंगाल पुनर्जागरण का एक उदार स्वरूप था, जो हमारे इतिहास की एक दिलचस्प अवधि और घटनाओं की एक आकर्षक कीमियागिरी थी। उस अवधि ने  असंख्य असहज संस्कृतियों के बीच एक संवाद स्थापित किया। वर्तमान में भी यह  जारी है। यहां दो संस्कृतियां अनजाने में  सह-अस्तित्व में हैं । -
हमारे पास हमारे शब्दकोश में  'छद्म-धर्मनिरपेक्ष', मातृभाषा, 'नारंगी ब्रिगेड' जैसे नए शब्द हैं। 200 साल पहले राधकांता देब  (एक प्रतिक्रियावादी रूढ़िवादी और  परोपकारी) और राजा राममोहन राय के बीच   आतंकवादी हिंदुत्व के समर्थकों और एक धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण के  लोगों के बीच  की तीखी बहस और असुविधाजनक बहस अब नए स्वरूप में जारी है।
बंगालियों द्वारा देवताओं और देवियों के प्रति आचरण  परिचित चुटकुलों के साथ किया जाता है, जो देश के बाकी हिस्सों के विपरीत  है ।  चाहे वह राजशेखहर बासु या सुकुमार राय, सत्यजीत रे के पिता (जो परशुराम की कलम नाम से लिखते थे),  सब देवताओं के  मंदिर  व्यंग्य के  स्रोत रहै हैं। सत्यजीत रे ने परशुराम द्वारा रचित बिरंचिबाबा के आधार पर महापुरुष नामक एक लघु फिल्म बनाई थी , जो  देवताओं पर एक क्लासिक व्यंग्य है।
हमारे वर्तमान देवताओं के अनुयायियों की विशाल संख्या - जो हमारे राजनीतिक नेताओं के झंडे के नीचे संरक्षण पाते हैं - इन कथाओं पर प्रतिक्रिया करते हैं?
बंगाल के पटचित्रकार (स्क्रॉल पेंटर्स) और बाउल्स हिंदू धर्म और इस्लाम दोनों की उपच्छाया  में मौजूद हैं। उनकी आध्यात्मिकता और रहस्यवाद पारंपरिक मानदंडों से बंधे नहीं हैं जैसा कि बाकी भारत द्वारा समझा जाता है। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि बंगाल की विश्वव्यापी परंपरा पर इन समुदायों के प्रति कृतज्ञता का कर्ज  है।
1828 में राजा राम मोहन रॉय और देबेंद्रनाथ टैगोर द्वारा स्थापित ब्रम्हो समाज उस समय के मौजूदा ब्राह्मणवाद (विशेष रूप से कुलिन प्रथाओं) के सुधार के लिए स्थापित किया गया था और उसने 19वीं शताब्दी के बंगाल पुनर्जागरण को शक्ति प्रदान की, धार्मिक, सामाजिक और हिंदू समुदाय की शैक्षणिक प्रगति प्रदान की।  वास्तव में, यह उल्लेखनीय है  'ज्ञान' की जड़ें कृष्णगर, नादिया जिले के राजा कृष्णचंद्र रॉय के दारबार में भी थीं।
बौद्धिक बीजेपी हलकों में  जादवपुर विश्वविद्यालय को पूरब का जेएनयू माना जाता है - वामपंथी  और विरोधी प्रतिष्ठान  का गढ़। मई 2016 में, राज्य भाजपा अध्यक्ष दिलीप घोष ने जादवपुर विश्वविद्यालय को ' समाजविरोधियों का केंद्र' कहा था।
औसत बंगाली सर्वभोजी है । उसे 'शाकाहारी हिंदुओं' बनाम 'मांसाहारी मुसलमानों' की विभाजक खाद्य राजनीति से प्रभावित होने की संभावना नहीं है, जिसे देश के बाकी हिस्सों में आरएसएस - बीजेपी   द्वारा बढ़ावा दिया जा रहा है। दुर्गा पूजा वर्षों से एक सांस्कृतिक स्वरूप ग्रहण कर चुकी  है और इसे एक तरह से राज्य में हर एक समुदाय को गले लगाने के लिए विकसित किया है। यह गीत, नृत्य और सांस्कृतिक कार्यक्रमों के माध्यम से बंगाली समाज के समृद्ध संस्कृति के माध्यम से मनाने का अवसर है - साथ ही विशेष रूप से मांसाहारी प्रकार के भोजन पर भरोसा करने का अवसर भी है। लेकिन इन दिनों  बंगाल घेराबंदी में है।
बीजेपी उम्मीद करती है कि उपनगरीय स्तर पर, कैलाश विजयवर्गीय जैसे नेताओं द्वारा शांति को प्रभावित किया जा सकता है। जिन्हें बात करने के लिए राम, अमित शाह की रथ यात्रा और 'भद्रलोक' स्तर पर नेताजी की अपील, जो अब भी कारगर है और रोमांटिक बंगाली कल्पना में एक बारहमासी आकर्षण है। 
ममता बनर्जी पर आरोप है कि उन्होंने मुस्लिम बांग्लादेशी घुसपैठियों को वैध बना कर  बंगाल को 'मिनी-पाकिस्तान' में बदल दिया है और उनपर मुसलमानों का पक्ष लेने का भी आरोप है। 
2014 से बीजेपी हर चाल को आजमा रही है। फिलहाल,  ममता बनर्जी अभी भी भगवा ज्वार के खिलाफ दृढ़ और चट्टानी चट्टान की तरह अड़ी हैं।
लेकिन यह वक़्त बंगालियों के लचीलापन और उनकी बहुलवादी संस्कृति की अग्नि परीक्षा का समय कहा जायेगा।   गहरे सम्मान के साथ  धारण किए गए आइकन के संदेशों को बंगाली समुदाय ने कितना आत्मसात किया है, पुनर्जागरण से उनकी आत्माओं में कितना गहराई मिली है, और कितनी देर तक वे पकड़ने में सक्षम रहेंगे इसकी भी परीक्षा है।


2019 में शायद ही काम आए मोदी का इंद्रजाल

2019 में शायद ही काम आए मोदी का इंद्रजाल

तलवारें खिंच चुकी हैं और बारूद फटने को तैयार है। गांधी परिवार  के  अपने शहर प्रयागराज में 16 दिसंबर को नरेंद्र मोदी का भाषण जमा नहीं और लोगों की जो प्रतिक्रिया थी वह कुछ ऐसी थी कि " मोदी जी अब बहुत हो चुका।" उधर, हिंदी भाषी प्रदेशों के तीन राज्यों में विजय के बाद कांग्रेस विशेषकर राहुल गांधी ने राफेल पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के हर कोण पर हमला शुरू कर कर दिया है। वह इतना तो जानते हैं कि  सुप्रीम कोर्ट का फैसला इस मामले से लोगों का ध्यान नहीं हटा सकेगा। कांग्रेस के रणनीतिकार यह मानते हैं कि राफेल नरेंद्र मोदी की छवि को मलिन कर सकता है इसलिए वे इसे छोड़ेंगे नहीं। दूसरी तरफ अपनी रक्षा में नया तर्क पेश करने के उद्देश्य से  मोदी ने कांग्रेस पर दो तरह का हमला करने का फैसला किया । पहला उस दिन विजय दिवस पर उन्होंने कांग्रेस पर यह कह कर हमला किया कि उसने देश की सुरक्षा से समझौता किया। मोदी जी ने रक्षा की सामग्री खरीदने में विलंब का मसला उठाया। कारगिल युद्ध के दौरान बुलेट प्रूफ जैकेट का अभाव केवल इसलिए था कि 2009 तक कांग्रेस ने उसकी खरीद के लिए कोई आर्डर नहीं दिया था और इस कमी को पूरा करने के लिए एनडीए सरकार  ने 2016 में 50 हजार जैकेट्स खरीदने का ऑर्डर दिया और अब मेक इन इंडिया के तहत स्थानीय उत्पादकों से जैकेट खरीदे जा रहे हैं । मोदी जी ने जीप कांडसे  लेकर बोफोर्स और अगस्ता हेलीकॉप्टर्स तक के कांग्रेसी जमाने के रक्षा सौदे घोटालों की चर्चा की। इलाहाबाद का उदाहरण देते हुए मोदी जी ने कांग्रेस पर निशाना साधा कि इसने न्यायपालिका पर हमले किए हैं । यद्यपि वे कुंभ मेला से जुड़े एक समारोह में शामिल होने के इलाहाबाद आए थे लेकिन उन्होंने बड़ी चालाकी से इस बात को जोड़ दिया कि देश का सबसे पुराना हाई कोर्ट इलाहाबाद में होने के कारण यह बहुत ही महत्वपूर्ण न्यायिक केंद्र है। मोदी जी ने न्यायिक प्रणाली पर कांग्रेस के हमलों के रिकॉर्ड को सामने रखकर कांग्रेस की तीव्र आलोचना की । इसमें आपातकाल, केशवानंद भारती मामला और इंदिरा गांधी द्वारा जजों की प्रोन्नति रोके जाने का मामला भी शामिल था।  उन्होंने लोगों को सावधान किया कि कांग्रेस लोकतंत्र का गला घोटने के लिए न्यायपालिका का उपयोग कर रही है और सरकार को फंसा रही है । एक तरह  से भाजपा ने कांग्रेस के आरोप को उसी के सिर पर थोप दिया। 
         अब यह तो वक्त बताएगा की नरेंद्र मोदी बात बना कर हवा का रुख बदल पाते हैं या नहीं । लेकिन विधानसभा चुनाव के बाद मोदी जी ने यह मान लिया है कि वह बात को ज्यादा तूल देकर सफल नहीं बना सकते हैं । भाजपा को भी  मानना पड़ेगा की उसकी बात का असर कम हो रहा है और कांग्रेस को शाबाशी देनी होगी कि उसके रणनीतिकारों ने भाजपा को उसी के मैदान में धूल चटा दिया। लेकिन अभी खेल बाकी है और मोदी जी की ईमानदार नेता वाली छवि कायम है, चाहे राहुल जितना चिल्ला लें कि " चौकीदार चोर है।" इसी तरह मोदी जी को भी कांग्रेस के भ्रष्टाचार के इतिहास पर ही नहीं निर्भर रहना चाहिए । क्योंकि अगर जनता ने यह मान लिया होता कि कांग्रेस का शासन भ्रष्ट रहा है तो उसने उसे वोट नहीं दिया होता। मोदी और अमित शाह के समक्ष फिलहाल यह चुनौती है कि वह 2019 में जनता के समक्ष एक विश्वसनीय तथ्य रखें कि सरकार ने अपने वायदों को कहां तक पूरा किया। अच्छे दिन का प्रमाण अनुभूत होना चाहिए नाकी विभिन्न सरकारी विज्ञापनों के माध्यम से इसका ढिंढोरा पीटा जाना चाहिए और बताने की कोशिश की जानी चाहिए कि अच्छे दिन आ गए हैं।
          भाजपा के जो कट्टर भक्त है उनके अलावा जितने भी लोग हैं वह इतने भोले भाले नहीं हैं कि मोदी जी के भयंकर प्रचार से प्रभावित हो जाएं, इसलिए यह जरूरी है कि मोदी जी और अमित शाह की जोड़ी इस बात की समीक्षा करे कि उसने गलती कहां की। पहली बात कि मोदी जी और अमित शाह दोनों यह बात अच्छी तरह जानते हैं कि लोग विकास पर बात करते हैं। वह यह नहीं देखना चाहते हैं इसके भीतर क्या है । वह इस बात से कभी भी मुतमइन नहीं होंगे कि जो ढांचे हैं उन्हें  पूरा होने में वक्त लगता है ।मोदी जी की सरकार अपने शासनकाल के पहले 2 वर्ष में परियोजनाओं के ढांचे को गतिमान नहीं कर सकी । अब यह बताना व्यर्थ है कि कितने किलोमीटर लंबी सड़क बन चुकी है। लोग तो यह जानना चाहेंगे कि उनके जीवन में क्या बदलाव आया है। उज्जवला और मुद्रा ऋण उन्हीं को प्रभावित करेगा जो इससे सीधे लाभ पा रहे हैं। किसी भी तरह से शहरी लोग इससे अलग हैं। उन्हें तो गैस के सिलेंडर की बढ़ी हुई कीमत ही परेशान कर रही है। एक योजना थी जो लोगों को मोदी जी के पक्ष में प्रभावित करती है वह थी प्रधानमंत्री आवास योजना। लेकिन इससे लाभ बहुत कम लोगों को हुआ और  जिन लोगों को हुआ वही फकत मोदी जी के पक्ष में बात कर रहे हैं । यहीं नहीं भाजपा शासन के कुछ राज्यों में तो लोग केंद्र सरकार की योजनाओं को जानते ही नहीं है क्योंकि राज्य सरकारों ने उस पर अपना लेबल चिपका दिया है।
          यही नहीं अगर महागठबंधन बन जाता है तो जातिगत समीकरण भाजपा के खिलाफ होंगे और अमित शाह की शह मात की कारीगरी बहुत कारगर नहीं होगी। यह सोचना कि फिर राम मंदिर विपक्ष को उड़ा देगा, एक ख्वाब है । कोई भी जोश - जुमला तब तक कारगर नहीं हो सकता जब तक लोगों को यह यकीन ना आए कि मोदी जी ने पिछले 5 वर्षों में कुछ गुणात्मक परिवर्तन किया है। यह सोचना भी अवास्तविक है कि मोदी कोई दूसरा चमत्कार करेंगे। भाजपा शासित सभी राज्यों को अगले चुनाव में किसी भी घटना से बचने के लिए तैयार रहना होगा तभी मोदी जी कुछ प्रभावशाली हो सकेंगे।

Thursday, December 20, 2018

कांग्रेस के लिए चुनौतियां, भाजपा के लिए सबक

कांग्रेस के लिए चुनौतियां, भाजपा के लिए सबक

हाल ही में हुए पांच राज्य विधानसभा चुनावों में, कांग्रेस ने दो राज्य खो दिए और तीन जीते । हिंदी पट्टी के  राज्यों में आने वाले राज्यों में उसे  जीत मिली, जबकि पार्टी मिजोरम में हार गई और तेलंगाना में अच्छा प्रदर्शन नहीं कर सकी। दूसरी तरफ, बीजेपी ने तीन महत्वपूर्ण हिंदी भाषी राज्यों में सत्ता खो दी । दूसरी तरफ यह तेलंगाना या मिजोरम में बड़ी संख्या में सीटों को पाने में भी नाकाम रही।अब यहां प्रश्न है कि लोकसभा  चुनाव के संदर्भ में दोनों के लिए इन चुनावों के  क्या अर्थ हैं? देश की लोकतांत्रिक राजनीति पर उनके राजनीतिक प्रभाव क्या हैं?कांग्रेस के लिए, ये जीत पार्टी में नए जीवन का संचार है ।यह विजय पार्टी के आम  कैडर में  आवश्यक आत्मविश्वास पैदा करेगी , जिससे उन्हें 201 9 के चुनावों की तैयारी में मदद मिलेगी।
यह जीत 201 9 के कांग्रेस अभियान के लिए सुर  भी तय करेगी। हिंदी बेल्ट में कांग्रेस के पक्ष में लहर इस क्षेत्र के अन्य राज्यों को प्रभावित कर सकती है। यह लहर झारखंड, बिहार और शायद उत्तर प्रदेश में भी कांग्रेस के  पुनरुत्थान के लिए मतदाताओं, पार्टी कार्यकर्ताओं और अन्य राजनीतिक दलों को तैयार कर सकती है।इन नतीजों  के बाद पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी की स्थिति भी मजबूत होगी। वह अन्य विपक्षी नेताओं के लिए अधिक स्वीकार्य हो जाएंगे, जो अब तक महागठबंधन की अगुवाई में बहुत उत्सुक नहीं थे। अब, कांग्रेस के नेतृत्व वाले महागठबंधन की संभावना है जो 2019 में बीजेपी को प्रभावी ढंग से टक्कर दे सकती है। यह जीत कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में राहुल गांधी की स्थिति को भी मजबूत करेगी, जिससे उनके खिलाफ कोई कानाफुसी बन्द हो जाएगी।हालांकि, चुनाव के नतीजे  कांग्रेस के लिए कुछ चुनौतियां भी लाये हैं।कांग्रेस को लेकर जिस "महागठ बंधन" की बात चल रही है उस "महागठ बंधन" को चलाने  के लिए एक चाणक्य की आवश्यकता  है। कांग्रेस ने तीन राज्यों में सरकार बना ली है लेकिन इन राज्यों में बीजेपी की उपस्थिति निष्क्रिय नहीं है।
सभी तीन राज्यों में पार्टी ने एक जनवादी घोषणापत्र प्रस्तुत किया था। अब वादों को पूरा करने का कार्य है। यदि यह 2019 के चुनाव से पहले वादे पूरे करने की दिशा में बढ़ती दिखती  है तो पार्टी की विश्वसनीयता बढ़  जाएगी। लेकिन अगर ऐसा नहीं होता  है तो लोकसभा चुनावों में  कांग्रेस की संभावनाएं बिगड़ सकती हैं।
इन तीनों राज्यों में बताया जाता है कि   खजाना खाली है और यह स्थिति  इन वादों को पूरा करने में समस्याएं पैदा करेगी। साथ ही, आम चुनावों के लिए आचार  संहिता लागू होने  में केवल चार महीने शेष हैं, इसलिए कांग्रेस को वास्तव में समय के साथ चलना नहीं दौड़ना होगा।
राफेल पर 14 दिसंबर को सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद बीजेपी उत्साहित थी।
लेकिन राहुल की प्रतिक्रिया अपरिपक्व थी।
सौभाग्य से, राफेल  पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले चुनाव के बाद आए। राहुल ने अविश्वास प्रस्ताव  में राफेल को लेकर  भाजपा पर हमला किया और इसे एक महत्वपूर्ण चुनाव मुद्दा बना दिया।
उधर ,नरेंद्र मोदी-अमित शाह के असंगत नेतृत्व के खिलाफ पार्टी में  अफवाहें जोर पकड़ सकती हैं।यह स्थितियां कार्यकर्ताओं के आत्मविश्वास को भी प्रभावित करेंगी । ये कार्यकर्ता अब तक बीजेपी की 'अजेयता' की मिथक को लेकर खुशफहमी में थे। अब पार्टी कार्यकर्ताओं और मतदाताओं को यह लगने लगेगा  कि पार्टी को हराना असंभव नहीं है। इस मनोस्थिति से भविष्य में भाजपा विरोधी आंदोलन में मदद मिलेगी।अतः बीजेपी के पास इन परिणामों से सीखने के लिए कुछ सबक भी हैं।
इसे चुनाव  अभियान की रणनीतियों के बारे में पुनर्विचार और आत्मनिरीक्षण की आवश्यकता है ।  शायद उन्हें संशोधित करने की भी । पार्टी के नेताओं ने  जिस तरह से  कांग्रेस के खिलाफ व्यूह बनाया था अब उनके  विश्लेषण और भविष्य के चुनावों के लिए फिर से तैयार किया जाना चाहिए। विकास नीतियों और उनके कार्यान्वयन की दिशा को गंभीरता से दुबारा मूल्यांकन करने की आवश्यकता है। नीतियों और लोगों के बीच असंयोजन की पड़ताल  की जानी चाहिए  और यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि  सरकारी योजनाओं का  प्रभाव अंतिम कतार  के लाभार्थियों तक पहुंच जाएं। यही नहीं ये परिणाम एनडीए के भीतर के बंधन  को भी कमजोर कर सकते हैं। कई छोटी पार्टियां गठबंधन छोड़ सकती हैं और अन्य शिविरों में शामिल हो सकती हैं। जो लोग रह जाएंगे उन्हें   सीटों के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़  सकती है। कहा जा सकता है कि इन  पांच चुनावों के परिणाम हमारी लोकतांत्रिक राजनीति के भविष्य में उल्लेखनीय परिवर्तन लाने जा रहे हैं। 



Wednesday, December 19, 2018

सज्जन कुमार का फैसला

सज्जन कुमार का फैसला

इंदिरा गांधी की हत्या के बाद दिल्ली में भड़के सिख दंगे में सज्जन कुमार की भूमिका के मामले में कोर्ट ने सज्जन कुमार को आजीवन कारावास की सजा सुनाई है। सिख दंगे के 34 वर्षों के बाद यह फैसला आया है। फिर भी, इसका स्वागत है । क्योंकि इससे संकेत मिलते हैं कि न्याय में भले देर हो लेकिन न्याय होता है। भाजपा ,वामपंथी दल और आम आदमी पार्टी ने इस फैसले का स्वागत किया है जबकि दूसरी तरफ कांग्रेस ने कहा है कि इसका राजनीतिक लाभ नहीं उठाया जाना चाहिए। कांग्रेस  प्रवक्ता ने इस संदर्भ में 2002 के गुजरात दंगे का हवाला दिया। भाजपा नेता अरुण जेटली ने कहा कि "यह निर्णय न्याय के विलंबित होने का प्रमाण है। " उन्होंने ट्वीट किया कि "चौरासी के दंगों में जिन लोगों को हानि हुई थी उनके प्रति न्याय को कांग्रेस ने दफन कर दिया । एन डी ए ने जवाबदेही और श्रेष्ठता को बनाए रखा है। कांग्रेस और गांधी परिवार 1984 के दंगे के पाप को भुगतते रहेंगे। " भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह ने कहा कि दंगे में कांग्रेस की भूमिका पर किसी को भी संदेह नहीं रह गया। कांग्रेस के नेता और कार्यकर्ता भड़काऊ नारे लगाते हुए तोड़फोड़ करते रहे ,महिलाओं के साथ कुकर्म करते रहे और लोगों को मौत के घाट उतारते रहे लेकिन इस मामले में किसी को सजा नहीं हो सकी। जबकि कई आयोग बिठाए गए और कई प्रत्यक्षदर्शी भी थे । अमित शाह ने कोर्ट के फैसले का स्वागत करते हुए प्रधानमंत्री को धन्यवाद दिया । उन्होंने 2015 में एक विशेष जांच दल का गठन किया, जिसने 1984 के दंगों की जांच की । खुशी मनाने के इस क्रम में अरुण जेटली और अमित शाह दोनों  न्याय के सही अर्थ का अध्ययन करने से चूक गए । दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले के पृष्ठ 192 और 193 में कहा गया है कि भारत के बटवारे के समय जो दंगे हुए वह देश में एक सामूहिक यादगार बन कर रह गये। वही हाल 84 के सिख दंगों का है। अदालत ने कहा कि मुंबई में 1993 में ,गुजरात में  2002 में ,कंधमाल, उड़ीसा में 2008 में, मुजफ्फरनगर में 2013 में या कुछ इसी तरह के दंगों में सामूहिक हत्या के तरीके पुराने ही थे। वही पुराना तरीका  कि अल्पसंख्यकों को निशाना बनाया जाता है और जिस राजनीतिक संगठन का वर्चस्व होता है उनके लोग   हमले करते हैं तथा उन्हें कानून लागू करने वाली एजेंसियों से मदद मिलती है। जो अपराधी सामूहिक अपराध करते हैं उन्हें राजनीतिक तरफदारी हासिल है और वह पकड़े जाने या सजा पाने से बच निकलते हैं।
         इस फैसले में 2002 में गुजरात के दंगों सहित देश के सभी बड़े सांप्रदायिक दंगों का जिक्र है और इसमें कहा गया है कि सब जगह की तरह यहां भी  जिन्हें दंगे का निशाना बनाया गया वे अल्पसंख्यक समुदाय के थे और जिन्होंने हमले किए वे एक ऐसी राजनीतिक पार्टी से जुड़े थे जिसका देश में वर्चस्व था । हमलावर सजा पाने से बच गए, क्योंकि उन्हें राजनीतिक संरक्षण प्राप्त था।
        ऐसा 2002 में  भी हुआ। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री हुआ करते थे और अमित शाह पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक थे। इसमें जो सबसे ज्यादा दहलाने वाला है वह कि इस घटना के 9 महीनों के बाद अमित शाह राज्य के गृह मंत्री बना दिए गए और  इस कारण वे राज्य पुलिस के प्रभारी भी हो गए। अदालत की जिस न्याय पीठ ने यह फैसला सुनाया उस में न्यायमूर्ति एस मुरलीधर और न्यायमूर्ति विनोद गोयल शामिल थे ।  उन्होंने आपराधिक कानून में बदलाव की बात की। उन्होंने यह भी कहा कि इस कानून में भी बदलाव होना चाहिए जिसमें मानवता के खिलाफ कोई अपराध हो या सामूहिक हत्या हो। न्यायाधीशों ने कहा कि कानून में छोटे-छोटे पेंच होते हैं उससे सामूहिक हत्या के अपराधी बच निकलते हैं । यहां सवाल है कि वर्तमान राजनीतिक दल या सत्तारूढ़ दल जजों की इस बात को सुनेंगे और कानून को ऐसा बनाएंगे जो भविष्य के दंगों को भड़काने वालों को सजा दे सके। यदि ऐसा होता है तो वह राजनीतिक नेता को एक अभूतपूर्व साख वाला बना देगा। इसके लिए कोई तो ऐसा हो जिसमें मानवता के प्रति सहानुभूति और चेतना हो और वह भारत को इस भय से मुक्त करा दे। भारत ऐसे नेता की प्रतीक्षा कर रहा है जिसकी चेतना कभी भी समझौता ना करे।

Tuesday, December 18, 2018

यह नतीजे सबक भी हैं

यह नतीजे सबक भी हैं

लोकतंत्र में जनता की आवाज और उसके फैसले आखिरी हुआ करते हैं । पांच राज्यों में विधानसभाओं के चुनावों के नतीजे आ गए हैं और उससे एक सबक भी मिलता है । सबसे ज्यादा हिंदी भाषी क्षेत्रों की जनता का फैसला फिलहाल महत्वपूर्ण है।  इससे संपूर्ण हिंदी भाषी क्षेत्र के मूड और उसके बयान की झलक मिलती है। यह चुनाव एक तरह से मोदी और शाह की इंजीनियरिंग से तैयार चुनावी मशीन को पहला आघात है। बेशक पंजाब हाथ से निकल गया था और कर्नाटक में कांग्रेस कायम रहा इसके बावजूद इन तीनों राज्यों के चुनावों के नतीजे सत्तारूढ़ दल के लिए सबसे बड़े आघात के रूप में माने जा सकते हैं । ऐसा नहीं कि भाजपा की पराजय लोकप्रिय विचारों और मूड का प्रतिबिंब या उसकी विजय लोकप्रिय जनादेश को छुपाना है । सत्तारूढ़ दल इसलिए सत्ता में है क्योंकि उसे  जनादेश मिला और और उसके बाद से एनडीए को जहां भी विजय मिली इसलिए मिली क्यों है जनादेश प्राप्त हुआ ना कि इसलिए मिली ईवीएम मशीन में गड़बड़ी थी । लेकिन अक्सर ऐसा देखा गया है कि जब लोकतंत्र में कोई पार्टी या उसका गठबंधन कुछ समय तक लगातार विजयी होता रहता है तो उस पार्टी का गठबंधन को ऐसा लगता है उसमें और विपक्षी दलों में चूहे बिल्ली की दौड़ शुरू हो गई है। विपक्षी दल उसे पकड़ने की कोशिश कर रहा है। इस हल्ले गुल्ले में जन आकांक्षा नजरअंदाज होने लगती है । चुनाव के नतीजों के माध्यम से छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और तेलंगाना में मतदाताओं ने फिर बता दिया कि वह सबसे प्रमुख है।
             2014 के दौर ने देखा कि जनता ने भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए को सत्ता के सिंहासन पर आसीन करा दिया और उसके बाद से सत्तारूढ़ संगठन कई बार लगातार विजयी होता रहा। भारतीय सियासत में कांग्रेस ने अपना वर्चस्व खो दिया। उसके प्रति जनता की अवधारणा बदल गई । विजय के इसी उल्लास ने किसानों ,मध्यवर्गीय लोगों ,छोटे व्यापारियों और आम लोगों की आकांक्षा तथा उनकी आवाज दबने लगे राजनीतिज्ञों का ध्यान कहीं और चला गया । संभवतः  सत्तारूढ़ दल या संगठन का ध्यान देशभर में अपना राजनीतिक वर्चस्व कायम करने पर चला गया। लेकिन इस बार के विधानसभा चुनाव के नतीजे भाजपा को अपने लक्ष्य तय करने में मदद करेंगे।
          लोकतंत्र में मजबूत और बहुमत के शासन के खिलाफ कुछ भी नहीं है लेकिन जब विपक्ष को हाशिए पर पहुंचाने की प्रक्रिया शुरू होती है तो वायदे और कर्तव्य भी हाशिए पर चले जाते हैं। ऐसे में हालात  और खतरनाक हो जाते हैं जब विपक्ष को अस्तित्व का खतरा पैदा हो जाता है। इस स्थिति में एक तरफा प्रहार होता है। लोगों की मांगें और उनकी आवाज अपना महत्व खो देती हैं तथा जान बचाना ही प्रमुख हो जाता है। अरसे से ऐसा महसूस किया जा रहा था कि 2019 एक नए निष्कर्ष की ओर बढ़ रहा है।  विधानसभाओं के चुनाव के नतीजों ने इस अवधारणा को बदल डाला। किसानों का दुख और रोजगार का अभाव देशभर में गूंजने लगा। वंचित ,दलित और किसानों के प्रदर्शन देशभर में होने लगे। उधर सरकारी उच्च पदों और रिजर्व बैंक के गवर्नरों  के मामलात अलग थे।  भारतीय न्यायिक इतिहास में पहली बार सुप्रीम कोर्ट के जजों ने प्रेस से मुलाकात की। सीबीआई में अभूतपूर्व रस्साकशी देखी गई इसके बावजूद खास मसाइल पर अब तक सार्वजनिक बहस के प्रति अनमनापन दिख रहा है।
         लोकतंत्र में जनता की आवाज सत्तारूढ़ दल की आवाज होनी चाहिए और उनकी मांग पर सरकार के कर्तव्य निर्धारित होने चाहिए। राज्यों की विधानसभाओं की चुनावों के नतीजे दंड नहीं हैं। एक तरह से सत्ता को जनता की ओर से  लगाई गई आवाज है इसे कि आम चुनाव में क्या करना है। यह तय करने का संकेत है कि मतदाताओं ने रास्ता दिखा दिया है अब यह राजनीतिक दलों पर निर्भर करता है कि वह इसका अनुसरण करते हैं या नहीं। जो मसले आम आदमी से जुड़े हैं उस पर ध्यान देने के  संकेत दिए हैं। लोगों ने अपना एजेंडा बता दिया है। आखिरकार , यही तो हमारे लोकतंत्र का सौंदर्य है।

Monday, December 17, 2018

बदला - बदला सा माहौल लगता है

बदला - बदला सा माहौल लगता है

चुनाव के जो भी परिणाम निकलने वाले थे और उन परिणामों का जो भी आरंभिक प्रभाव होने वाला था वह सब हो चुका। सरकारें बन गई और नए समीकरण तय हो गये।  लेकिन यहां एक प्रश्न उठता है कि चुनाव जीतने के लिए क्या होना चाहिए? क्या सचमुच महंगाई कम या फिर महंगाई की दर 8% के आसपास हो और खाने-पीने की का सामान तेजी से  महँगा होता जाय। वह बहुत ज्यादा कीमती हो जाए। देश के हर समझदार लोगों ने हर चुनाव में देखा है कि महंगाई एक मसला होती है और उसी को लेकर हर राजनीतिक दल कुछ ना कुछ  करता है। लेकिन क्या महंगाई या फिर कहे कि बाजार की सस्ती चुनाव जीतने का फार्मूला है। संभवत नहीं ? क्योंकि इस बार पिछले हफ्ते जो परिणाम सामने आए हैं उससे तो कम से कम ऐसा नहीं लगता।
         महंगाई की जो कम दर इस बार थी वह मनमोहन सरकार के पहले कार्यकाल में भी नहीं थी । मनमोहन सरकार के पहले दौर  के आखिरी साल में महंगाई की दर 10% थी। लेकिन 2009 में जो चुनाव हुए उसमें यह 10% का रोड़ा नहीं अटका। लेकिन, इस बार राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में महंगाई की दर पहले से बहुत कम है अलबत्ता खाने पीने की चीजें कभी कभी महंगी हो जा रही हैं दालों का ही उदाहरण लें कुछ साल पहले दालों की जो कीमत थी उसकी तुलना में कीमत आज बहुत कम है ,लेकिन तब भी देखा जा रहा है कि ग्रामीण भारत वर्तमान सरकार से नाराज है या कहें कुपित है आखिर क्यों इसका उत्तर भी बहुत आसान है । एक बार कांग्रेस के वर्तमान अध्यक्ष राहुल गांधी ने किसी गरीब की झोपड़ी में खाना खा लिया था और वह खबर बन गई थी, कि कांग्रेसी नेता ने गरीब की झोपड़ी में खाना खाया । पर ,किसी ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया के यह नेता वैसे किसी दिन की कल्पना क्यों नहीं करते जब गरीब एक बड़े नेता की हैसियत का खाना खा ले । वह नहीं खा सकता क्योंकि उसकी आमदनी इतनी कम है कि वह खाने की बहुत जरूरी चीजें ही खरीद सकता है और उस पर अगर महंगाई बढ़ जाए तो यानी सबसे जरूरी है आमदनी का बढ़ना। जब तक आपकी आमदनी बढ़ती रहेगी तो महंगाई का असर पता नहीं चलेगा। जिस दिन आमदनी का बढ़ना रुक गया या आमदनी ही रुक गई तो महंगाई का असर दिखने लगता है आज हालात यह है कि गांव की आमदनी या तो रुक गई है या जितनी पहले थी उतनी पर जमी हुई है। इसलिए कम कीमतों के बावजूद गांव के लोग हताश निराश हैं। लिहाजा क्रोध बढ़ता जा रहा है ।  आंकड़े बताते हैं कि खाने पीने की वस्तुओं की औसत सालाना वृद्धि का सूचकांक 2 . 75% था । जबकि कृषि आय मैं वृद्धि 0. 76 प्रतिशत रहा जबकि इसकी तुलना में यूपीए सरकार में 5 साल के दौर में थोक मूल्य सूचकांक 12.26% और कृषि आय में वृद्धि 11.04% पर पहुंच गई थी। इस आंकड़े से पता चलता है कि 2014 -15 में या उसके बाद कृषि और गैर कृषि व्यवसाय ओं में ग्रामीण वेतन वृद्धि कम है ।सामान्य तौर पर करीब 5.2% जबकि इसमें वृद्धि ज्यादा हुआ करती थी हालांकि ग्रामीण उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में 4.9% की वृद्धि रही है। निश्चय ही यह थोड़ा ज्यादा है लेकिन इसी से इन्हीं आंकड़ों से पता चलता है कि ग्रामीण वेतन में स्थिरता आ गई है जो किसान या व्यक्ति 4 साल पहले जितना कमाता था आज भी वही कमा रहा है। वेतन का बढ़ना रुक गया है या नहीं ग्रामीण आए घट गई है ।2014 फिर लोकसभा चुनाव की तुलना में यह गिरावट बहुत ज्यादा हो जाती है। गुजरात विधानसभा चुनाव में जो ट्रेंड  देखी थी वह यहां भी जारी है यहां उत्तर भी इन्हीं प्रश्नों में जुड़ा है आज ग्रामीण भारत में भाजपा फकत 43% जीत  सकी है यहां एक निष्कर्ष प्राप्त होता है लेकिन एक सवाल भी उठता है कि अगर गांव में ही गुस्सा कायम रहा तो भाजपा की स्थिति क्या होगी? हाल के इतिहास की बात देखें यानी 2014 के चुनाव के नतीजे तो पता चलेगा कि भाजपा ने ग्रामीण भारत की अधिकांश सीटें जीत ली थी। उसे ग्रामीण भारत मैं 178 पर जीत हासिल हुई थी लेकिन 2018 के चुनाव मैं लक्षण बदला हुआ था ।2019 में अगर भाजपा और कांग्रेस बराबरी पर आ जाएं तो खेल के नतीजे बदल सकते हैं। वैसे हर चुनाव अलग -अलग होते हैं और उन पर विभिन्न तरह के भावुक दबाव काम करते हैं अब अगर विधानसभा वाला ही ट्रेंड रहा तो सत्ताधारी दल के लिए या बहुत सकारात्मक नहीं है। वह हार भी सकती है बशर्ते चुनाव के दौरान कोई नाटकीय परिवर्तन ना आ जाए।
         

Sunday, December 16, 2018

हमारे लोकतंत्र में यह क्या हो रहा है

हमारे लोकतंत्र में यह क्या हो रहा है

कल नुमाइश में मिला कि थोड़े पहने हुए
मैंने पूछा नाम तो बोला कि हिंदुस्तान है

जॉन स्टूअर्ट मिल ने अपनी विख्यात पुस्तक "कंसीडरेशन ऑन रिप्रेजेंटेटिव गवर्नमेंट" में लिखा है कि लोकतंत्र सर्वश्रेष्ठ सरकार नहीं है बशर्ते यह आश्वस्त करे कि बहुमत किसी को भी इतना छोटा नहीं कर सकता कि वह नगण्य हो जाए। इस पुस्तक में इस तर्क का खंडन किया गया है की लोकतंत्र में बहुमत वाली सरकार के पास कुछ विशिष्ट अधिकार होते हैं, जिससे वह  राष्ट्र पर अपनी इच्छाएं थोप सकती है । लोकतंत्र में बहुमत का शासन मौलिक अधिकारों के आगे मात खा जाता है। इसमें सबसे बड़ी बात यह है कि मौलिक अधिकार किसी भी   धर्म जाति वर्ग या लिंग के लिए नहीं होते। इस से कोई असर नहीं पड़ता कि हम किस समुदाय के हैं या कौन सा धर्म मानते हैं या कौन सी भाषा बोलते हैं। देश का हर नागरिक राजनीतिक व्यवस्था में बराबर का हिस्सेदार होता है। संविधान के निर्माताओं ने लोकतंत्र में इस बात के प्रति प्रतिबद्धता जाहिर की है । संविधान में इस मामले में संशोधन के लिए कई बार प्रयास किए गए लेकिन हर बार वे प्रयास नाकाम हो गये। आज हमारे देश में धर्म किसी के व्यक्तिगत आस्था का  मामला नहीं रह गया है बल्कि वह राजनीति के तौर तरीकों में  बदल गया है और  शासन के दावे का तंत्र बन गया है। हालांकि शुरू से ही कुछ बड़े नेता अल्पसंख्यकों को आश्वस्त करते आए हैं कि उनके साथ भेदभाव नहीं बरता जाएगा। ऐसा कभी नहीं होगा। लेकिन दक्षिणपंथी समुदाय या राजनीतिक दल बार बार कहते हैं कि धार्मिक बहुसंख्यक समुदाय को भारत पर शासन का स्वाभाविक अधिकार है। इस बात ने सामूहिक राजनीतिक परिकल्पना के किनारे एक गंभीर अंधेरा खड़ा कर दिया है। शुरू से ही इस विचार को हवा दी जा रही है। सुप्रीम कोर्ट ने बारंबार कहा है कि समानता संविधान का अनिवार्य आधार है। समानता मूल सिद्धांत है। इसमें किसी भी नागरिक के  धर्म को नहीं देखा जाता। भारत में संवैधानिक रूप से किसी भी धर्म में भेदभाव की इजाजत नहीं है ,लेकिन आज आमला पूरी तरह उल्टा हो गया है ।सुप्रीम कोर्ट की व्यवस्था को खुल्लम खुल्ला अमान्य कर दिया जा रहा है।
आज सड़कों पर लिखे हैं सैंकड़ों नारे न देख
घर अंधेरा है देख तू आकाश के तारे ना देख
भाजपा या जो भी बहुमत वाला शासक दल है वह अपने सिद्धांत और वैचारिक बातों का ढोल पीटता है। हिंदुत्व ब्रिगेड के कैडर्स लोगों को डराने धमकाने में लगे हैं। हमारे लोकतंत्र की नीव हिल रही है । सबरीमाला और अयोध्या मामले में दक्षिणपंथी नेताओं के बयान पर गौर करें । लोगों में उन्माद और भावात्मक आवेग पैदा करने के लिए ऐसे भाषण दिए गए जो अविश्वसनीय हैं। आम चुनाव जल्दी होने वाला है और इससे ऐसा लगता है कि आगे चुनाव अभियान में धर्म को वरीयता दी जाएगी। प्रधानमंत्री , जिनसे उम्मीद की जाती है कि वह देश के सभी नागरिकों के लिए सोचें , उनके हितों के लिए काम करें वह चुप हैं। ऐसी बात नहीं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पास बोलने के लिए कुछ नहीं है, लेकिन वह उन शब्दों की तलाश नहीं कर पा रहे हैं जिससे इन कृत्यों की निंदा की जा सके।
अब नई तहजीब के पेशे नजर हम
आदमी को भूल कर खाने लगे हैं
       आज का भारत एक महत्वपूर्ण मोड़ पर खड़ा है। एक तरफ सत्तारूढ़ दल ने देश में नोट बंदी और जीएसटी के बाद उत्पन्न दुरावस्था को देखा है, विश्वविद्यालयों में  लोगों को तंग किया जा रहा है, संस्थाओं को बदरंग किया जा रहा है ,मौलिक अधिकारों का उल्लंघन किया जा रहा है, पब्लिक लिंचिंग को मंजूरी मिल रही है और अब एक पुलिसकर्मी की हत्या पर व्यवस्था चुप है। यह सब क्या हो रहा है । अच्छे दिन की बात खत्म हो चुकी है। आर्थिक विकास ,रोजगार, कृषि विकास ,बैंकों में रुपए और सुशासन की बात ताक पर रख दी गई है। आज ऐसा लग रहा है कि धर्म राजनीति का सबसे बड़ा आधार है। दूसरी तरफ कांग्रेस चुप खड़ी है। यह महात्मा गांधी की विरासत है, नेहरू की विरासत है ,लोगों को यह उम्मीद है कि वह संवैधानिक लोकतंत्र पर कायम होगी। लोगों के दिल में यह कहकर जगह बनाएगी कि संघ के संविधान में लोकतंत्र के जो सिद्धांत हैं उनकी  वह पुनर्स्थापना करेगी। इसे  दूसरे स्वतंत्रता आंदोलन का आह्वान करना चाहिए । लेकिन कांग्रेस ने भाजपा के रास्ते पर ही चलना शुरू किया है। इसके नेता तिलक लगा रहे हैं ,मंदिर जा रहे हैं ,गोत्र बताते फिर रहे हैं। कांग्रेस के पास कोई पृथक सिद्धांत नहीं है। वैचारिक रूप से उसकी झोली खाली है। वह नेहरू के उदाहरणों को भूल गई है। बंटवारे के वक्त जो दंगे हो रहे थे नेहरू वहां मौजूद थे । वह पंजाब और दिल्ली में दंगों के दौरान लोगों को यह समझा रहे थे कि वे हिंसा से बाज आएं। वह मुसलमानों को सुरक्षा का वादा कर रहे थे और भारतीयों को एक दूसरे से बचा रहे थे। आज उसी  पार्टी को भारतीयों के अधिकारों के रक्षक के रूप में खड़े होने में शर्म आ रही है।
वे सहारे भी नहीं अब जंग लड़नी है तुझे
कट चुके जो हाथ उन हाथों में तलवारें ना देख
        क्षेत्रीय दलों को देश के लिए सही राजनीतिक संगठन माना जा रहा है। जबकि अधिकांश क्षेत्रीय नेता या उनके वारिस अपने राज्यों को अपने राज की तरह मानते हैं। राजनीतिक रचनात्मकता समाप्त हो चुकी है। नई राह की तलाश बंद हो चुकी है और यह विश्वास कि लोकतंत्र प्रतिनिधि मूलक हो, किसी का अधिकार छीना ना जा सके ,वह समाप्त हो रहा है। आज हमारे देशवासी चुनावी भाषणों से भावनात्मक रूप में सम्मोहित किए जा रहे हैं ,लेकिन उसमें  गरीब किसानों असुरक्षित मजदूरों और लगातार अप्रासंगिक हो रहे अल्पसंख्यकों तथा दलितों की पीड़ा  नहीं देखी जा रही है ।
अब किसी को भी नजर नहीं आती कोई दरार
घर की हर दीवार पर चिपके हैं इतने इश्तहार
चुनाव लोगों को राजनीतिक अजंडे पर विचार विमर्श का मौका भी देता है और स्वतंत्र चयन का अधिकार भी। आने वाले चुनाव की सबसे बड़ी बात है कि इसमें चयन की स्वतंत्रता के प्रति निराशा दिख रही है।
यहां तो सिर्फ गूंगे और बहरे लोग बसते हैं
खुदा जाने यहां  किस तरह जलसा हुआ होगा