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Tuesday, June 5, 2018

2019 का दंगल

2019 का दंगल
अपनी पराजय की भविष्यवाणी करना सबसे कठिन काम है और बड़े राजनीतिज्ञों के लिए तो और भी कठिन ,क्योंकि जितना बड़ा नेता होता है उसके आसपास उतने ही ज्यादा मुसाहिब होते हैं जो सदा उसकी हां में हां मिलाते हैं । अब बाहर की आवाज वहां तक पहुंचती नहीं है अतः उसे पता नहीं चलता कि उसके प्रति आम जनता की प्रतिक्रिया क्या है। 1977 की इमरजेंसी बहुतों को याद होगी। इंदिरा जी को उनके मुसाहिबों  ने बताया कि ट्रेनों के समय पर चलने और चारों तरफ अनुशासन के कारण माहौल खुशनुमा है और इसमें उनकी जीत होगी। नतीजा यह हुआ कि इंदिरा जी ने इमरजेंसी खत्म करने और चुनाव कराने की घोषणा कर दी। उन्हें 71 की लड़ाई के बाद यह  आत्मविश्वास था कि देश में उनका विकल्प है ही नहीं।  विकल्पहीनता के इसी आत्मविश्वास के कारण उन्होंने चुनाव की घोषणा कर दी।  वे यह नहीं देख सकीं कि नसबंदी कराने और स्लम्स को खत्म करने के उनके अभियान को लेकर ग्रामीण क्षेत्रों में और अर्ध शहरी क्षेत्रों में भारी गुस्सा है। परिणाम यह हुआ इस चुनाव में इंदिरा जी का सफाया हो गया। सिर्फ " इको चेंबर ( ऐसा कक्ष जिसमें केवल अपनी ही आवाज़ सुनाई पड़ती है।)" जैसी एक गलती के कारण पूरे देश से इंदिरा जी का सफाया हो गया । कांग्रेस डूब गई। यहां तक कि खुद इंदिरा जी भी हार गयीं और वह भी एक मामूली प्रतिद्वंदी से। संजय गांधी को अमेठी से हारना पड़ा ।  कहने का यह मतलब है कि जनता कल क्या फैसला करेगी यह जानना बड़ा कठिन है और इसका अंदाजा लगाना लगभग असंभव।
  बात केवल 1977 की नहीं है। 2004 में भी बाजपेई जी को भी यही भ्रम   था कि उनका विकल्प नहीं है  उन्होंने " इंडिया शाइनिंग " का नारा दिया । लेकिन वे भी भारत की गरीबी और  गरीबों के गुस्से का अंदाजा नहीं लगा पाए । परिणाम यह हुआ कि बाजपेई जी का सूरज दोपहर में ही डूब गया और भारत की कमान सोनिया गांधी के हाथों में आ गई। विकल्पहीनता का गुणक विकल्प में बदल गया। आज भी कुछ वैसा ही दिख रहा है। ताजा दौर के सबसे शक्तिशाली नेता यह नहीं देख पा रहे हैं कि आसमान में उड़ता हुआ धुआं कैसा है , क्यों है? इंदिरा जी और अटल जी का वक्त दूसरा था। यह समय दूसरा है। उस समय विकल्पहीनता ही एक बात थी। आज विकल्पहीनता के साथ-साथ वक्त से पहले जश्न और हर बात में भक्तों की जबरदस्ती की लोकप्रियता की सरकार है। अभी हाल में एक नया नारा आया है। "साफ नियत सही विकास।" इस अभियान को बहुतों ने टी वी पर देखा होगा। गांव के बेहतरीन चेहरे, खूबसूरत मुस्कान, बढ़िया पढ़ाई , गांव में बिजली ,बैंक खाते और रसोई गैस के सिलेंडर उपलब्ध कराने के लिए लोग मोदी जी को धन्यवाद दे रहे हैं। लेकिन ,सच तो  है कि यह अभियान वाजपेई जी के "शाइनिंग इंडिया" वाले वीडियो से अधिक हानिप्रद है। गांव की खस्ताहाल  खेती से घटती आमदनी और रोजगार के अभाव , बढ़ते अपराध ,जातीय हिंसा, बढ़ता सामाजिक दरार, कुपोषण के शिकार हो रहे बच्चे  और महिलाओं के घटते अनुपात की पृष्ठभूमि में "साफ नियत और सही विकास" का अभियान गरीबों का मजाक उड़ाता सा लग रहा है। यह तो अभी से स्पष्ट हो चला है कि देश का राजनीतिक संतुलन बदल रहा है। हालांकि अभी झटके नहीं महसूस हो रहे हैं लेकिन सनसनी तो महसूस हो रही है। मोदी जी के 48 महीने के कार्यकाल का पहला 36 महीना बिल्कुल गोल्डन था। हर जगह आश्चर्यजनक ऊर्जा से लबरेज नेता अपने बातूनी अंदाज में मौजूद दिखते थे और उसके बाद उत्तर प्रदेश की जबरदस्त की जबरदस्त विजय ने यह साफ कर दिया मोदी की बराबरी का कोई नहीं। इसके बाद के 6 महीने ऐसे थे जिसमे लोकप्रियता का बढ़ता ग्राफ कुछ ठहर गया और शंका के हल्के-फुल्के बादल दिखाई पड़ने लगे।  उसके बाद के 6 महीने में साफ साफ दिखने लगा की मोदी जी की लोकप्रियता का ग्राफ नीचे की तरफ गिर रहा है और जिन नेताओं का मजाक उड़ाया जाता था उनका ग्राफ ऊपर की ओर चढ़ रहा है।इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि2019 का दंगल दिलचस्प होगा।

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