हिंसा का बदलता स्वरूप
विगत दो तीन सालों हिंसा का स्वरूप बदलता जा रहा है ओर यह दबे हुये गुस्से की अभिव्यक्ति के तौर पर तीव्र विद्रोह का रूप ले रहा है और चिंता इस बात की है कि वर्तमान कानून ओर व्यवस्था इससे निपटने में सक्षम नहीं है। यह विद्रोह आंतरिक सुरक्षा को पुनर्परिभाषित करता है। फिलहाल तो ऐसा महसूस हो रहा है कि हिंसा के नये स्वरूप को समझने में कोई कानून सक्षम नहीं है। हिंसा का यह नवीन स्वरूप तमिलनाडु के टुथुकुड्डी से लेकर कानपुर के चमड़ा उद्योग ओर गोवा के लौह अयस्क के अवशिष्टों के पानी में बहने के नाम पर एक तरह से उद्योग बनाम पर्यावरण के रूप में उभर रहा है और इसमें जातिवाद का झगड़ा, हाल के दलित विद्रोह, किसानों का देश व्यापी आंदोलन, कम उम्र महिलाओं से बलात्कार, परम्परा बनाम आधुनिकता से जुड़े मामले ओर बाहरी लोगों का विरोदा जैसे कई मामले इससे जुड़ रहे हैं ओर इसे जटिल बनाते जा रहे हैं। टुथुकुड्डी की ही घटना के बारे में सोचें कि इसमें तीनबार फायरिंग हुई और दर्जन भहर से ऊपर लोग मारे गये। इस घटना के अध्ययन से कई सवाल उठ रहे हैं जिनका जवाब नहीं मिल रहा है। किसी ने भी यह बात नहीं उठायी कि फायरिंग कानून और व्यवस्था की स्थापित प्रक्रियाओं के तहत नहीं हुई। किसी ने यह नहीं कहा कि यहां खुफियागीरी विफल रही है और इस तरह के ऐसे मामले में पुलिस कार्रवाई अपरिहार्य थी। लेकिन यह बात नहीं उठी कि 99 दिनों तक धरने इत्यादि होते रहे ओर सौवें दिन कलक्टरी की ओर कूच के पहले किसी ने यह नहीं सोचा कि उन 99 दिनों में अमन की व्यवस्था की जा सकती थी। ऐसी स्थितियों में उन कारकों को खोजना जरूरी है जो हिंसा को हवा देते हैं। मसलन, 2012 के दिसम्बर में दिलली में हुआ निर्भया कांड। यह एक उबलते गुस्से का असमकालिक विस्फोट था।
यह दौर एक खास किस्म की सोच का दौर है जिसमें लोगो यह यकीन दिलाया जा रहा है कि पूरी व्यवस्था को अमीरों, शक्तिशाली लोगों तथा बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के लिये तोड़ा मरोड़ा जा रहा है। ऐससा केवल भारत में ही नहीं है। अमरीका में भी इसका असर दिख रहा है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियां वकीलों की फोज खड़ी कर देती है और फिर फैसला अटक जाता है या उसे आने में काफी वक्त लग जाता है। कारखाने बंद हो रहे हैं , हजारों लोग बेकार हो गये। अब डर है कि ये बेकार लोग हिंसा की नयी चिंगारी भड़का सकते हैं। जो टुथुकुड्डी में स्टरलाइट प्रोजेक्ट को लेकर हुआ वैसा देश के और कई भागों में हो रहा है , बेशक स्थान और स्थिति अलग- अलग है पर विरोध की आग एक ही है। ऐसी घटनाओं में यह देखा जा रहा है कि जो संस्थाएं स्थानीय लोगों के कल्याण के लिये हैं वही हिंसा शुरू करने में लगीं हैं और धीरे-धीरे इस हिंसक आंदोलन पर अतिदक्षिणपंथी और धुरवामपंथी तत्वों का कब्जा हो जाता है। नतीजा दूर- दूर तक अव्यवस्सथा के रूप में दिखता है। संभव है कि शुरूआती दौर में आंदोलन के शांतिपूर्ण स्वरूप से अधिकारी मुतमईन हो जाते हों कि सब कुछ ठीक है और नियंत्रण में है। वे कैंसर की तरह भीतर ही भीतर फैलते विद्रोहस को देख नहीं पाते। यहां तक कि पुलिस भी नहीं समझ पाती कि इस तरह के अथंदोलन में डिजीटल तरीके जुड़कर क्या कहर बरपा कर सकते हैं। दुर्भाग्य तो यह है कि अभी भी अधिकारी वर्तमान हिंसा को साधारण चश्मे से देखते हैं। लेकिन नहीं समझ पाते कि पुराने तरीकों से इस दौर के आंदोलनों से नहीं निपटा जा सकता है। इस गुणात्मक अंतर को प्रशासनिक और पुलिस व्यवस्था ठीक से समझ नहीं पायी है अतएव वह अपनी कार्यशैली तदनुरूप बलाव ला सके। जब भी ऐसी स्थितियां पैदा होती हैं तो खुफिया व्यवस्था को चुस्त करने की बात उठती है। लेकिन जब तक सड़क पर जमा लोगों के गुस्से और उनके द्वारा सूचना प्राविधिकी के उपयोग को समझ कर पुलिस व्यवस्था ओर घटना को तुरत समझने की मेधा का विकास नहीं होगा तब तक कुछ नहीं हो सकेगा। अब स्मार्ट तकनीक का विकास करना होगा फकत पुलिस को दोष देने से कुछ होने वाला नहीं है।
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