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Monday, June 18, 2018

गावों की खुशहाली के लिए शहरों का विकास जरूरी 

गावों की खुशहाली के लिए शहरों का विकास जरूरी 

एक तरफ सरकारी कर्मचारी और अफसर खरीफ की फसल का न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करने में जुटे हैं , दूसरी तरफ देश की ग्रामीण अर्थव्यवस्था एक खास किस्म के संकट से जूझ रही है। यह संकट कृषि संबंधित नहीं है। यह संकट तब तक दूर नहीं होगा जब तक शहरी औद्योगिक पुनरुत्थान नहीं  होगा । बेशक सरकार कृषि उत्पादों को ऊंचे दामों में खरीदती रहे । मौजूदा कृषि संकट एक खास किस्म की उलझन की तरह है। यह सही है कि हाल के कृषि के परिदृश्य बहुत ज्यादा दुखद नहीं है लेकिन ग्रामीण मजदूरी पिछले 6 महीनों में बुरी तरह कम हुई  है और उसकी दिशा नकारात्मक है । यह बहुत ही अशुभ लक्षण है।  भारतीय रिजर्व बैंक और सीएमआई के आंकड़े बताते हैं कि ग्रामीण मजदूरी 2017 के आरंभ में 7% बढ़कर चली गई थी जो पिछले 2 वर्षों में 4 से 5% के बीच चल रही थी।  अचानक यह महज 3% पर आकर रुक गई है। ग्रामीण मजदूरी में कमी गांव के जीवन स्तर को बुरी तरह प्रभावित किया है। यह अवस्था केवल ग्रामीण अर्थव्यवस्था में कमी के कारण नहीं है।  खेतों की संख्या और नीतियों के हस्तक्षेप के हाल की रिपोर्ट देखने पर एक अलग स्थिति पर प्रकाश पड़ता है।
     पिछले 2 वर्षों तक गांव में मानसून की स्थिति बहुत खराब थी लेकिन 2017 में इसमें सुधार हुआ है। साथ  ही,  भारतीय खेतों में उपज भी अच्छी हुई है। तेलहन  को छोड़ कर दलहन और अन्य प्रमुख अनाजों का उत्पादन अच्छा हुआ है।  विगत 2 वर्षों में न्यूनतम समर्थन मूल्य जो बढ़े हैं वह बहुत खराब नहीं है। आंकड़ों को देखने से पता चलता है अच्छी फसल और न्यूनतम समर्थन मूल्य  लागू होने से किसानों की आय  25 से 30%  बढ़ गई है।  राजनीति की बात दरकिनार करें फिर भी ग्रामीण अर्थव्यवस्था में सरकारी हस्तक्षेप से  पर्याप्त सुधार हुआ है। हालांकि  कोई बदलाव नहीं आया है। जिन राज्यों में खेती ही आधार है वहां कृषि ऋण की माफी ने किसानों में खुशहाली पैदा की है। इसके अलावा,  केंद्र और राज्य सरकारों का कृषि अर्थव्यवस्था में व्यय सकल घरेलू उत्पाद के लगभग आशा प्रतिशत बढ़ा है। यह 2009 के बाद सबसे बड़ी वृद्धि है। 
यही नहीं सरकार ने कई कृषि उत्पादों पर जैसे गेहूं ,चीनी, खाने वाले तेल इत्यादि आयात शुल्क बढ़ा दिया है ताकि सस्ते आयात से किसानों की रक्षा की जा सके।  सरकार ने चीनी पर शत प्रतिशत आयात शुल्क बढ़ाया है जबकि चना और मटर पर 50% और गेहूं पर 30% आयात शुल्क बनाया गया है।
  ग्रामीण अर्थव्यवस्था और उत्पादन के डायनामिक्स में विकास होने के बावजूद अगर ग्रामीण वेतन वृद्धि कम हो रही है तो यह ग्रामीण अर्थव्यवस्था के ढांचागत परिवर्तन के संकेत हैं ।ग्रामीण तथा शहरी मजदूरों की मजदूरी के आंकड़े इस बात को स्पष्ट करते हैं।
    2005 से 2012 के बीच गांव से बहुत मजदूर शहरों की तरफ मजदूरी करने गए खासकर  निर्माण क्षेत्र में और इस कारण ग्रामीण क्षेत्रों में मजदूरों का आभाव हो गया लिहाजा ग्रामीण मजदूरों की मजदूरी में वृद्धि करनी पड़ी। 2012 के बाद निर्माण क्षेत्र में मंदी आ गई और वहां काम पर लगे मजदूर गांव लौट के आ गए अतः ग्रामीण क्षेत्रों में मजदूरी की दर कम हो गई। इसके अलावा और भी कई श्रमिक बहुल क्षेत्र हैं जैसे दस्तकारी , खेल के सामान, जूते, गहने, लकड़ी के सामान और कागज बनाने के उद्योग से भी मंदी के कारण छटनी होने लगी और उन क्षेत्रों में काम पर लगे मजदूर लौटने लगे। यही नहीं , 2018 वित्त वर्ष में आर्थिक विकास के दावों के बावजूद नोटबंदी और जीएसटी के कारण  मजदूरों पर भारी प्रभाव पड़ा ।  यह बड़ा अजीब लग रहा है शहरों से गांव की ओर लौटने वाले मजदूरों के कारण मजदूरी में कमी आ रही है हालांकि उत्पादन ठीक हो रहा है।
   यह सर्वविदित है कि देश में कुल मजदूरों का आधा भाग ग्रामीण क्षेत्रों से आता है। खपत और मांग के कारण ग्रामीण अर्थव्यवस्था प्रभावित होती है। कृषि जीडीपी के मुकाबले कृषि आय ज्यादा प्रभावित होती है और जब मंदी आती है तो किसानों पर ज्यादा प्रभाव दिखता है। नोटबंदी और जीएसटी के कारण शहरी भारत में कामकाज और मजदूरी ठप हो गई और उसका प्रभाव ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर पड़ा। मोदी जी को इससे चिंतित होना चाहिए क्योंकि न्यूनतम समर्थन मूल्य में  संभावित वृद्धि के बावजूद गैर कृषि ग्रामीण अर्थव्यवस्था में गिरावट आ रही है। 2018 और 19 में जिन राज्यों में चुनाव हुए उनमें 65 से 80 प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्र हैं। यह कहने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए कि उनका व्यापक वोट बैंक ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर निर्भर है। ग्रामीण अभाव को खत्म करने के लिए जरूरी है कि शहरी विकास किया जाए क्योंकि अच्छी फसल ,कृषि ऋण माफी और सरकारी खर्चे ग्रामीण क्षेत्रों को खुशहाल बनाने में नाकामयाब रहे। यद्यपि मूल्य वृद्धि ,ब्याज दरों में वृद्धि और रुपए की गिरती कीमत इत्यादि ने भी ज्यादा प्रभाव डाला है। गुजरात के चुनाव से यह स्पष्ट हो गया है कि  ग्रामीण क्षेत्रों में कैसे मतदान के रुझान बदलते हैं। यह कहने में कोई हिचक नहीं होती है कि  आगामी चुनाव में ग्रामीण व्यवस्था बहुत महत्वपूर्ण कारक  होगी।

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