अराजक स्थिति की ओर बढ़ता लोकतंत्र
पिछले कुछ दिनों से सबने गौर किया होगा हमारा लोकतंत्र एक अजीब से दौर से गुजर रहा है । हर आदमी चाहे वह जैसा भी हो राजनैतिक बनता जा रहा है, विचार शून्यता बढ़ती जा रही है। हम हम और हमारा समाज अपनी जरूरतों को पूरा करने के साधनों के बदले तरीकों पर ध्यान दे रहा है। बहुत सारी जरूरतें होती ही नहीं है हम विज्ञापन देखते हैं और आपने को छोटा महसूस करने लगते हैं तथा उन विज्ञापनों के कारण हमारी जरूरतें पैदा हो जाती हैं। हमारे अंदर एक स्पर्धा भाव आ जाता है और हम जरूरतें गढ़ने लगते हैं। बाजार व्यवस्था का इन दिनों व्यवहार से देख कर विचार तक धर्म से लेकर सियासत और हमारी रोज की जिंदगी से लेकर अर्थव्यवस्था तक बोल बाला है। दरअसल यह सब जरूरतें गढ़ने और उन्हें पूरा करने पर आधारित हैं। इसी के साथ हमारा मध्यवर्ग भी फैल रहा है। उस मध्यवर्ग में करोड़ों ऐसे लोग शामिल होते जा रहे हैं जो मॉल की चमक, फास्ट फूड और पीठ पर बैग के लिए ही सारी जद्दोजहद करते हैं। छात्रों का काम बिना पाठ्यपुस्तक के चल जाता है और जो जरूरी है उसका काम कुंजी से चला दिया जाता है या फिर गूगल से। रोजमर्रा के सवाल बदल गए हैं। अब हम घर से निकलने के पहले यह जानना चाहते हैं क्या पूछते रहते हैं की क्या कीमत है या कितनी दूर है हम यह कभी नहीं पूछना चाहते कि हमारे समाज में क्या हो रहा है, हम कितने विचारहीन होते जा रहे हैं। सभी देख रहे हैं कि दिल्ली में वहां के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल अपने मंत्रिमंडल के कुछ साथियों के साथ उपराज्यपाल के यहां धरने पर बैठे हुए हैं और उनके बैठने का तरीका इतना विद्रूप है कि देखकर हर विचारशील आदमी को लज्जा आती है लेकिन उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता और ना इसे लेकर देश में कोई खलबली है। ये वो लोग हैं जिन्हें हमने चुना है।
जम्हूरियत वह तर्ज़े हुकूमत है
जहां बंदे गिने जाते हैं , तौले नहीं जाते।
हमने कभी खुद से नहीं पूछा कि हैम कौन हैं और हमने यह क्या किया। यही नहीं, हम यह भी नहीं सोचते कि कौन हमें कहां लिए जा रहा है जीवन का अर्थ क्या है दूसरे क्यों जरूरी हैं?
नोबेल पुरस्कार विजेता कवियत्री मार्था मेरिडोस ने लिखा है,
आप धीरे धीरे मरने लगते हैं
अगर आप नहीं महसूस करना चाहते आवेगों को और उनसे जुड़ी अशांत भावनाओं को
वह जिनसे नम होती हैं आपकी आंखें
और करती हो तेज आप की धड़कनों को
आप धीरे धीरे मरने लगते हैं
अगर आप नहीं बदल सकते अपनी जिंदगी को
बहुत लोग ऐसे हैं जिन्हें जीवन की आपाधापी में ऐसे सवाल पूछने का वक्त ही नहीं मिलता। हर समाज को पहले प्रश्न पूछने का और विकल्प तलाश करने का अधिकार है। लेकिन, ऐसा कितने लोग करते हैं ? वैसे लोग हाशिए पर आते हैं और हाशिए से ही देखते समझते हैं। ज्यादातर लोगों का ध्यान नहीं जाता। यही कारण है कि अधिकांश आबादी जातियों और राजनीतिक गुट बंदियों में तक्सीम हो गई है। कोई इस राजनीतिक झंडे के नीचे खड़ा है तो कोई उस राजनीतिक झंडे का समर्थन कर रहा है। किसी के पास वक्त नहीं है की वैचारिक, बौद्धिक और रचनात्मक कार्य करें।
तुम शहर में हो तो हमें क्या गम, जब उठेंगे
ले आएंगे बाजार जाकर दिलोजान और
कभी कभी मन बहलाने के लिए या एकाकीपन को दूर करने के लिए कुछ मनोरंजन की जरूरत पड़ती है तो उस कुछ में साहित्य ,कलाएं और विचार इत्यादि हैं । पर कम से कम भारत में जैसा "संस्कृतिहीन और अल्प शिक्षित " वर्ग विकसित हुआ है और समाज पर अपनी धाक जमाए हुए हैं उससे लगता है कि उसे सृजन और विचार से कोई मेल नहीं रह गया । उसे बने-बनाए उत्तर की जरूरत पड़ने पर कहीं बाहर से ले आएगा। उसे भाषा , संवाद नहीं जुमलेबाजी और झगड़े पसंद हैं। इलियट के शब्दों में कहें हम "आत्मतुष्टि के सूअरबाड़े " में रह हैं और अपने को नागरिक होने का और भारतीय होने का गर्व महसूस कर रहे हैं। हमारे लोकतंत्र की यह सबसे बड़ी चूक है कि वह हमें विचारशील या सवाल पूछने वाला नहीं बनाता । जो हालात हैं उससे तो ऐसा ही लग रहा है सवाल सिर्फ साहित्य में पूछे जा रहे हैं । हमारे लोकतांत्रिक समाज की यह विडंबना है कि हम एक ऐसे पथ पर बढ़ रहे हैं ,एक ऐसी व्यवस्था के साथ चल रहे हैं जो हमें विचार शून्य बना रहा है।
हो सकता है इस बात से बहुत से लोग इत्तफाक ना रखें और बेवजह दलीलें दें। लेकिन सोचिए पिछले लोकसभा के चुनाव के नतीजे क्या संकेत दे रहे थे ? यही न, कि पिछली सरकार के सारे दावे और प्रगति की बातें देश के एक बहुत बड़े वर्ग को पसंद नहीं थी। लेकिन उनकी अपेक्षाएं क्या थी इसके बारे में उस समय कोई तस्वीर साफ नहीं थी ना आज है । जो भी चित्र दिमाग में आता है वह दूसरों का बनाया हुआ है ।या, हमें बताया जाता है कि क्या हो रहा है। सच क्या है हमने कभी पूछा ही नहीं । आज फिर क्या स्थिति है? देखिए संसदीय लोकतंत्र को चारों तरफ से ललकारा जा रहा है। लोकतंत्र के बुनियादी लक्ष्यों को हासिल नहीं किया जा सकता है। मानवाधिकार के रक्षक के रूप में लोकतंत्र उतना ताकतवर और सफल नहीं हो सका जितनी उम्मीद थी। आज हमारे लोकतंत्र के सामने सबसे बड़ी चुनौती है न्याय और अधिकार की डिलीवरी । इंसानी मूल्य और पोषक के रूप में उसकी उपयोगिता। लोकतंत्र की स्थापना में संस्थाओं का बहुत बड़ा योगदान है लेकिन संस्थाओं को टिकाऊ बनाने के लिए क्या प्रयास किए जा रहे हैं? आज किसी न किसी खेमे द्वारा हर संस्था पर उंगली उठाई जा रही है । लोकतंत्र की संस्कृति को संस्थागत स्वरूप में बदलने की कोशिश कहीं नहीं दिख रही है लोकतंत्र की बुनियादी जरूरत इंसानी हिफाजत है। चुनाव के बाद जो सरकार बनाई जाती है उसे जनता इसी हिफाजत के लिए ताकत प्रदान करती है। लेकिन उस शक्ति में कुछ विसंगति आ गई है। लोकतंत्र की जड़ें कमजोर होती जा रही हैं ।एक तरफ लोकतंत्र की यह कमजोरी है और दूसरी तरफ जनता की विचार शून्यता। पूरा का पूरा समाज राजनीतिक बनता जा रहा है । इसे रोका नहीं गया तो भविष्य में एक अराजक स्थिति पैदा हो सकती है।
0 comments:
Post a Comment