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Monday, June 11, 2018

आखिर संघ ने प्रणब को बुलाया क्यों था

आखिर संघ ने प्रणब को बुलाया क्यों था

हरि राम पाण्डेय

 प्रणब मुखर्जी का संघ मुख्यालय में जाना आपात  काल के बाद  सबसे बड़ी राजनीतिक  घटना है। कुछ लोगों ने इसे संघ और भाजपा के लिए एक उपहार के तौर पर देखा है और कुछ विश्लेषकों ने इसे संघ प्रमुख मोहन भागवत प्रणब मुखर्जी के आपसी रिश्ते का प्रतिफल बताया है। याद होगा एक बार प्रणब मुखर्जी  जब राष्ट्रपति  थे उन्होंने राष्ट्रपति भवन में सारे प्रोटोकॉल तोड़कर मोहन भागवत अगवानी की थी। कुछ लोग उसी नजरिए से इस घटना को देख रहे हैं। लेकिन इसका राजनीतिक प्रतिफल बहुत   अलग है। इस घटना का प्रथम प्रभाव कांग्रेस पार्टी और कई विश्लेषकों के रूप में दिखा यहां तक कि  प्रणब मुखर्जी की पुत्री ने भी इस पर विरोध प्रकट किया था। उन्होंने कहा था कि उनके भाषणों को लोग भूल जाएंगे लेकिन संघ के नेताओं के साथ उनकी तस्वीर हमेशा कायम रहेगी और इस तरह  तरह के मतलब निकाले जाएंगे। लेकिन यह समझना जरूरी है कि संघ  ने ऐसा क्यों किया? उसने   प्रणब मुखर्जी के पास  इस तरह पहुंचने या इस बहुत का प्रदर्शन करने की कोशिश क्यों की और इससे क्या लाभ मिला उसे। दूसरी तरफ यह भी समझना जरूरी है कांग्रेस को  क्या लाभ मिला या उसे क्या हानि हुई।  इसका सबसे पहला और स्पष्ट लाभ मिला इस अवसर का जमकर प्रचार  हुआ।  आमतौर पर  संघ के ऐसे  कार्यक्रमों को हाशिए पर डाल दिया जाता था।  इस वर्ष कार्यक्रम इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में प्राइम टाइम था और अखबारों में सुर्खियों में  था। संघ के आंगन में  प्रणब मुखर्जी को देखना लोगों के लिए एक अजीब अनुभव था और लोग टीवी से चिपके बैठे थे। पूरा देश संघ के कार्यक्रम को देख रहा था।  श्रोताओं दर्शकों की भारी मौजूदगी को ध्यान में रखते हुए मोहन भागवत ने हलाकि हिंदू राष्ट्र की बात की लेकिन अपने भाषण को बहुत ही नियंत्रित  रखा। उन्होंने  संघ को बहुत ही सहिष्णु संगठन के रूप में पेश करने की कोशिश की।  संघ प्रमुख ने अनेकता में एकता की बात की उन्होंने कहा इशारे भारतीय प्रवासी भारतीय हैं और बच्चे भारत माता की संतान हैं इससे उदारवादी हिंदू भी प्रभावित हुए।  इस समय ऐसा लग रहा था कि आडवाणी जी का जिन्ना की मजार पर जाना धीरे धीरे सुना जा रहा है।  उद्देश्य था मतदाताओं को प्रभावित  करना।  मोहन भागवत के भाषण के दौरान मुखर्जी मंच पर थे और उसका एक सम्मिलित संदेश बन रहा था। मोहन भागवत का उद्देश्य 2019 की जंग  का शंख फूंकना था।  दूसरी तरफ पुराने कांग्रेसी की मौजूदगी से ही संघ प्रमुख की भाषा  बदल गई।  वह अनेकता में एकता की बात करने लगे जातियों की बात नहीं भाई और सभी बच्चों को भारत मां की संतान बताया।  वैसे इसका बहुत बड़ा लाभ भाजपा को भी मिला।  उसे मालूम है की 2014 नहीं  दोहराया जाने वाला है  और सूत्रों का मानना है कि वह 150 सीटों पर अपने उम्मीदवार  बदलेगी।  वह 50  नई सीट भी पाने की योजना बना रही है जिसमें कई बंगाल और उड़ीसा से भी  रहेंगी।ऐसे में बंगाल के  कद्दावर नेता  का संघ के मंच से भाषण भाजपा को बंगाल में लाभ दिला सकता है।  बहुतों को यह याद होगा भाजपा और संघ में बंगाल को लेकर या चाहे देशभर में संघ की शाखाओं को स्थापित करने को लेकर थोड़ा मतभेद हो गया है। बंगाल में तो प्रधानमंत्री मोदी की पिछली यात्रा के बाद  संघ की शाखाओं के बीच  यह सांकेतिक जुमला मशहूर हो रहा था कि शेर आया और  दहाड़ा  नहीं  यानी मोदी जी ने संघ के बारे में यश के प्रसार के बारे में कोई ऐसी बात नहीं कहीं जिससे उसे लाभ मिलता।  इस बार संघ के मंच पर प्रणब दा की उपस्थिति बंगाली ईगो पुणे शहर आ रही थी बल्कि  बंगाल में भाजपा के लिए मैदान भी तैयार कर रही थी। चर्चा है अमित शाह ने बंगाल से 22सीटें जीतने का मंसूबा  बनाया है।  यही नहीं  प्रणब मुखर्जी उपस्थिति कांग्रेस के संकेत है।  इसे सचेत होना होगा।  भाजपा  ने कांग्रेस के कई  बिंबों को अपना  लिया है। जैसे गांधी जी का चश्मा मोदी जी  की योजनाओं का प्रतीक है,  वह सरदार पटेल का भी इस्तेमाल कर रही है तथा दलितों से दुर्व्यवहार के नाम पर अंबेडकर का भी उपयोग शुरू कर दिया है यही नहीं भाजपा ने सुभाष चंद्र बोस  और लाल बहादुर शास्त्री के परिजनों को भी आमंत्रित करने का काम आरंभ किया है।  यह कांग्रेस के लिए एक सबक है  कि उसके  प्रतीकों का भाजपा इस्तेमाल कर रही है और कांग्रेस को एक पारिवारिक पार्टी के रूप में धीरे-धीरे अलग कर रही है। लेकिन समाजशास्त्रीय स्तर पर प्रणब मुखर्जी  की उपस्थिति एक तरह से भाजपा को उदारवादी  रुख अपनाने के लिए बाध्य कर जनता को यह संदेश दिया है कि कांग्रेस की नीति ही भारत के लिए सर्वोत्तम है और वह भाजपा का आंतरिक कांग्रेसीकरण करने में कामयाब हुए हैं।  यही नहीं यह  कांग्रेस के असंतुष्ट बुजुर्गों के लिए भी एक सबक है।  प्रणब मुखर्जी अपनी महत्वाकांक्षा के लिए विख्यात है और उन्होंने राष्ट्रपति बनने के पहले तक अपनी कोशिशें जारी रखी थी लेकिन उनका असंतोष कभी जाहिर नहीं हुआ।  संघ के मंच पर संघ का पूरा कुनबा मुखर्जी की प्रशंसा करता रहा इससे असंतुष्ट बुजुर्गों को समझना चाहिए कि  प्रयास जारी रखना होगा।

   सोशल मीडिया पर इस अवसर गलत तस्वीर प्रचारित की जा रही है। यह तस्वीर यद्यपि सही नहीं है फिर भी आने वाले दिनों में घूमती रहेगी और लोगों को   गुमराह  करती रहेगी इससे पूर्व राष्ट्रपति छवि को धक्का लगेगा।  लेकिन प्रत्यक्ष रुप से इससे संघ को यह लाभ मिला है कांग्रेस ने अभी तक गांधी के हत्यारे के रूप में संघ को लांछित करती  रही है   हाल ही में राहुल गांधी ने इसे फासिस्ट और लोकतंत्र का दुश्मन कहा था।अब संघ के मंच पर कांग्रेस के बड़े नेता की मौजूदगी दूसरी तरफ इशारा कर रही है।   लेकिन प्रणब मुखर्जी एक तरफ से कांग्रेस के ही दर्शन देश के सामने रखकर यह बताने की कोशिश की है कि  भाजपा  का रास्ता सही नहीं है।  उन्होंनेमंच से बताया भारतवर्ष का अर्थ क्या है, भारत विश्व गुरु कैसे बनेगा और भाजपा जोकर रही है वह सही नहीं है भारतीय संस्कृति के अनुकूल नहीं है हमारी सभ्यता से मेल नहीं खाता है। प्रणब मुखर्जी ने  संघ के मंच से ही  गांधीजी  के जमाने की  बहस की शुरुआत कर  दी।  उन्होंने यह बताना चाहा कि  इस देश में  एक बहस जोर पकड़नी चाहिए  कि  संघ  आज हमारे जीवन को नियंत्रित करने की कोशिश कर रहा है उससे हमारे संबंध कैसे रहने के लिए,  उससे नाता तोड़ लेना एक  हल है या  पूरी तरह से   बिछ जाना दूसरा हल है।  हकीकत में आजादी के बाद का भारत\अभी तक यह तय नहीं कर पाया कि उसे करना क्या है।  प्रणब मुखर्जी ने इस बहस को  मौका दिया इस पर खुलकर बात हो , बहस हो और यह तय हो कि हमें करना क्याहै।

  यही नहीं संघ का मुकाबला करने के लिए कांग्रेस को नए मिजाज में आना होगा।  यह वही कांग्रेसी है जो नरसिम्हा राव सिंड्रोम को संभाल नहीं पाए।  नरसिम्हा राव में विकास की जो लंबी रेखा खींची वह आज तक दिखाई देती है।  लेकिन कांग्रेस उसे आगे नहीं बढ़ा  सकी।  बाबरी मस्जिद गिरने से रोक नहीं पाई थीऔर अब तक  इसी भय से ग्रस्त है  कि अगर कुछ कहा  तोअल्पसंख्यक नाराज हो जाएंगे।  ऐसे ही भय के कारण देश के आर्थिक विकास का क्रेडिट नहीं लेसकी।

  आज वह जमाना नहीं है।   1992 में  राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने आगे बढ़ना   शुरू  किया था आज वहां देश के केंद्र में है।  आज  1992 का फार्मूला कारगर नहीं होगा।  कांग्रेस को गांव की लाइन को अपनाना चाहिए मोदी की हवा  निकाल सके और यह दावा कर सके  असली विकास कांग्रेस ही   लेकर आई थी।  प्रणब मुखर्जी कांग्रेस को यह संदेश दिया है संघ से लड़ने के लिए हथियारों का  ईजाद करना पड़ेगा।

   इसमें सबसे दिलचस्प है कि कार्यक्रम संघ का था  और मोहन भागवत सौहार्द तथा एकता में अनेकता की बात करते रहे।  वह यह समझाने में लगे रहे कि वैसा नहीं है जैसा उसके बारे में कहा जाता है। सबको साथ लेकर चलना चाहता है वह सब की इज्जत करता है और परम वैभवशाली भारत के निर्माण में सब के सहयोग की अपेक्षा रखता\है।  प्रणब मुखर्जी  राजनीति के मजे हुए खिलाडी हैं और  पुराने कांग्रेसी हैं। उन्होंने बड़ी   सफाई से  यह कह दिया कि देश परम वैभवशाली नफरत की बुनियाद पर नहीं बनसकता ,वह विश्व गुरु तभी बनेगा जब सबको साथ लेकर  चलेगा, सभी धर्मोंका आदर करेगा  और किसी एक धर्म की राजनीति नहीं करेगा।  प्रणब मुखर्जी संघ कोकांग्रेस का यह पाठ पढ़ाया जो पढ़ना नहीं चाहता था।

 भाजपा सरकार जब से बनी है उसने नेहरू की विरासत को खत्म करने की कोशिश की  है।  उसने यह बताने की कोशिश की है इस देश में जो कुछ भी गलत हुआ वह नेहरू के कारण हुआ।  देश की युवा पीढ़ी के सामने वह  नेहरू की तस्वीर खंडित करने में  लगी है।  लेकिन प्रणब मुखर्जी संघ के मंचसे बोला है इस देश की आत्मा संवैधानिक सेकुलरिज्म में बसती है और वही इस देश काधर्म  है, यही असलीआस्था है।  उन्होंने डिस्कवरी ऑफ इंडिया का उद्धरणदेते हुए कहा भारत सभी सभ्यताओं का संगम है।  वह उसगांधी जी को भी ले आए  जिनकी संघ ज्यादा इज्जत नहीं करता।   यही नहीं , प्रणब मुखर्जी अशोक को ले आए।   संघ का कहना है  किअशोक के चलते ही देश कमजोर हुआ और हिंसा के चक्रव्यूह मैं फंस गया। उसने  हिंदू धर्म को छोड़कर बौद्ध धर्म को अपना लिया और इससे समस्त हिंदू धर्म खतरे में पड़ गया लेकिन अशोक की बात करके प्रणब मुखर्जी ने संघ की दुखती रग पर हाथ रख दिया।

  प्रणब मुखर्जी ने संघ के मंच से जो सबसे बड़ी बात कही वह  थी  कि  विचारधारा  की लड़ाई विचारधारा के स्तर पर ही लड़नी होगी निषेध से काम नहीं चलेगा।

 

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