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Monday, June 25, 2018

समाज और सियासत पर बढ़ रहा खतरा 

समाज और सियासत पर बढ़ रहा खतरा 

आजादी के बाद से ही निष्पक्षता- तटस्थता खतरे में है। महात्मा गांधी  से लेकर शुजात बुखारी तक की हत्या केवल इसलिये हो गयी कि वे किसी एक गुट या पक्ष के साथ ना हो कर तत्कालीन घटनाओं में बीच की राह तलाश रहे थे। संवाद के माध्यम से समाधान की ओर बढ़ने की वकालत कर रहे थे। इन दिनों देश में बुद्िध्जीवियों और विचारकों पर यह जोर पड़ रहा है कि वे स्पष्ट करें कि किस विचारधारा के हिमायती​ हैं। लोकतंत्र के पांचवें खंभे के तौर पर धीर-धीरे विकसित हो रहे सोशल मीडिया में यह स्पष्ट देखा जा सकता है कि किसी एक विचार को लेकर कितने विरोधी विचार सामने आते हैं। खास कर , ऐसे विचार देखने सुनने को मिलते हैं जो सोचने समझने मेधा को कुंद कर ते। तटस्था को इनदिनों सियासी पाखंड करार दिया जा रहा है। कुछ लोग इसे राजनीतक अवसरवाद और मौके का इंतजार कह रहे हैं और बार- बार कहा जा रहा है कि

समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याघ्र,

जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध।

कश्मीर से कन्या कुमारी तक तटस्थ शब्द के दर्शन का गलत अर्थ समझा और समझाया जा रहा है। यह शब्द दरअससल निष्पक्षता के बहुत करीब है। आप एक ऐसी ​ स्थिति की कल्पना करें जिसमें किसी घटना के दोनो पक्ष सत्य से अलग हैं और आप उनदोनों पक्षों से अलग होकर सत्य का पक्ष अपनाते हैं और दोनों से अलग अपना पक्ष रखते हैं तो यह तटस्थता है। अब ऐसी स्थिति में एक पक्ष को महसूस होता है कि वह विरोधी पक्ष का समर्थन कर रहा है और फिर इसी मनोभाव के कारण दोनों आपके दुश्मन हो जाते हैं। आज क्या हो रहा है कि देश में अधिकांश लोग किसी ना किसी पक्ष के सााथ हैं या उसके खिलाफ हैं। कुछ लोग एकदम चुप हैं। ऐसे चुप्पी निरपेक्षता है तटस्थता नहीं। गलती से निहित स्वार्थी लोग निरपेक्षता को तटस्थ कह दे रहे हैं। घटना या किसी स्थिति से मुंह मोड़ लेना तटस्थता नहीं है, सच का साथ देना तटस्थता है। तटस्थ लोग इसी लिये बहुत कम हैं और उनका कोई गुट नहीं है। अगर वे चाहें भी एक गुट बनाना तो यह गलत हो जायेगा। वे लोग सदा दलबंदी का शिकार हो जाते हैं। अभी कुछ दिनों पहले गांधी की हत्या पर या राण प्रताप की के युद्ध पर बहस चली थी और उसमें इतिहास की तटस्थता को गुटबंदी से व्याख्यायित करने की कोशिश की गयी, दलबंदी के बल पर अपराध का औचित्य प्रमाणित करने कोशिश होती है , जो इसके विरोध में कहता है उसे प्रताड़ित होना पड़ता है। अमूर्त लोकवर्ग उसके पक्ष में नहीं खड़ा होता है।रिा ध्यान से देखें तो लगेगा हमारा समाज बुरी तरह से राजनैतिक ध्रुवों पर एकत्रित हो रहा है। केवल ध्रुव के चयन का विकल्प है हमारे पास, किसी एक प्रचलित विचारधारा को अपनाने की सहूलियत है आम आदमी के पास। दरअसल वह विचारधारा खुद में चरम सत्य होने का अहंकार पाल लेती है और अपने पीछे चलने वालों को हिंसक बनाने की संभावना से लैस होती है। हर नयी बात की तीखी प्रतिक्रिया होती है और हिंसा चाहे वह कर्म की हो या बातों की उसका औचित्य प्रमाणित करने का प्रयास होता है। चारों तरफ विचारधारात्मक घटाटोप है और विभिन्न गुट इसमें अपनी मशालें जलाये घूम रहे हैं। चारों तरफ उसे हराया और उसकी सरकार बनवाया जैसी बहस चल रही है। यह अंदोरा ऐसा है जिसमें अरस्तू से लेकर गांधी तक गुम हो गये लेकिन उम्मीद है कि अंदोरे के ऊपर तने आकाश में नये सितारे पैदा होंगे। दूसरी तरफ जिन्होंने सितारों को गुम करने की क्रिया को बल दिया वे बड़े शान से कहते हैं कि चलो देश की लाज बच गयी। 

कौन रोता है वहां इतिहास के अध्याय पर 

जो आप तो लड़ता नहीं,

कटवा किशोरों को मगर,

आश्वस्त होकर सोचता,

शोणित बहा, लेकिन, गयी बच लाज सारे देश की?

कबीर ने कहा है कि "घूंघट के पट खोल .... " , यह घूंघट का पट संकीर्ण विचारधारा या दलबंदी है इससे बाहर निकलने पर ही​ सत्य का दर्शन होगा। सोचिये आज क्या हालत है कि हमें नक्सलियों से लेकर कश्मीरियों तक से बातचीत करने के लिये एक तटस्थ आदमी नहीं मिल रहा है ओर अगर मिल भी गया तो वह सबको एक समझौते के लिये तैयार नहीं कर पायेगा। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कोई ऐसा संगठन या नहीं दिखता जिसका कहा सभी मानें। राष्ट्र संघ् केवल अपनी लाज बचाता सा दिखता है। समाज खतरे में है।अगर अभी नहीं चेता गया तो आने वाला कल कितना खतरनाक होगा इसकी कल्पना नहीं की जा सकती।  

 

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