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Tuesday, June 19, 2018

एक नया चलन : अपराध की तरफदारी करते लोग

एक नया चलन : अपराध की तरफदारी करते लोग

​हिंदी सिनेमा का एक दृश्य बहुत मशहूर है और यकीनन बहुतों को याद भी होगा कि जब एक अपराधी पकड़ा जाता है तो पान चबाता हुआ एक पॉलिटिशियन थाने में आता है और एक दो बड़े अफसरों को फोन करता है और उस अपराधी को छुड़ा ले जाता है। गिरफ्तार करने वाला अफसर कुछ नहीं कर पाता। लेकिन सोचिये एक नये दृश्य के बारे में जब कोई अपराधी पकड़ा जाता है तो जनता उसे छुड़ाने के लिये थाने पर दबाव डालने लगती है क्योंकि वह अपराधी किसी खास पार्टी अथवा किसी खास धर्म से ताल्लुक रखता है। यहां अपराध प्रमुख या महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि खास यह है कि अपराध करने वाला किस पार्टी या किस धर्म से सम्बंध रखता है। आज हमारा समाज इस विंदु पर पहुंच गया है। एक सिाल लें, गौरी लंकेश की हत्या का। विशेष जांच दल द्वारा गिरफ्तार व्यक्ति परशु वागमारे ने कबूल किया और बताया कि उसने कैसे गौरी को मारा। अब पुलिस उस हथियार की तलाश में जिससे हत्या की गयी है तथा उन लोगों को भी खोज रही है ज्न्हिोंने हथियार ​दिये और मदद की। इस मामले में तीन चार लोग पकड़े भी गये हैं और सब महाराष्ट्र के हिंदू जागृति समिति  के सदस्य हैं।

यही नहीं कठुआ बलात्कार और हत्या कांड में हिंदुत्व वेब साइट " शंखनाद " द्वारा सी बी आई जांच की मांग की जा रही है। इन सबमें एक बात समान है कि अपराध करने वालें की तरफदारी हो रही है बिना इस बात पर ध्यान दिये कि अपराध क्या है? लोग सोशल मीडिया में लगातार पोस्ट कर रहे हैं कि नाथू राम सही था , परशुराम धर्म रक्षक थे इत्यादि। टीवी के एंकरों को लेकर बंटवारा हो गया। एक एंकर उनके मन की बात कह कर उनका हो गया और दूसरा उनकी आलोचना कर उनका दुश्मान हो गया। हर बात में धर्म घुसता जा रहा है। नफरतों का असर देखो, जानवरों का बटवारा हो गया, 

गाय हिंदू और बकरा मुसलमान हो गया।

सूखे मेवे भी ये देखकर परेशान हो गए।

ना जाने कब नारियल हिंदु और खजूर मुसलमान हो गया।

दरअसल, सियासत से जुड़े अपराध एक तरह से परा संदर्भ हैं। एक बहुत बड़ा आपराधिक- राजनीतिक सोच का वातावरण है। हम उन सामाजिक राजनीतिक परिस्थितियों को नजरअंदाज नहीं कर सकते जिसने ऐसी स्थिति पैदा की है। हम अपने सामूहिक भय से उन स्थितियों से आंखें चुराते हैं जिसने सामूहिकन हितों का ऐसा केंद्रीकरण किया हैजिैसा पहले कभी नहीं था। अजीब हालात पैदा हो गये हैं जहां आम नागरिक अपराध का समर्थन करता हुआ खुश होता है।    

आप दिल्ली से किसी भी तरफ का रुख करें एक गाड़ा अंदोरा फैलता हुआ दिखता है। इस अंदोरे में कुछ लोग सोशल मीडिया में यह कहते सुने जाते हैं कि पहले भी ऐसा होता था , अब हो रहा है तो क्या खास बात है? यह समझने के लिये कोई तैयार नहीं है कि एक गलत बात की तुलना दूसरी गलत बात से नहीं की जा सकती है। भारत की बदकिस्मती है कि यहां सत्ता की सियासत होती है और इस तरह से सत्ता हमें विचारशील नहीं बल्कि स्वार्थी बनाती जा रही है। 90 के दशक में शुरू हुआ उदारीकरण से एक नयी ​िस्थति अभिभूत हुई। अब सकल घरेलू उत्पाद को चमकाने के कारण कई बेशुमारियां पैदा हो गयीं। मॉलवादी उपभोक्ता संस्कृति ने शहर के भीतर शहर खड़े कर दिये। आदमी ने सोचना बंद कर दिया। अगर कारों में अ्ययाश जोड़े हैं तो सड़कों पर धर्म तथा सम्प्रदाय के झंडे उठयी भीड़। इसी विकास जनित हिंसा के समांतर आज की हिंसा का नया और घिनौना रूप, कथित राष्ट्रवादी हिंसा का है। इसकी छत्रछाया में अन्य हिंसाएं फलफूल रही हैं। अगर राजनीतिक हिंसा के लिये सत्ता प्रतिष्ठान जिम्मेदार हैं तो समाज में फैलती इस नयी तरह की जातीय और धार्मिकहिंसा के लिये  समाज और उसकी नैतिकता जिम्मेदार है।  याद रहे कि कि अपराधों की तरफदारी करे वालों का विरोध ना कर हम एक डरे हुये समाज का निर्माण कर रहे हैं और डरा हुआ समाज हरदम अपराध को ही बढ़ावा देता है। 

हमने माना कि ये पत्थर का शहर है 

पर जरूरी नहीं कि खुद को बना लें पत्थर 

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