अर्थव्यवस्था के विभिन्न आयाम
देश की अर्थव्यवस्था गड़बड़ा रही है। हालात चिंतित करने वाले हैं। लेकिन, सरकार और उसके नेता इसे मानने को तैयार नहीं हैं। इसके बारे में अलग अलग लोगों के अलग-अलग बयान आ रहे हैं। रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने कहा है कि विकास धीमा पड़ गया है, मौद्रिक घाटा हो रहा है तथा इसके पीछे और भी बहुत कुछ है । ब्राउन यूनिवर्सिटी में ओपी जिंदल लेक्चर के दौरान रघुराम राजन ने कहा कि भारतीय अर्थव्यवस्था में गंभीर अस्वस्थता के लक्षण दिखाई पड़ रहे हैं। रघुराम राजन ने आर्थिक मंदी के कारणों का जिक्र करते हुए कहा कि पहले से चली आ रही समस्याओं में इसकी खोज की जा सकती है। उन्होंने सरकार पर तंज किया कि भारत को अभी पता नहीं है कि विकास के नए स्रोत कहां है।
उधर हमारे नेता हैं कि देश में आर्थिक मंदी को मानने को तैयार नहीं हैं। वे इससे जुड़े सवालों के अजीब उत्तर दे रहे हैं। अभी शनिवार को एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने एक प्रश्न के उत्तर में कहा कि तीन फिल्मों ने 1 दिन में 120 करोड़ की कमाई की। 120 करोड़ रुपए ऐसे ही देश में आते हैं जिनके अर्थव्यवस्था मजबूत होती है। उनका मानना है कि देश में कोई आर्थिक मंदी नहीं है। लेकिन, सवाल है कि सच को जाना जाए कि क्या सचमुच आर्थिक मंदी है अथवा नहीं। इस साल जून में समाप्त तिमाही में भारत की जीडीपी पिछले 6 साल में सबसे निचले स्तर पर पहुंच गई थी। उसका स्तर 5 प्रतिशत पर आ गया था। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने हाल ही में देश में व्याप्त आर्थिक मंदी से निपटने के लिए अलग-अलग क्षेत्रों में उद्योग और आम आदमी को राहत देने की कई घोषणाएं कीं। उन्होंने कहा कि सरकार आर्थिक मंदी से लड़ने के लिए विशेष उपाय कर रही है। वहीं दूसरी तरफ रविशंकर प्रसाद के बयान कोई दूसरी बात कह रहे हैं। इन बयानों को सुनकर आम आदमी बुरी तरह कन्फ्यूज्ड है और किसी ठोस निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पा रहा है।
हर स्तर पर अलग-अलग बातें सुनने को मिलती हैं। अभी दशहरे के मौके पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने कहा कि आर्थिक संकट है मगर इसे बहुत महत्त्व देने की जरूरत नहीं है। शैतान को ज्यादा तवज्जो क्यों दें। अकेले जीडीपी ही आर्थिक वृद्धि का पैमाना नहीं है। भ्रष्टाचार पर हमला बोलिए, बेकसुरों को परेशान मत कीजिए और स्वदेशी पर विश्वास करें। इससे आर्थिक स्थिति में सुधार आ सकता है। उधर चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग भारत आये। इसके पहले 2014 में अहमदाबाद आए थे। गौर करने की बात है के 2014 से 2019 के बीच आर्थिक संबंधों में कितना बदलाव आया है। अब भक्त मंडली में कोई भी सवाल उठा सकता है की जिन पिंग के दौरे में और कुछ नहीं था जिस पर बात की जाए ? अर्थव्यवस्था की बात क्यों होती है? यहां सवाल है कि आज कूटनीति का हर पैमाना अर्थव्यवस्था पर आधारित है इसलिए जरूरी है कि इसका ठोस मूल्यांकन हो। आंकड़े बताते हैं कि 2014 से अब तक भारत और चीन के बीच का व्यापार घाटा बढ़ता रहा है। भारत का चीन को निर्यात घटता जा रहा है। चीन में लगातार नौकरियां पैदा हो रही हैं भारत में नौकरियां घटती जा रहीं हैं। इस बीच खबर आई है कि जुलाई 2019 में औद्योगिक उत्पादन 1.1 प्रतिशत रहा। जो विगत 81 महीनों में सबसे कम था। यह सरकार ने खुद बताया है । यही नहीं इस सरकारी आंकड़ों के मुताबिक देश में बेरोजगारी विगत 45 सालों में सबसे ज्यादा हो गई है । प्रधानमंत्री के पूर्व आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम ने जीडीपी के आंकड़ों पर उंगली उठा कर आर्थिक हालात को और बहस के केंद्र में ला दिया है। अब भाजपा को महसूस हो रहा है कि सचमुच आर्थिक स्थिति बहुत खराब है। मोदी सरकार के सामने अर्थव्यवस्था एक चुनौती है। अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए प्रधानमंत्री ने रिजर्व बैंक पर दवाब डाला। ब्याज दरों में कटौती की। लेकिन, उससे कोई अंतर नहीं आया। समस्या है कि प्रधानमंत्री जी के आर्थिक सलाहकार वही है जिन की सलाह पर 5 साल से नीतियां बनती रही हैं। जिन नीतियों की वजह से हालात यह हुए हैं। उसे ही सरकार लागू करने पर अमादा है। किसी हकीकत को स्वीकार करना और परिस्थितियों का सही आकलन करके सही कदम उठाना दोनों अलग-अलग बातें हैं। सरकार को समझना होगा की मूल समस्या क्या है ? जीएसटी के लागू होने से छोटे और लघु उद्योगों पर कागजी कार्रवाई का इतना बोझ पड़ गया कि वह उसी के नीचे दब गईं। सरकार ने यदि कोई ठोस कदम नहीं उठाया तो यकीनन आगे चलकर आर्थिक परेशानियों में डूब जाएगा देश।
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