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Wednesday, October 9, 2019

नई पीढ़ी ,पर्यावरण और शिक्षा के बीच गहरा रिश्ता

नई पीढ़ी ,पर्यावरण और शिक्षा के बीच गहरा रिश्ता

बिगड़ता पर्यावरण  किसी एक देश की जिम्मेदारी नहीं है  और ना ही  ऐसे विचार से  उद्देश्य हासिल हो पाएगा। यह एक  संयुक्त प्रयास है  और संयुक्त प्रयास से ही इसमें सुधार आ सकता है। राष्ट्र संघ के आंकड़े के मुताबिक आज दुनिया भर में लगभग 180 करोड़ लोग 10 वर्ष से 24 वर्ष उम्र के हैं बिगड़ते पर्यावरण के खिलाफ जंग में अगर इन 180 करोड़ नौजवानों की ताकत का उपयोग किया जाए तो बहुत कुछ लक्ष्य हासिल हो सकता है। यह नौजवान बढ़ते तापमान, संसाधनों के अभाव और भयानक मौसम की चुनौतियां से मुकाबले के लिए की जा रही कोशिशों के बड़े भागीदार हो सकते हैं। हाल ही में स्वीडन की ग्रेटा थुनबर्ग की अगुवाई में हुई स्कूलों की हड़ताल यही बताती है। नौजवान इन मुद्दों से खुद को जज्बाती तौर पर जोड़ने में सक्षम हैं। वे ऐसा कर भी रहे हैं। लेकिन, अभी युवाओं को इन मसलों से जुड़ाव विरोध प्रदर्शन तक सीमित है। इस  मामले में अभी युवा संस्थागत प्रयासों से नहीं जुड़ पाए हैं । आखिर ऐसा  क्यों है? इन दिनों स्थाई विकास पर सबसे ज्यादा चर्चा होती है। स्थाई विकास विकास का एजेंडा बहुत ही व्यापक है । इसमें गरीबी हटाओ से लेकर सबको शिक्षा और बेहतर प्रशासनिक व्यवस्था देने का लक्ष्य शामिल है। इसके तहत 17 लक्ष्य और 169 प्रयोजन तय किए गए हैं। इनमें कुछ मसले ऐसे भी हैं जो किसी आम नौजवान की सोच के दायरे से बाहर हैं। हालांकि ऐसे मामलों पर जागरूकता का विकास अच्छी बात और उससे भी अच्छी बात है उसे फैलाने का प्रयास। लेकिन यह बात समझ में नहीं आती कि आज का एक नौजवान मलेरिया या दिमागी बुखार के खिलाफ जंग में कैसे शामिल हो सकता है, या फिर एक दूर देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था को मजबूत करने में कैसे योगदान दे सकता है। इसलिए यह जरूरी है कि आम लोगों की व्यक्तिगत पसंद के हिसाब से उन्हें उन लक्ष्यों को पाने के लिए प्रेरित किया जाए। उदाहरण के लिए स्थाई विकास के जो 17 लक्ष्य तय किए गए उनमें शामिल एक लक्ष्य टिकाऊ विकास और खपत भी है। यह संभवतः युवाओं की पसंद का लक्ष्य है। दुनिया में एक बहुत बड़ी आबादी 1995 के बाद पैदा हुई है।  यह पीढ़ी 2020 तक दुनिया के कुल ग्राहकों का 40 प्रतिशत हो जाएगी। इसका मतलब है बहुत जल्द हमारे युवाओं की खपत और खरीदारी में बदलाव की जरूरत है।
         अपनी रोजाना की जीवन शैली में हम कार्बन उत्सर्जन में  बहुत बड़ा योगदान करते हैं। दुनिया भर में जो ऊर्जा उत्पन्न होती है उसका लगभग 29% भाग घरेलू उपयोग के काम में आता है और खानपान के क्षेत्र में 30%  का उपयोग होता है। यानी लगभग दो तिहाई ऊर्जा ऐसे कामों में खर्च हो जाती है जो अनुत्पादक हैं। इसके अलावा कार्बन डाइऑक्साइड का जो उत्सर्जन होता है वह अलग है । आंकड़ों के मुताबिक अमेरिका और चीन सबसे ज्यादा कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन करते हैं । 2015 की रिपोर्ट के मुताबिक अमेरिका ने 904. 74 टर्न कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन किया जबकि चीन ने उसी वर्ष 499.75 टन कार्बन डाइऑक्साइड वायुमंडल में छोड़ा। यही नहीं अमेरिका और चीन दुनिया के सबसे ज्यादा खपत वाले बाजार भी हैं। अमेरिकी पर्यावरण संरक्षण एजेंसी की एक  रिपोर्ट के मुताबिक अमेरिका में सबसे ज्यादा प्रदूषण फैलाने वाला उद्योग ट्रांसपोर्ट सेक्टर है। इसके बावजूद एक मिथक है कि जलवायु परिवर्तन में मानवीय गतिविधियों का हाथ है। इस मिथक को भंग करना होगा और हमारी नौजवान पीढ़ी ही इस मिथक को भंग कर सकती है।
         मनुष्य पैदाइशी खरीदार नहीं होता। मीडिया और असरदार मार्केटिंग की मदद से ग्राहकों का एक बहुत बड़ा बाजार तैयार किया जाता है। प्रचार और असरदार मार्केटिंग के कारण ही हमारे भीतर मोटर कार खरीदने और घूमने जाने इच्छा पैदा होती है। 1 वर्ष के भीतर दुनिया के कुल ग्राहकों में 40% भाग हमारे उन नौजवानों का होगा जिनकी पैदाइश 1995 के बाद हुई।  इसलिए जरूरी है कि हम इन नौजवानों की खरीदारी और खपत की आदतों को बदलें और तभी हम जलवायु परिवर्तन से जुड़े लक्ष्यों को हासिल कर सकेंगे। भारत में 2030 तक लगभग 10 से 25 वर्ष वाली उम्र के 37 करोड़ लोग हो जाएंगे और इससे घरेलू खपत पर भारी असर पड़ने को है। इस अवधि तक एक बहुत बड़ी आबादी गरीबी रेखा से ऊपर चली जाएगी और उनके खर्च करने की क्षमता बढ़ जाएगी। आज भारत में नौजवान लगभग डेढ़ अरब डॉलर खर्च करते हैं 11 वर्ष के बाद यानी 2030 में यही नौजवानों समुदाय 6 अरब डॉलर खर्च करने लगेगा। 15 वर्ष की उम्र के लगभग 90% किशोर ऑनलाइन दुनिया तक पहुंच जाएंगे। यानी ,सोशल मीडिया का दायरा युवाओं को जुड़ने का नया माध्यम उपलब्ध होगा और वैश्विक खपत में भारत बड़ा हिस्सेदार बन जाएगा । आज के नौजवानों को अगर हम समय के अनुसार ढालेंगे तो इसका असर आगे चलकर काफी अच्छा होगा । खासकर उनकी आदतें वैसी नहीं होंगी जैसी पश्चिम के युवाओं की है और वह ज्यादा सृजनशील हो सकेंगे । जब तक हम इसे नहीं ठीक से समझेंगे तब तक जलवायु परिवर्तन और सतत विकास के लक्ष्यों को हासिल नहीं कर सकेंगे।

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