अभिजीत बनर्जी को अर्थशास्त्र में इस वर्ष का नोबेल पुरस्कार दिया गया। लेकिन उनकी विधि की तीव्र आलोचना हो रही है। आखिर क्यों? इसका क्या कारण है? बनर्जी की विधि के बारे में पहला सवाल है कि क्या विकास मूलक अर्थशास्त्र और औषधि के संबंध में इंसानी आचरण समान होता है? नोबेल पुरस्कार विजेता अभिजीत बनर्जी ,एस्टर डुफ्लो तथा माइकल क्रैमर की विधि के मूल में यह प्रश्न शामिल है और यही कारण है कि अर्थशास्त्र में उनकी विधि की आलोचना हो रही है। वैसे अगर शास्त्रीय रूप से देखें तो महज 2 वर्षों में इनकी विकास मूलक अर्थव्यवस्था ने रूप बदल दिया है। खास करके शोध के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार कमेटी ने अपनी प्रशस्ति में कहा है कि "इनकी विधि विकास मूलक अर्थशास्त्र पर हावी हो रही है।" कमेटी ने पॉपुलर साइंस बैकग्राउंड के उदाहरणों को भी अपनी बात में शामिल किया है।
इस विधि में जो सबसे महत्वपूर्ण है वह है "रेंडमाइज कंट्रोल्ड ट्रायल्स" अथवा आरसीटी। औषधि के क्षेत्र में नई दवा के असर को जानने के लिए इस तरह की विधि स्वीकृत है। इस तरह की विधि में दो तरह के लोगों के समूह को उपयोग में लाया जाता है। एक समूह जो दवा का इस्तेमाल कर रहा है और दूसरा जो नहीं कर रहा है। अब दवा के इस्तेमाल के बाद दोनों में क्या अंतर आया इसका अध्ययन किया जाता है अभिजीत बनर्जी ने अर्थशास्त्र के क्षेत्र में इसी विधि को अपनाया है। कई क्षेत्रों में इसकी प्रशंसा की गई है। लेकिन प्रश्न उठता है यदि यह आदर्श है तो इसकी आलोचना क्यों हो रही है? यहां जो सबसे महत्वपूर्ण है वह है कि अभिजीत बनर्जी की विधि में गरीबी को बातचीत के स्तर पर लाया गया है और जिसे समाप्त करने के लिए खास व्यक्ति या समूह के आचरण में परिवर्तन को आधार बनाया गया है। पहली दृष्टि में यह विचार तर्कसंगत लग सकता है। लेकिन इस विचार में जो कमी है वह है कि यह व्यापक माइक्रो इकोनॉमिक्स राजनीतिक और इंस्टीट्यूशनल उत्प्रेरण को नजरअंदाज करता है। क्योंकि मनुष्य एक अत्यंत जटिल आचरण की इकाई होता है। यही कारण है कुछ विद्वानों ने इस विधि को सिरे से नकार दिया है । अर्थशास्त्री पारवा सियाल और कैरोलिना अल्वेस ने गार्जियन में अपने लेख में लिखा है की गरीबी मिटाना बहुत ही जटिल कार्य है। क्योंकि इसका एक सिरा संस्थानों, स्वास्थ्य ,शासन से मिलता है तो दूसरा सिरा सामाजिक बनावट तथा बाजार के डायनामिक्स से मिलता है। इसके बीच में सामाजिक वर्ग के क्रियाकलाप, माइक्रो इकोनॉमिक्स पॉलिसी, वितरण तथा अन्य मामले भी जुड़े रहते हैं। इतनी विसंगतियों को किसी एक विधि से विकसित कर पाना संभव नहीं है । अब जैसे गरीबी की व्याख्या लें तो इसका विश्लेषण प्रक्रिया की परीक्षा और उस समूह में शामिल लोगों पर निर्भर है। अब इनको कैसे नियंत्रित किया जाए। आरसीटी में इसका कोई समाधान नहीं बताया गया है। यही नहीं , जिस आबादी का परीक्षण होता है वह अक्सर व्यापक तथा मशहूर होती है। एक अन्य नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री अंगस डेटन का मानना है कि एक ही उपचार जो एक व्यवस्था में कारगर है वह दूसरे ने भी होगा ऐसा सोचना बिल्कुल सही नहीं है। एक की विधि को दूसरे समाज तक पहुंचाना बिल्कुल असंभव है।
भारत में चुनाव के लगभग 3 महीने पहले अभिजीत बनर्जी ने भारतीय मतदाताओं के आचरण के बारे में लिखा था। ऐसे मामले आर्थिक हितों से नियंत्रित होते हैं और उसके बाद जाति और संस्कृति की प्राथमिकता आती है। उनके इस आलेख में स्पष्ट रूप से 1962 और 2014 के बीच मतदाताओं के आचरण में फर्क दिखाई पड़ता है। 2019 के चुनाव में यह स्पष्ट हो गया की मतदाताओं ने आर्थिक प्राथमिकताओं पर वोट नहीं डाले हैं बल्कि उन्होंने शौचालय तथा पक्का घर या फिर बालाकोट जैसे मामले को दिमाग में रखकर वोट डाले हैं। उन्हें किसी प्रकार के आंकड़े की जरूरत नहीं है। यहीं आकर अभिजीत बनर्जी की विधि व्यवहारिक नहीं रह जाती है तथा आलोचना का विषय बन जाती है।
Friday, October 18, 2019
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