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Sunday, October 20, 2019

सोनिया राहुल की कांग्रेस दुविधा में है

सोनिया राहुल की कांग्रेस दुविधा में है

वीर सावरकर को लेकर कांग्रेस भ्रमित है और उसकी इस दुविधा से एक बार फिर कांग्रेस के मन में राष्ट्रवाद के प्रति आस्था पर संदेह प्रकट हो रहा है। उसे इंदिरा जी से राजनीति की सीख लेनी चाहिए सावरकर को भारत रत्न दिए जाने की भाजपा की कोशिशों के प्रति जो विवाद पैदा हुआ है उसमें सबसे महत्वपूर्ण है कि इसने कैसे कांग्रेस को बदहवास कर दिया है। कांग्रेस खेमे से वीर सावरकर पर कई आरोप लगाए गए हैं । जिनमें यह भी है कि वह महात्मा गांधी की हत्या के षड्यंत्र कारी थे। कांग्रेस ने वीर सावरकर को पूर्णतः खारिज कर दिया है। कांग्रेस खेमे से इस मामले में सबसे संयमित टिप्पणी मनमोहन सिंह की है। जिसमें उन्होंने कहा है कि हम सावरकर जी का सम्मान करते हैं लेकिन उनकी विचारधारा से सहमत नहीं हैं। यानी कुल मिलाकर कांग्रेस का इस मामले में कोई औपचारिक रूप स्पष्ट नहीं है । जबकि आज महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव हो रहा है। सत्ता के संदर्भ में भी सोचें तो कांग्रेस के खेमे से सबसे समझदारी भरा बयान मनमोहन सिंह का है और जब उसे मनमोहन सिंह ने यह कहा है तब से कांग्रेस बयान से दूरी बनाने लगी है।इस काम के लिए कांग्रेस ने अपने प्रवक्ता रणदीप सिंह सुरजेवाला को नियुक्त किया है। मनमोहन सिंह के बयान को अगर मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से परखे तो उसमें हताशा और दयनीयता साफ दिखाई पड़ेगी। उस बयान में कोई कुतर्क नहीं था और ना ही कोई अस्पष्टता।  खास करके ऐसे मौकों में जब सावरकर के प्रशंसकों ने इंदिरा गांधी द्वारा 1970 में जारी की गई डाक टिकट और उनके बारे में बोले गए कुछ शब्दों की प्रतियां निकालनी शुरू की तो यह भी कहा जा रहा था कि इंदिरा जी ने वीर सावरकर पर एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म लो अनुमति दी थी साथ ही सावरकर निधि में उस समय ₹11000 दिए थे जो आज के मूल्य में 5 लाख के बराबर हैं। ऐसे में कांग्रेसी अपने मौजूदा रुख का उन के रुख से तालमेल कैसे बिठाते? इंदिरा गांधी की नीतियों से कांग्रेस को किनारा करना मुश्किल है। इसलिए कांग्रेस पार्टी में पुरानी शैली की धर्मनिरपेक्षता वापस लाने की मांग उठ रही है। इंदिरा गांधी किसी बात पर नरम नहीं थी और इस बात के सबूत इतिहास और भूगोल में बिखरे पड़े हैं। भूगोल में कहें तो पूर्वी पाकिस्तान को दो टुकड़े कर देना है और यदि इतिहास में कहें तो आपातकाल। सबके सामने है इंदिरा जी का यह रुख वर्तमान संदर्भ में कांग्रेस द्वारा दोहराए जाने की जरूरत है। सबसे बड़ी बात है इंदिरा जी सारी स्थितियों से ऊपर राजनीति को अधिक महत्व देती थीं। इस बात को पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता कि आर एस एस और तत्कालीन जनसंघ से बुरी तरह चिढ़ने वाली इंदिरा जी ने सावरकर के बारे में ऐसा क्यों कहा या किया ?अगर इंदिरा जी के मनोविज्ञान को जो भी कोई थोड़ा समझता है तो यह समझने में देर नहीं लगेगी इंदिरा जी किसी भी ऐसे व्यक्ति को दूसरी जगह या दूसरी पार्टी के पाले में नहीं जाने देना चाहती थीं जो किसी भी तरह से स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ा हो। हालांकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर को सदा आरोप लगाती थी यह संगठन अंग्रेजों से मिला हुआ था।
         सावरकर के बारे में कोई भी चाहे जो कहे लेकिन यह तो माना ही जा सकता था पीआरएसएस की जमात में सावरकर। ही ऐसे प्रगल्भ नेता थे जिन्हें स्वतंत्रता आंदोलन के नायकों की कतार में खड़ा किया जा सकता था और संभवत इंदिरा जी ऐसा होने नहीं देना चाहती थीं।  आज ठीक वही रवैया मोदी और शाह की सरकार में अपनाया जा रहा है । वह किसी भी तरह से कांग्रेस पार्टी के ऐतिहासिक विभूतियों को राष्ट्रहित में काम करते हुए नहीं दिखाना चाहते ।आज संघ और भाजपा एक बड़ी समस्या का मुकाबला कर रहे हैं। भगत सिंह और सुभाष चंद्र बोस जैसी गैर कांग्रेसी विभूतियां भी उनकी विचारधारा से दूर थी। यही कारण है कि संघ और भाजपा अपने मॉडल में कांग्रेस के विभूतियों का आयात करने क्यों उतावले में है । गांधी नेहरू खानदान के अलावा वे किसी को भी अपनाने के लिए तैयार हैं। पटेल पहले  से ही उनके साथ हैं और वे पटेल को नेहरू से भी बड़े भारतीय गणतंत्र के संस्थापक के रूप में स्थापित करना चाहते हैं । वे इस बात को ऐतिहासिक संदर्भों से मिटा देना चाहते हैं कि पटेल आर एस एस के प्रशंसकों में से नहीं थे और गांधी की हत्या के बाद उन्होंने ही संघ पर पाबंदियां लगाई थी। पटेल के संघ विरोधी रुख के पक्ष में कई दस्तावेज उपलब्ध है लेकिन इसलिए कि  नेहरू से उनके गंभीर मतभेद थे। इसलिए सबसे पहले भाजपा  पटेल को अपने खेमे में ले आई । लेकिन अब जमाना बदल चुका है सोनिया राहुल की कांग्रेस  बदले हुए वक्त का कैसे मुकाबला करती है यह किसी को मालूम नहीं है । क्योंकि उन्हें खुद इस युद्ध का ओर छोर का पता नहीं । उन्हें नहीं मालूम है कि अयोध्या पर क्या करें, सबरीमाला पर क्या करें या तीन तलाक पर क्या प्रतिक्रिया दें। यही कारण है वे दुविधा में दिखाई पड़ रहे हैं। मनमोहन सिंह जैसे गैर पेशेवर राजनीतिज्ञ इस बारीकी को समझते हैं लेकिन सावन की अंधी कांग्रेस पार्टी में मनमोहन सिंह की पूछ क्या है?


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