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Friday, October 18, 2019

इतिहास का पुनर्लेखन

इतिहास का पुनर्लेखन

इतिहास सदा से समय सापेक्ष रहा है यह कभी निरपेक्ष नहीं रह सकता और वैचारिक दृष्टिकोण से इसमें  लेखन काल के  विचारों का आधार होता है चाहे वह गीता  या मानस की व्याख्या हो अथवा भारतीय स्वतंत्रता का संघर्ष हो । भारत का आधुनिक इतिहास लेखन जब आरंभ हुआ तो उस समय वैचारिक दृष्टि से सारे लेखक कम्युनिज्म से प्रभावित थे या फिर शासन के विचारों से आबद्ध थे। गुरुवार को गृह मंत्री अमित शाह ने सावरकर का संदर्भ उठाते हुए कहा  कि आधुनिक दृष्टिकोण से और विचारों से इतिहास का पुनर्लेखन हो। यह कोई नई बात नहीं है। शासन अपने आदर्शों के अनुरूप इतिहास की दिशा तय करता है। अमित शाह ने कहा कि सावरकर हिंदू राष्ट्र के तरफदार थे और आधुनिक शासन के नजरिए से सावरकर के विचारों की व्याख्या की जानी आवश्यक है। देसी इतिहासकारों को सामने आना चाहिए तथा इसमें अपनी भूमिका का निर्वाह करना चाहिए।
   शाह  के इस कथन में स्पष्ट रूप में यह दिखता है कि हमारे इतिहासकारों में इतिहास की दुबारा व्याख्या करने में हिचकिचाहट है। वर्तमान शासन का मानना है कि अगर सावरकर नहीं होते तो 1857 का इतिहास कुछ दूसरा होता लेकिन उन्हें पृष्ठभूमि में रखा गया है । अमित शाह ने इसी को मसला बनाकर कहा कि आधुनिक इतिहासकारों को सिपाही विद्रोह में सावरकर के विचारों की भूमिका और उनकी हैसियत के बारे में शोध करना चाहिए। यही नहीं ,शोध की वह प्रक्रिया आधुनिक विचारों तथा आदर्शों पर आधारित होनी चाहिए । सावरकर ने 18 57 पर लिखी अपनी पुस्तक में उसे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का प्रारंभ बताया है। सावरकर को महात्मा गांधी की हत्या के षड्यंत्र के आरोप में 1948 में गिरफ्तार किया गया था , लेकिन सबूतों के अभाव में उन्हें रिहा कर दिया गया। भाजपा ने उन्हें सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से सम्मानित करने की कोशिश आरंभ कर दी है। जहां तक इतिहास को दोबारा लिखे जाने का प्रश्न है तो कई मामलों में यह उचित भी लग रहा है। क्योंकि भारतीय इतिहास दिल्ली या बहुत ज्यादा हुआ तो उत्तरी भारत को सामने रखकर लिखा गया है। मानो अन्य प्रांत हैं ही नहीं । हमारे देश में, उदाहरण के लिए ,भारतीय छात्रों को सातवाहन, विजयनगर और चोल साम्राज्य के बारे में या तो मालूम नहीं होगा या मालूम भी होगा तो बहुत कम मालूम होगा। यही नहीं औसत उत्तर भारतीय छात्र अहोम राजाओं के बारे में या तो बिल्कुल शून्य होगा अथवा बहुत मामूली जानकारी होगी। जबकि इन राजाओ ने 600 वर्षों तक शासन किया। यहां तक कि मुगलों को भी पराजित कर दिया था। इस असंतुलन को ठीक किया जाना जरूरी है। इतिहास केवल राज्यों के उठने गिरने की कहानी नहीं है। इसमें समाज की तत्कालीन धारा को बदलने के विभिन्न कारक तत्वों का विश्लेषण भी आवश्यक है । उदाहरण के लिए भारतीय इतिहास का छात्र कभी भी भारत के सामुद्रिक व्यापार के बारे में नहीं पढ़ता होगा।    चोल साम्राज्य के दुश्मनों ने दक्षिण पूर्व एशिया से उन पर हमला किया था। हमारे   भारतीय रोमन व्यापार के बारे में या प्राचीन उड़िया व्यापारियों के शोषण के बारे में बहुत कम पढ़ा होगा । दक्षिण पूर्वी एशिया पर भारतीय सभ्यता के प्रभाव के बारे में भी उन्हें कम जानकारी होगी। भारतीय विज्ञान का असाधारण इतिहास भी उसी तरह नजरअंदाज किया गया है। इस बात के कई सबूत हैं कि प्राचीन भारत मैं औषधि विज्ञान ,गणित और धातु विज्ञान के बारे में बहुत जानकारी थी लेकिन हमारे इतिहास के पाठ्य पुस्तकों में इसका जिक्र नहीं हुआ है । कई बार यह जानकर आश्चर्य होता है कि भारतीय  इतिहास की बहुत मशहूर घटनाएं या चरित्र की समीक्षा बहुत ही मामूली तथ्य के आलोक में की गई है। उदाहरण के लिए अशोक कलिंग युद्ध के बाद शांति के पुजारी हो गए थे लेकिन अशोक वंदना में जैन धर्म के अनुयायियों व्यापक हत्या का जिक्र है। अशोक के महान बनने के बाद भी उनका साम्राज्य क्षय होने लगा था। यहां तक कि कलिंग युद्ध पर उनका अफसोस जाहिर करना कुछ इस तरह वर्णित है कि  लगता है कुछ प्रचारित किया जा रहा है।
       दरअसल सदियों से हमारे यहां विदेशी मूल के विचारों और आदर्शों को स्थापित किया गया। इसमें उनके खानपान रहन-सहन और अभियांत्रिकी भी शामिल है। मसलन पुर्तगाली नहीं आए होते तो मिर्च और और टमाटर के बगैर हमारी जिंदगी कैसी होती या क्रिकेट और रेल अंग्रेजों ने हमें दिया, ताजमहल को एक तुर्क मंगोल राजा ने बनवाया  हालांकि यह भी सही है इन्हीं आक्रांताओं ने हमले और अकाल में हजारों लोगों को मारा। भारतीय छात्रों को अच्छा और बुरा दोनों के बारे में बताया जाना चाहिए।
              बेशक भारतीय इतिहास को दोबारा देखे जाने की जरूरत है। हो सकता है, विपक्षी दल कह सकता है कि  दक्षिणपंथी विचारों को इसमें जगह देने के लिए सरकार यह सब कर रही है। लेकिन, यह कोई बहाना नहीं है। औपनिवेशिक तथा मार्क्सवादी इतिहासकारों के पक्षपात पूर्ण विचारों से बेहतर है हमारा अपना एक इतिहास हो जिसने हमारी अपनी सोच हो। यह भी कहा जाता है कि भारतीय इतिहासकार वास्तविकता में अपने विचारों को मिला देते हैं। यह कोई नई बात नहीं है। ऐसा सब जगह होता है। दुनिया के हर भाग में इतिहास लेखन में यह दोष दिखाई पड़ता है, क्योंकि इतिहास का लेखन एक उद्देश्य के साथ होता है।
           


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