पिछले कुछ महीनों से शायद ही कोई ऐसा दिन होता हो जब दुनिया के किसी न किसी देश में प्रदर्शन ना होते हों और उसके दौरान हिंसा या तोड़फोड़ नहीं होते हों। यह सब उन देशों में होता है जहां स्थापित लोकतंत्र है। 2018 की अक्टूबर में फ्रांस में पीले जैकेट पहनकर प्रदर्शन शुरू हुए। वहां पीले जैकेट एक तरह से इस बात के बिंब थे कि उस देश में जीवन यापन महंगा होता जा रहा है और तेल की कीमतें बढ़ती जा रही हैं। कुछ प्रदर्शनों के दौरान सड़कें अवरुद्ध कर दी जाती थीं। जो इस बात का संकेत था कि निम्न वर्ग और मध्यवर्ग सरकार के सुधार का विरोध कर रहा है । हर रविवार को प्रदर्शन होता था। जिसमें मांग की जाती थी कि राष्ट्रपति मैक्रों और उनकी सरकार इस्तीफा दें। यह कई महीने चला । हाल में लेबनान की सड़कों पर भी प्रदर्शन हुए। यहां भी कई जगह तोड़फोड़ हुए और प्रदर्शन करने वाले सरकार के इस्तीफे की मांग कर रहे थे । वहां के लोग खाद्यान्न की बढ़ती कीमतों और महंगाई, भ्रष्टाचार और बुनियादी वस्तुओं की आपूर्ति में कमी से नाराज थे। इन्हीं मसलों के कारण इराक में भी प्रदर्शन हुए और कई जगहों पर हिंसा हुई। जिसमें कई लोग मारे गए। इसी तरह के प्रदर्शन अर्जेंटीना से चिली तक फैल रहे हैं। बेशक कैटेलोनिया का मामला अलग है । यहां स्पेन से आजादी की मांग को लेकर प्रदर्शन हो रहे हैं। बर्सिलोना में प्रदर्शन के कारण कई बार जीवन ठप हो गया था। इक्वाडोर में और बोलीविया में भी कई बार प्रदर्शन और हिंसक घटनाओं के कारण जीवन ठप हो गया। बोलीविया में तो प्रदर्शन केवल इसलिए हुए कि वहां राष्ट्रपति इवो मोराल्स पर चुनाव धांधली करने का आरोप था। सभी देशों में एक बात समान थी वह कि सब जगह स्थापित लोकतंत्र व्यावस्था थी।
ऐसे में विश्लेषकों, बुद्धिजीवियों तथा राजनीतिज्ञों का यह फर्ज बनता है कि दुनिया के विभिन्न देशों में लोकतंत्र में जो कमियां उत्पन्न हो गईं हैं उनके प्रति आम जनता को बताएं । लगभग सभी देशों में परिलक्षित हो रहा है कि नेताओं और जनता की अपेक्षाओं में संबंध विघटित हो रहे हैं। बुद्मजीवी वर्ग भी वक्त की ज़रूरतों तथा लोगों की अपेक्षाओं को पूरा के लिए राजनीति के स्वरूप क्या हो इस तथ्य को समझने में कामयाब नहीं हो पा रहा है। दुख तो इस बात को लेकर भी है कि सत्ता पक्ष और विपक्ष में जनकल्याण को लेकर दूरियां बढ़ती जा रहीं हैं। यहां तक कि नीतियों और निर्णयों को निर्देशित करने वाले द्विपक्षीय सम्बन्ध भी खत्म हो गए से प्रतीत हो रहे हैं। जो लोग सत्ता में हैं वह विपक्ष का दमन करने में लगे हैं। विपक्ष भी समझता है कि बस उसकी जिम्मेदारी केवल सत्ता पक्ष के हर फैसले का विरोध करना है। अब इस प्रवृत्ति से ऐसा महसूस हो रहा है कि निर्वाचित प्रतिनिधि सBVव्व जिस पक्ष के भी हो जनता से दूर है उनसे उनका कोई संबंध नहीं है इसके फलस्वरूप जनता में क्रोध और कुंठा बढ़ती जा रही है और यह क्रोध और कुंठा तरह तरह के प्रदर्शनों आंदोलनों और हिंसक घटनाओं में बिम्बित हो रही है जनता को यह भी महसूस हो रहा है कि उनके अधिकार छीने जा रहे हैं घोर पूंजीवाद का विकास और उसमें सत्ता पक्ष की गुटबाजी के कारण जनता के लिए आवंटित संसाधनों का दूसरी तरफ चला जाना आम जनता में अपने हक को मारे जाने जैसा महसूस होता है । इससे गुस्सा और बढ़ता है। हाल में मौसम परिवर्तन को लेकर ग्रेटर थुन बर्ग द्वारा किए गए आंदोलन ने सब जगह प्रशंसा पाई। खनिज तेल उसके आंदोलन के चार्टर में था लेकिन अभी भी खनिज तेल ही सबसे सुलभ इंधन है। इसे रोके जाने की कोई व्यवस्था सरकारों की तरफ से नहीं दिखाई पड़ रही है। विश्व बैंक के एक अध्ययन के मुताबिक इस खनिज तेल पर 2017 में जितनी सब्सिडी दी गई है वह दुनिया भर के जीडीपी के 6.5% है जबकि यह राशि 2015 में 6.3% थी। यानी खनिज तेल पर सरकारी सब्सिडी क्रमानुसार बढ़ती जा रही है और यह सब्सिडी की रकम आम जनता के कल्याण की योजनाओं के लिए संग्रहित रकम में कटौती करके एकत्र की गई है। यही नहीं खनिज तेल से हवा में होने वाले प्रदूषण के कारण मरने वालों की संख्या भी तेजी से बढ़ रही है। पर्यावरण प्रदूषण के कारण होने वाली गड़बड़ियों के प्रति पिछले कई वर्षों से लोगों को बताया जा रहा है लेकिन इससे कोई लाभ नहीं हो रहा है। क्योंकि, आम जनता को यह जब तक मालूम पड़ता है तब वह पिछली बात भूल जाते हैं इससे स्वार्थी तत्वों को लाभ मिलता है वह आय और संपत्ति के अनुपात को असंतुलित कर देता है।
वर्तमान समस्या यह है कि नेता चाहे वो जिस भी दल के हों वह खुद को विकल्प के रूप में देख रहे हैं और यह चिंतन खतरनाक हो सकता है तथा नई समस्याओं को जन्म दे सकता है । गांधीजी का मानना था कि पूंजी खुद में कोई गलत चीज नहीं है लेकिन पूंजी का गलत कामों के लिए प्रयोग किया जाना ही सबसे बड़ी समस्या है । जो लोग साम्यवाद या अति समाजवाद की शिक्षा देते हैं उन्हें यह समझना चाहिए अतीत में यह असफल हो चुका है ,अब दुबारा इससे चालू करने आवश्यकता क्या है ? दुनिया भर में मंदी फैल रही है और हो सकता आने वाले दिनों में आंदोलन और बढ़े जिससे हमारी संस्थाओं और लोकतंत्र को हानि पहुंचे। सरकार और राजनीतिक दलों को इसके प्रति न केवल सावधान रहना चाहिए बल्कि इस स्थिति को सुधारने का प्रयास करना चाहिए।
Wednesday, October 30, 2019
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
0 comments:
Post a Comment