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Tuesday, October 15, 2019

अमर्त्य के बाद अभिजीत

अमर्त्य के बाद अभिजीत

अभिजीत मुखर्जी को 2019 का अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार मिला। यह हमारे देश के लिए गौरव की बात है। साथ ही ,हमारे शहर कोलकाता के लिए भी। कोलकाता से जुड़े अभिजीत छठे व्यक्ति हैं जिन्हें यह  गौरवशाली पुरस्कार प्राप्त हुआ है। अभिजीत के पहले रोलैण्ड रॉस को औषधि विज्ञान में , 1913 में रविंद्र नाथ टैगोर ,1930 में सर सी वी रमन को भौतिक शास्त्र में, 1979 में मदर टेरेसा को और 1998 में प्रोफेसर अमर्त्य सेन को अर्थशास्त्र का ही नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ था।
           देश के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई ने कोलकाता की गरीबी को रेखांकित करते हुए लिखा था:
     कोलकाता के फुटपाथों  पर जो आंधी-पानी सहते हैं
   उनसे पूछो 15 अगस्त के बारे में क्या कहते हैं
       अभिजीत बनर्जी के मन में  कुछ ऐसा ही सवाल उठता रहा। उनका मानना है कि जिस स्थिति में आप रहते हैं और बड़े होते हैं वही तय करता है या आपकी दिलचस्पी क्या होगी। अगर आप 1980 के दशक में लैटिन अमेरिका में पैदा हुए होते तो आप  अर्थ शास्त्री हो गए रहते। क्योंकि, आपकी दिलचस्पी होती है। अर्थव्यवस्था कैसे संकट में पड़ती है और अगर आप कोलकाता में पैदा लिए हैं तो आप  जान लेंगे क्या होती है यह गरीबी और गरीब लोग क्या हैं तथा गरीबी कैसे मिटाई जा सकती है।
अभिजीत कोलकाता में जहां रहते थे वहां पास में ही है स्लम था । वहां के बच्चे गरीबी के कारण स्कूल नहीं जा पाते थे और अभिजीत उन बच्चों के साथ खेलते थे। उनके मन में यह बात थी  कि वे गरीब क्यों है और उनके स्कूल नहीं जाने की वजह क्या है। क्यों पूरे दिन खेलते रहते हैं। यही सवाल था कि  वे गरीब क्यों है इसका उत्तर ढूंढते -ढूंढते अभिजीत नोबेल तक पहुंच गए। अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार पाने वाला यह अभिजीत विनायक बनर्जी बचपन में फिजिक्स पढ़ना चाहता था। बाद में उन्होंने स्टैटिक्स चुना। लेकिन इसमें भी नहीं टिक पाए और प्रेसिडेंसी में अर्थशास्त्र में एडमिशन ले लिया।
यहां एक प्रमुख तथ्य है कि जब कोई यह कहता है फलां आदमी गरीब है तो गरीबी के बारे में अर्थशास्त्र कैसे सोचता है। यकीनन वह पैसे के  बारे में सोचता है भोजन के बारे में नहीं। ऐसा मानना अथवा इस तरह का उत्तर विश्लेषणात्मक नहीं है । लेकिन अर्थशास्त्र के मुताबिक जब कोई गरीब होता है तो उसका व्यवहार कैसा होता है इसकी व्याख्या की जाती है।   यह समझना  महत्वपूर्ण होगा कि एक ही तरह के गरीब लोग अलग-अलग आचरण क्यों करते हैं? उनमें एक ही तरह का व्यवहार क्यों नहीं होता ? यानी  गरीबों और गरीबी को समझना ही अर्थशास्त्र के लिए आवश्यक है। अभिजीत बनर्जी और उनके दो साथियों ने जो कुछ भी किया वह इसी मुद्दे पर  किया। उन्होंने इस गरीबी को दूर करने के लिए किए गए प्रयासों के प्रभाव का अध्ययन किया। एक बड़ा दिलचस्प वाकया इस सिलसिले में हमें अक्सर देखने को मिलता है। जैसे हमारे देश में टीकाकरण मुफ्त है लेकिन महिलाएं  अपने बच्चों को लेकर टीकाकरण के अंदर तक नहीं जाती। बीच में किसी संस्था ने पल्स पोलियो की टीका के साथ एक एक बैग देना आरंभ किया तो टीकाकरण केंद्र पर बच्चों को टीका लगवाने वाली महिलाओं की भीड़ लग गई । अभिजीत बनर्जी और उनकी पत्नी डिफ्लो ने भी कुछ ऐसा ही प्रयोग मुंबई और बड़ोदरा में किया। वहां स्लम्स के कुछ इलाकों में पाठ्य पुस्तकें मुफ्त मिलती थीं। लेकिन ना कोई लेने जाता था ना कोई पढ़ने जाता था।  जैसे ही यह घोषणा की गई कि पाठ्य पुस्तकों के सेट के साथ कुछ और दिया जाएगा बच्चे स्कूलों में जाने लगे। संभवत ऐसा ही प्रयोग पश्चिम बंगाल में कन्या शिक्षा  को बढ़ावा देने के उद्देश्य कन्याश्री  के नाम से किया गया है। इसका स्पष्ट अर्थ है कि विद्यालयों में छात्र पढ़ने की अपनी जरूरतों के लिए  नहीं जाते बल्कि अगर उसके "साथ और सहयोग" मिले तब वे विद्यालय जाएंगे । यही कारण है कि   भारत सहित सारी दुनिया की सरकारें सामाजिक योजनाओं पर ज्यादा खर्च कर रही हैं।
   मुखर्जी और डिफ्लो के इस शोध से नीति निर्माताओं को लोगों की पसंद को नियंत्रित और निर्देशित करने के लिए जो प्रेरक तत्व आवश्यक हैं उनको समझने में मदद मिलेगी। क्योंकि नीति का प्रकल्प सफलता और असफलता के अंतर को बताता है। इसीलिए इसे विकास का अर्थशास्त्र कहा जा रहा है।
       भारत के बारे में अभिजीत बनर्जी का मानना है यहां के लोग गरीबी के कारण उपभोग में कटौती कर रहे हैं और इसके कारण अर्थव्यवस्था में गिरावट आ रही है तथा यह गिरावट जिस तरह से जारी है उससे लगता है इसे नियंत्रित नहीं किया जा सकता है। उन्होंने कहा भारत में एक बहस चल रही है कौन सा आंकड़ा सही है । पर सरकार का विशेष तौर पर यह मानना है कि वे सभी आंकड़े गलत हैं जो असुविधाजनक हैं।  लेकिन अब  सरकार यह मानने लगी है की कुछ समस्या तो है और अर्थव्यवस्था बहुत तीव्रता से धीमी हो रही है।  अभिजीत बनर्जी का मानना है यह बहुत तेजी से गिर रही है। उनका मानना है कि फिलहाल मौद्रिक स्थिरता के बारे में न सोच कर मांग के बारे में थोड़ा सोचना जरूरी है। अर्थव्यवस्था में मांग एक बहुत बड़ी समस्या है। अभिजीत बनर्जी उन खास अर्थशास्त्रियों में शामिल थे जिन्होंने नोटबंदी के फैसले का विरोध किया था । नोटबंदी से प्रारंभ में जितने नुकसान का अंदाजा लगाया गया था वह उससे भी कहीं ज्यादा था अभिजीत बनर्जी ने भारत की अर्थव्यवस्था की जमीनी स्तर पड़ताल कर उन्हें लोगों के सामने प्रस्तुत करने का प्रयास किया है।  साथ में ही उन्होंने उस संदर्भ में विभिन्न समाज और देशों की गरीबी की भी शिनाख्त करने का एक नया नजरिया पेश किया है।


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