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Sunday, October 27, 2019

पुलिस और हमारा समाज

पुलिस और हमारा समाज 

अभी हाल में राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो कि रपट आई थी जिसमें तरह-तरह के अपराध आंकड़े और उनकी कोटियां संग्रहित हैं। समाजशास्त्र से लेकर अपराध शास्त्र  तक आंकड़ों की मदद से समाज व्यवस्था और शासन के विभिन्न पहलुओं का विश्लेषण करते हैं। विख्यात अपराध शास्त्री एडविन सदरलैंड ने अपराध की व्याख्या करते हुए कहा है कि अपराध और अपराधी को समझने के लिए पुलिस की व्यवस्था के मनोविज्ञान  और  उनके अंदर  पलट रही  भावनाओं को समझना सबसे ज्यादा जरूरी है।  अगर पुलिस और अपराध शास्त्री मिलकर काम करें तो समाज में अपराध पर प्रभावी रोकथाम हो सकती है।
       शोध इत्यादि के लिए जो नमूने तथा पृष्ठभूमि दी जाती है उसमें सबसे ज्यादा जोर पुलिस के चरित्र पर होता है। लेकिन सरकार और जनता के बीच सबसे पहली कड़ी पुलिस व्यवस्था को अगर निकट से देखें तो समझ में आएगा कि पुलिस की मजबूरियां क्या है और अपराध के समग्र नियंत्रण के लिए क्या-क्या जरूरी है। कोलकाता पुलिस के पूर्व पुलिस आयुक्त निरुपम सोम ने एक बार एक मुलाकात में कहा था कि छोटे-छोटे अपराध हमारे शहर में संपूर्ण अपराध रोकथाम के लिए सेफ्टी वाल्व का काम करते हैं।  नौजवान आईपीएस अफसरों और  छोटे स्तर  के अफसरों से अक्सर मुलाकात होती है। पुलिस में आने का मुख्य कारण वे वर्दी पहनने की दीवानगी बताते हैं। अभी हाल में एक फिल्म आई थी सिंघम। उसने पुलिस की जो भूमिका दिखाई गई थी और पुलिस फोर्स को जिस तरह काम करते दिखाया गया था वैसा हकीकत में कुछ नहीं होता। दरअसल, पुलिस को बहुत ज्यादा काम करना होता है और वो अक्सर तनाव में रहते हैं। इसके अलावा उसे कई तरह के बाहरी दबावों को झेलना पड़ता है। यही नहीं पुलिस व्यवस्था के भीतर की खामियों को भी उन्हें उजागर करने की अनुमति नहीं है। लंबे काम के घंटे और कम छुट्टियां उनसे जिंदगी का हिस्सा  है। स्टेट ऑफ पुलिसिंग इन इंडिया रिपोर्ट 2019 में साफ कहा गया है इस देश के लगभग एक चौथाई पुलिस गर्मी 16 घंटे से ज्यादा काम करते हैं 44% से ज्यादा पुलिसकर्मी 12 घंटे से अधिक काम करते हैं। औसतन उन्हें एक दिन में 14 घंटे काम करने होते हैं।
        कुछ दिनों पहले दिल्ली की संस्था कॉमन कॉज और लोक नीति सेंटर फॉर द स्टडी आफ डेवलपिंग सोसाइटीज ने एक अध्ययन में पाया है कि  73% पुलिसकर्मी काम के बोझ से दबे रहते हैं और उनके शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य पर इसका गंभीर असर पड़ता है। वे अपने बच्चों को पुलिस में भर्ती नहीं होने देना चाहते। बेशक बड़े पुलिस अफसरों को सुविधाएं ज्यादा मिलती हैं लेकिन किसी को भी ओवर टाइम नहीं मिलता। यही नहीं, छुट्टियां भी बेहद कम मिलती हैं। अपराध नियंत्रण जिस देश में एक प्रमुख समस्या है उस देश के ब्यूरो ऑफ पुलिस रिसर्च एंड डेवलपमेंट एक रिपोर्ट में  कहा गया है कि जनवरी 2017 में कम से कम 22 प्रतिशत पुलिस के पद खाली थे। यह रिक्ति 2016 के बाद भरे गए पदों के पश्चात हुई है। आंकड़े बताते हैं कि 2011 से 2016 के बीच हमारे देश में पुलिस फोर्स में खाली पदों की संख्या लगभग 25.4% थी और पुलिस तथा जनसंख्या का अनुपात प्रति एक लाख लोगों में 148 का था। जबकि राष्ट्र संघ की सिफारिश के मुताबिक आदर्श संख्या 222 है । 7 अक्टूबर 2019 को जारी एक रिपोर्ट में कहा गया है कि 29.7% पुलिस अफसरों के   पास आधिकारिक आवास नहीं है। ऐसी दयनीय अवस्था में हम पुलिस वालों से सहयोग तथा ईमानदारी की कल्पना करते हैं तो यह कल्पना बेहद अव्यवहारिक है।
हमारे समाज में बढ़ते तरह-तरह के अपराध का एक अंधियारा पक्ष यह भी है कि हमारी पुलिस उन अपराधों के  रोकथाम में ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिखाती और नए नए तरह के अपराध बढ़ते जा रहे हैं अपराध के रोकथाम के लिए सबसे ज्यादा जरूरी है कि नियंत्रण व्यवस्था सुदृढ़ एवं सक्षम हो तथा उनके भीतर अपराध रोकने की भावना हो।


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