आज भी गांधी प्रासंगिक हैं
आज से बिल्कुल डेढ़ सौ साल पहले आज की ही तारीख को महात्मा गांधी का जन्म हुआ था। गांधी भारतीय उपमहाद्वीप के संदर्भ में अब तक के सबसे विवादास्पद व्यक्ति रहे। अलग-अलग विचारधाराओं के लोग उनके स्वभाव और चरित्र की अलग-अलग व्याख्या करते रहे हैं। हर काल में समसामयिक परिस्थितियों और उपलब्ध सामग्रियों के आधार पर गांधी के चरित्र की व्याख्या की जाती रही है। कोई भी गांधी के काल तक जाकर उनकी व्याख्या नहीं करता। यह गांधी के जीवन की सबसे बड़ी ट्रेजडी रही है। एक बार कोलकाता में साहित्य नोबेल पुरस्कार विजेता जर्मन लेखक गुंटर ग्रास ने बातचीत के दौरान कहा था "मानव सभ्यता में अरस्तु और बुद्ध के बाद मार्क्स और गांधी ही ऐसी शख्सियतें पैदा हुईं थी जिनके विचारों से कोई भी मतभेद रख सकता है लेकिन उनके वजूद को अपने अचेतन से नहीं निकाल सकता।"
विगत पांच सात वर्षों से गांधी को तरह-तरह से खारिज करने का एक अभियान चला हुआ है। कभी उनके बिंबो को अलग कर उसका अन्य संदर्भ में उपयोग होता है तो कभी उनके व्यक्तित्व को एक दूसरे नजरिए से देखा जाता है । लेकिन यहां भी गांधी हैं।
आज मॉब लिंचिंग का दौर चल पड़ा है। इतिहास की वीथियों में थोड़ी दूर जाकर अगर देखें तो कुछ ऐसी ही घटना का ब्यौरा मिल जाएगा। बात 13 जनवरी 1897 की है। बात दक्षिण अफ्रीकी शहर डरबन की है। अंग्रेजों की 6000 से ज्यादा की भीड़ ने महात्मा गांधी पर हमला कर दिया और उन्हें पीट-पीटकर मार डालने की कोशिश की । वह भी अपने नेता द्वारा उकसाई गई थी। पहले तो भीड़ ने गांधी पर पत्थर और सड़े हुए अंडे बरसाए और इसके बाद लोगों ने उन की पिटाई शुरू कर दी। तभी एक महिला ने बड़ी मुश्किल से उनकी जान बचाई । गांधीजी अपने मित्र पारसी रुस्तम जी के घर पहुंचे। तब हजारों की भीड़ गांधीजी को मांग रही थी। वे लोग घर में आग लगा देना चाहते थे। उस घर में करीब 20 लोगों की जान जान दांव पर थी। पुलिस ने उन्हें पुलिस की वर्दी पहना कर थाने पहुंचाया। पुलिस ने ही फिर एक हिंसक गाना गवाना शुरू कर दिया। बाद में जब उग्र भीड़ को इसकी जानकारी मिली कि गांधी तो निकल गए तो थोड़े खीझ कर वे वहां से चले गए। इस घटना में दो बातें गौर करने वाली हैं कि गांधी को बचाने वाले भी अंग्रेज थे और अंग्रेज पुलिस ऑफिसर भी उन्मत्त भीड़ की हिंसक मानसिकता को भांप कर उससे वह गाना गाने को कहा जिससे हिंसा बाहर निकल जाए। घटना की खबर 22 वर्ष के बाद 10 अप्रैल 1919 को भारत मे पता चली, और इसके बाद गांधी को गिरफ्तार कर लिया गया। अहमदाबाद से गांधी को गिरफ्तार किया जाने लगा तो शहर में दंगे हो गए। कई अंग्रेज घायल हुए। अगर इस घटना का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करें तो हिंसा और अहिंसा का संबंध किसी समुदाय विशेष से नहीं होता। गांधी ने 8 सितंबर 1920 को यंग इंडिया में एक लिखा था - "लोकशाही बनाम भीड़शाही।" उसमें जो लिखा था, आज भारत में लगभग यही स्थिति है। इन हालात से हमें छुटकारा नहीं मिल रहा है ना ही बदलाव हो रहा है। यही कारण है कि सरकार लोगों का ध्यान बांटने के लिए इस डेढ़ सौ वर्ष पर कई कार्यक्रम कर रही है। भीड़ को प्रशिक्षित करना सबसे आसान काम है। क्योंकि, भीड़ कभी विचारशील नहीं होती। वह आवेश के अतिरेक में कुछ भी कर गुजरने पर आमादा रहती है ।
आज वक्त की सबसे बड़ी दिक्कत है की हमारे समाज में सामाजिक और राजनीतिक संवाद की प्रक्रिया शिथिल हो गई है। राजनीतिक वर्ग में वह सामर्थ्य ही क्षीण हो गया है और इसीलिए वह अपनी बात मनवाने के उद्देश्य से भीड़ का उपयोग करता है। आज हम एक विचित्र असंवाद की स्थिति से गुजर रहे हैं। इस विसंवाद में हमने असभ्यता के औचित्य के लिए बहाने और उस की कहानियां रखी हैं। हमारा सामाजिक ,राजनीतिक और आध्यात्मिक नेतृत्व यह भूल चुका है कि भीड़ को नियंत्रित करना केवल पुलिस का काम नहीं है। भीड़ की स्थिति उत्पन्न ना होने देना सामाजिक और राजनीतिक प्रबोधन का एक सामाजिक उपक्रम है। हम सब उस उपक्रम के पुर्जे हैं, लेकिन लगता है हम इसे भूल चुके हैं। यही कारण है कि हम किसी भीड़ सामने अपना सारा आत्मविश्वास दबाकर या तो मूकदर्शक बने रहते हैं या फिर उसका हिस्सा बन जाते हैं। यदि आज हम भीड़ की हिंसा की घटनाओं का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करें तो संभवत यही निष्कर्ष निकलेगा तो इस हिंसा में शामिल हर आदमी अपने जीवन में अलग-अलग प्रकार की व्यक्तिगत पारिवारिक आर्थिक और सामाजिक समस्याओं जैसी किसी न किसी समस्या से ग्रस्त है।उसकी यह प्रवृत्ति एक दिन में नहीं बनी है उसका विकास एक लंबी अवधि में हुआ है। जिसमें हमारे मौजूदा राजनीतिक ,आर्थिक और सामाजिक वातावरण के साथ-साथ कई और कारक शामिल होते हैं।
पीडाबोध से ग्रसित लोगों की जमात अपनी तमाम समस्याओं के लिए किसी अन्य को जिम्मेदार मानने की प्रवृत्ति से ग्रस्त लोगों की भी हो सकती है और वह भी अपनी व्यक्तिगत भड़ास निकालने के लिए एक तत्कालिक बहाना ढूंढती है। उनकी दबी हुई हिंसा वृत्ति को अनायास किसी व्यक्ति की तलाश होती है। मौका देखते ही वह उसकी पूर्ति कर बैठती है। भीड़ को मालूम है कि उसका चेहरा नहीं होता और किसी कायरता पूर्ण हिंसा को छिपाने के लिए इससे बेहतर कोई मौका नहीं होता। आज मानव समाज के तौर पर हम मनुष्यों में क्रोध बढ़ रहा है हालांकि इसके आंकड़े उपलब्ध नहीं है। लेकिन दार्शनिकों ने पाया है कि हिंसा चाहे भीड़ की हो या किसी चरमपंथी संगठन की या फिर सेना की कहीं ना कहीं एक आध्यात्मिक और सांस्कृतिक समस्या भी है और इसके निदान के लिए हमें गांधी और टैगोर जैसों की बात गौर से सुने और समझने की जरूरत है। भीड़ को देखने और समझने के लिए हमें मानवीय और वास्तविक वैज्ञानिक नजरिया अपनाना होगा और उस नजरिए को विकसित करना होगा तभी हम उसके दूरगामी समाधान के उपाय का सक्रिय हिस्सा बन पाएंगे। इसीलिए आज के दौर में भी गांधी प्रासंगिक हैं। गांधी केवल संज्ञा न रहकर विशेषण बन चुके हैं और उस विशेषण की भी हमें आवश्यकता है।
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