लॉक डाउन को लेकर जितने मुंह उतनी बातें
सरकार ने आज से लॉक डाउन की अवधि फिर बढ़ा दी लेकिन इस बार पिछली बार के मुकाबले कुछ ज्यादा सुविधाएं दी गई हैं। लेकिन लॉक डाउन को लेकर तरह-तरह की बातें हो रही हैं। एक राज्य राजस्थान जहां कोविड-19 का प्रकोप कुछ ज्यादा ही है वहां मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने लॉक डाउन के संदर्भ में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर तंज किया कि यह भारत में अब तक की सबसे असंवेदनशील सरकार है। संभवत वे इमरजेंसी के काल को भूल गए। उसी तरह जब 1 जून से लॉक डाउन की अवधि बढ़ाई गई तो कई तरह की आलोचनाएं सामने आईं। इनमें सामाजिक और आर्थिक स्थितियों को सामने रखकर यह बताने की कोशिश की गई कि लॉक डाउन का फैसला पहले ही गलत था और अब और खराब हो गया। लेकिन, यहां यह तुलना करना जरूरी है कि कुछ दिनों तकलीफ लॉकडाउन के तहत हुई है और आगे भी होगी वह ज्यादा दुखदाई है या फिर हमारी आंखों के सामने अपने प्रिय जनों की मौत का वह दृश्य। लोगों की जिंदगी से ज्यादा महत्वपूर्ण कुछ नहीं है और लॉक डाउन को पूरी तरह खोला जाना वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी गलत है। माइक्रोबायोलॉजी में नोबेल पुरस्कार विजेता वैज्ञानिक पीटर चार्ल्स डोहार्टी ने भारत जैसे घनी आबादी वाले देश में लॉक डाउन को हटाया जाना चिंताजनक है। बेशक किया आर्थिक और सामाजिक कठिनाइयां पैदा करेगा। उन्होंने कहा कि यदि सब कुछ ठीक-ठाक जाता है और सब की जांच को पाती है तो सितंबर अक्टूबर तक इसकी वैक्सीन बन सकती है लेकिन फिर भी यह उस तथ्य पर निर्भर है कि वैक्सिंग बनाने में कितना वक्त लगेगा और फिर भारत जैसे विशाल देश में उसे सब जगह पहुंचाने में कितना समय लगेगा। वैज्ञानिक ने कहा कि कोरोना वायरस इन्फ्लूएंजा की तरह अपनी शक्ल नहीं बदलता और ना ही अपना चरित्र तब भी यह जरूरी नहीं है कि सब जगह एक ही तरह की वैक्सीन काम आएगी। उन्होंने कहा कि लॉक डाउन का मामला व्यावहारिक विज्ञान का मसला है क्योंकि से आर्थिक और सामाजिक विषमताएं जुड़ी हैं। उन्होंने कहा कि संख्या बढ़ने की और उसके प्रसार की सीमा को नियंत्रित करने की उम्मीद इस बात पर निर्भर करती है कि हम अपने आसपास से कैसे जुड़े रहते हैं और जांच की संख्या कितनी है। और भारत में इसकी आबादी को देखते हुए ऐसा सोचना भी मुश्किल है। फिर भी आर्थिक समस्याओं को देखते हुए सरकार ने जो आज से लॉक डाउन में छूट की बात कही है वह निहायत प्रशंसनीय है। केंद्र सरकार ने सभी राज्यों को कहा है कि वे लॉक डाउन की गाइडलाइंस का पूरी तरह पालन करें और कंटेनमेंट जोन को छोड़कर अन्य स्थानों पर 8 जून से मॉल रेस्टोरेंट और धार्मिक स्थल खोलें जा सकेंगे। केंद्र सरकार ने स्पष्ट कहा है कि राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के लिए तय किए गए गाइडलाइंस मे जो बंदिशे लगी है उन्हें कम नहीं किया जा सकता और कंटेनमेंट एरिया के बाहर के हालात आकलन के आधार पर जरूरत के अनुसार गतिविधियों पर रोक लगा सकते हैं।
भारत इतना बड़ा और इतनी ज्यादा जनसंख्या का विविधता पूर्ण राष्ट्र है कि यहां अगर सही आंकड़े उपलब्ध ना हो तो इस तरह की महामारियों का अचूक उपचार नहीं हो सकता। केवल कुछ शहर और राज्य ऐसे हैं जो आंकड़ों का प्रकाशन कर रहे हैं और उन्हीं के आधार पर सरकार को निर्णय लेने चाहिए। जो राज्य सरकारें केंद्र सरकार की आलोचना कर रही हैं उन्हें पहले अपने दामन में देखना चाहिए कि क्या वे वैज्ञानिक नियमों का पालन कर रहे हैं? आईसीएमआर की यह ड्यूटी है कि वह देश को जानकारी दें कि हालात क्या हैं। लेकिन ऐसा होता नहीं है उल्टे यह बात मीडिया में फैलाई जाती है प्रधानमंत्री विशेषज्ञों की सलाह को लेकर चिंतित हैं और उन्हें पछतावा हो रहा है लॉक डाउन बढ़ाने का। सूचनाओं के इस घटाटोप में आम आदमी को सही सूचना मिलनी मुश्किल है। पिछले सात दशकों में स्वास्थ्य के नाम पर बेहद खर्च किए गए लेकिन कुछ नहीं हो सका। अभी हालात यह हैंं कि स्वास्थ्य सेवा अभी भी पर्याप्त नहीं है और सारा दोष केंद्र सरकार पर मढ़ा जा रहा है। हम केवल इतना ही जानते हैं कि कितने लोगों की टेस्टिंग हुई उसमें कितने पॉजिटिव पाए गए और बाद में कितने नेगेटिव हो गए और कितने लोगों की मौत हुई। यह नहीं पता चल पाता है कि रोगियों को कितने दिनों तक अस्पताल में रखा गया और किस तरह के क्लीनिकल प्रबंधन को काम में लिया गया। अस्पताल चूंकि राज्य के अधीन होते हैं इसलिए उस पर केंद्र सरकार अपना जोर नहीं लगा सकती और अगर कोशिश भी करती है तो उसे राज्य के मामले में दखलअंदाजी का दोषी करार दिया जाता है।
सामाजिक स्थितियों के कारण रोगियों की जनसांख्यिकी के बारे में किसी को कुछ मालूम है सिवा उनकी उम्र और लिंग के। इस महामारी की प्रकृति को समझने के लिए यह जानना जरूरी होगा कि मरीजों या मरने वालों में या मरने वालों में गरीबों और हाशिए पर पड़े समुदायों का प्रतिनिधित्व औसत से अधिक है । उदाहरण के लिए अमेरिका में एफ्रो अमेरिकन और ब्रिटेन में अश्वेतो पर कोविड-19 की मार ज्यादा पड़ी है।
ऐसी स्थिति में अगर सरकार लोगों की आदतें बदलने के लिए क्रमिक रूप से लाॅक डाउन को बढ़ाते हुएअनुशासन लाने के लिए कुछ करती है तो इसकी आलोचना नहीं होनी चाहिए क्योंकि इसका उद्देश्य देश की जनता की जीवन रक्षा है।
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