प्रधानमंत्री को राजनीतिक फैसला लेना ही पड़ेगा
महाभारत की कथा है कि जब कृष्ण ने शांति कायम करनी चाही तो उन्हें गिरफ्तार करने की कोशिश की गई उस समय कृष्ण को अपना विराट स्वरूप दिखाना पड़ा। आज भारत चीन सीमा पर कुछ ऐसा ही हो रहा है। भारत की शांति वार्ता को चीन मानने को तैयार नहीं है और वह हमले के लिए भुजाएं फड़का रहा है। ऐसे में भारत के पास केवल एक ही विकल्प है कि वह शांति वार्ता से अपेक्षित परिणाम की उम्मीद छोड़ दें और किसी और रास्ते की तलाश करे। लोकतंत्र में यह इतर रास्ता राजनीतिक फैसलों के गलियारों से होकर गुजरता है, इसलिए प्रधानमंत्री को राजनीतिक फैसलों कि ओर भी देखना होगा। जरा गौर करें, सोमवार की रात चीन और भारत की सेना में हिंसक झड़प हुई और भारतीय सेना के 20 जवान शहीद हो गए। यह सभी 16 बिहार रेजीमेंट के जवान थे। पहले जवानों की शहादत की खबर आई बाद में सेना के बयान के मुताबिक गंभीर रूप से घायल अन्य 17 जवान भी वतन पर कुर्बान हो गए। भारतीय विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अनुराग श्रीवास्तव ने अपने बयान में कहा कि वार्ता के जरिए दोनों देशों में तनाव कम करने पर सहमति बनी थी और लगा इस सब कुछ ठीक हो गया लेकिन 15 जून की रात में चीन ने अपना रुख बदल दिया। उसने यथास्थिति को नकार दिया और भारतीय चौकियों पर हमला कर दिया। भारतीय सेना के जवानों की शहादत की खबर पर देश में राजनीति गर्म हो गई और विपक्षी दलों ने प्रधानमंत्री से जवाब मांगना शुरू कर दिया। प्रधानमंत्री का एक वीडियो संदेश आया जिसमें उन्होंने कहा कि हमारे सैनिकों की शहादत बेकार नहीं और हमारे सैनिक दुश्मन की सेना को मारते हुए शहीद हुए हैं , यानी प्रधानमंत्री क्या कहना था कि केवल हमारा ही नुकसान नहीं हुआ है। हमारे देश के अखबारों में और अन्य समाचार मीडिया में यह खबर आई चीन के सैनिक भी मारे गए। कुछ मीडिया में तो भारतीय सैनिकों के हाथ मारे गए चीनी सैनिकों की संख्या भी बताई गयी, लेकिन चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने इसकी पुष्टि नहीं की है। प्रवक्ता ने कहा कि उनके पास कोई जानकारी नहीं है और दोनों पक्ष बातचीत के जरिए विवाद को सुलझाने की कोशिश कर रहे हैं ताकि शांति कायम रहे। लेकिन अशांति की जड़ गलवान घाटी पर चीन ने अपना दावा जताया है। यहां तक कि बुधवार को भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर से चीनी विदेश मंत्री वांग यी ने टेलीफोन पर बातचीत पर शांति की बात तो की पर साथ ही कहा कि घाटी पर उसका अधिकार है। चीनी विदेश मंत्री इस हमले को अचानक हुआ हमला बता रहे थे परंतु भारतीय विदेश मंत्री ने दृढ़ शब्दों में कहा कि यह सोची समझी गई योजना के तहत हुआ है। लेकिन चीन यह मानने को तैयार नहीं है और उसने कड़ी आपत्ति दर्ज कराते हुए भारत को कहा है कि वह अपने सैनिकों को शक्ति से रोके कोई भी एक तरफा कार्रवाई अगर फिर से हुई तो मामला जटिल हो जाएगा। चीन की बातों से लगता है कि उसके मन में कुछ और है और मुंह में कुछ और। वहां कम्युनिस्ट तानाशाही तो पहले से थी ही अब वह एक ठग राष्ट्र बनता जा रहा है वह ना तो अंतरराष्ट्रीय नियमों को मांगता है और ना ही द्विपक्षीय समझौतों का सम्मान करता है। अक्सर देखा गया है चीन द्विपक्षीय समझौतों का दूसरे राष्ट्र के खिलाफ इस्तेमाल करता है। 1962 के पहले हिंदी चीनी भाई भाई और पंचशील सिद्धांतों की रट लगाते हुए उसने भारत पर हमला कर दिया। वह द्विपक्षीय समझौतों को दूसरे राष्ट्रों के खिलाफ उपयोग तो करता है पर खुद कभी नहीं मानता। भारत का कहना है कि इस घटना से दोनों देशों के संबंधों पर बुरी तरह से प्रभाव पड़ेगा और चीन की आक्रामकता से द्विपक्षीय संबंध भंग हो जाएंगे। 1993 से आज तक भारत के साथ चीन के पांच सीमा समझौते हुए हैं लेकिन इन समझौतों से अतिक्रमण रोकने में कहीं कोई सहायता नहीं मिली। चीन ने चुपके से भारत के एक हिस्से को अपने कब्जे में कर लिया और अब कहता चल रहा है कि यह सदा से उसका हिस्सा रहा है। आज चीन जिस गलवान घाटी पर दावा किया है उस पर उसने अब तक नहीं किया। 1962 के युद्ध के बाद गलवान घाटी और आसपास की सभी रणनीतिक ऊंचाइयों पर कभी घुसपैठ नहीं की थी। भारत को महसूस हो रहा था इधर से खतरा नहीं है और उसने इन ठिकानों को बिना सैनिकों के छोड़ दिया। यह उसकी सबसे बड़ी गलती थी। यह इलाके सामरिक दृष्टिकोण से बहुत ही महत्वपूर्ण हैं।
आज भी भारत को यह भ्रम है कि तमाम समझोतों से मुकरने के बावजूद हमें लगता है कि बिना कुछ दिए भारत चीन को फिर से यथास्थिति में लाने का प्रयास कर सकता है या हम उन्हें कुछ दे सकते हैं और उसे सार्वजनिक करने की जरूरत नहीं है। रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने इसी रुख की तरफ इशारा किया, जब उन्होंने कहा - सभी विषय सही समय पर सामने लाए जाएंगे। डोकलाम संकट को शांत करने में राजनीतिक चतुराई का उपयोग किया गया था लेकिन आज स्थिति दूसरी है। चीन ने फेस ऑफ की जगह पर कोई बदलाव नहीं किया है लेकिन उसने डोकलाम पठार के अधिकतर हिस्से पर कब्जा कर लिया है और खतरनाक यह है कि भारत खामोश है। भारत की इस खामोशी को चीन ने उसकी कायरता समझ ली और दूसरी तरफ मोर्चा खोलने का साहस करने लगा। लेकिन इस बार हालात दूसरे हैं, बड़े ऊंचे सामरिक दांव लगे हुए हैं। ऐसे में चतुराई भरे समझौतों की कोई गुंजाइश नहीं है और लद्दाख को लेकर बिल्कुल अलग नजरिए की जरूरत है। इसे खतरा नहीं बल्कि एक आवश्य के रूप में देखा जाना चाहिए। चीन की नीति इस मामले में छल पूर्ण है। आज तक देखा गया है वह ऐसे किसी हमले के माध्यम से दो कदम आगे बढ़ जाता है और फिर समझौतों के नाम पर एक कदम पीछे चला आता है और इस तरह वह एक कदम पर कब्जा कर लेता है। गलवान घाटी, हॉट स्प्रिंग और पैंगाॅन्ग त्सो मुख्य क्षेत्र है जहां विवाद बना हुआ है। सेना प्रमुख एमएस नरवाणे इशारा किया है कि सेनाएं एक चरणबद्ध तरीके से अलग हो रही है और गलवान में काफी हद तक अलग हो चुकी हैं। लेकिन यह राजनीतिक जुमला है अलग होने का मतलब यथास्थिति बहाल हो जाना नहीं है और सैनिक सूत्रों के मुताबिक चीनी अभी भी नई जगहों पर बने हुए हैं और वहां भारतीय गश्ती दल को रोका जा रहा है। समझौते के नाम पर कुछ महीने गुजर जाएंगे और चीन अपनी पुरानी नीति के मुताबिक एक कदम पीछे लौट आएगा। इससे हमारी उपलब्धि क्या होगी? यह एक ऐसी समस्या है जिससे भारत को राजनीतिक तौर पर निपटना होगा और यह समस्या हमें ऐसा अवसर दे रही है। नरेंद्र मोदी अपने कड़े रुख के लिए और दृढ़ निश्चय के लिए विख्यात हैं और इस मौके पर उन्हें यह दिखाना होगा कि भारतीय सेना कमजोर नहीं है और वह चीनियों का मुकाबला कर सकती है लेकिन इसके पीछे राजनीतिक इच्छाशक्ति आवश्यक है। चीन ठग है और भारत को उसकी ताकत के झांसे में नहीं आना चाहिए । चीन के भीतर ही बहुत परेशानियां हैं और भारत में इतनी क्षमता है कि वह चीन की समस्याओं- ताइवान और दक्षिण चाइना सी - को लेकर उसकी ताकत को कमजोर कर सकता है। अब तक के तनावों का अगर मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करें तो लगता है चीन भारत को हराना नहीं चाहता वह चाहता है भारत उसे बॉस मान ले। खाली इलाकों में कब्जा कोई कब्जा नहीं है यह तो एक तरकीब है जिसका उपयोग चीन ने भारत, भूटान और साउथ चाइना सी इलाके में कई दशकों तक किया है। भारत की राजनीतिक चार ऐसी हो उसके इस अमल पर रोक लग जाए। भारत का रुख ऐसा हो कि “चलें इससे निपट ही लेते हैं।” भारत के सामने इस समय आर्थिक संकट है और इसी वजह से चीन ने भारत की सामरिक स्वायत्तता को कमजोर करने की कोशिश की। भारत का रुख साफ होता जा रहा है। वह समझौतों के कंफर्ट जोन में लौट रहा है और यह केवल बैंड एड का काम करती है। भविष्य में राजनीतिक दुराचार की गुंजाइश रहेगी। अब बहुत हो गया अब सरकार को कोई ना कोई स्टैंड लेना चाहिए। चीनियों के दिमाग से इस बात को निकाल देना चाहिए कि वह भारत से बड़ी शक्ति है और भारत को झुका सकता है। चीन को यह स्वीकार करना होगा भारत कभी किसी खेमे में नहीं रहेगा लेकिन दांव पर लगे मुद्दों को देखते हुए वाह उन्हीं देशों के खेमे में बैठेगा जिनके साथ उसके साझा हित होंगे। बस भारत को अपना खेल ही से शुरू करना चाहिए। इसके लिए राजनीतिक फैसलों की बहुत बड़ी आवश्यकता है और अब वक्त आ गया है के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पहले की तरह कोई कठोर राजनीतिक फैसला लें। देश का सम्मान इसी से बचेगा।
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