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Friday, June 5, 2020

अमेरिकी आंदोलन के वर्णपट में भारत



अमेरिकी आंदोलन के वर्णपट में भारत


अमेरिका के मिनियापोलिस पुलिस की गोलियों से मारे गये अश्वेत नागरिक जॉर्ज फ्लायड को लेकर अमेरिका में भयानक गुस्सा देखा जा रहा है और धीरे धीरे पूरी दुनिया में फैल रहा है। यूरोप और ऑस्ट्रेलिया में भी प्रदर्शन शुरू हो गए हैं। इन प्रदर्शनों में जो सबसे महत्वपूर्ण है वह है कि इनमें श्वेत नौजवानों की बढ़ती भागीदारी। खबर है कि कई प्रदर्शनों में तो श्वेत नौजवान ज्यादा रहते हैं। अमेरिका में या कोई बड़ी बात नहीं है और ना ही कोई नई बात। 19वीं शताब्दी में अमेरिका के दक्षिणी प्रांतों में चल रही गुलामी की प्रथा को खत्म करने के लिए तो दोनों तरफ से श्वेत सैनिक ही लड़े थे और लगभग 10 लाख से ज्यादा श्वेत मारे गए थे। इसका मतलब है कि अश्वेतों को आजादी दिलाने के काम में श्वेत लोगों ने जान दी। अमेरिका में हजारों किलोमीटर दूर चल रहे उस संघर्ष को पुणे का एक नौजवान ज्योति राव फुले बड़े गौर से देख रहा था। आगे चलकर ज्योतिबा फुले के नाम से मशहूर उस नौजवान के जीवन पर संघर्ष का बहुत ज्यादा असर हुआ। गोरे इसलिए कुर्बान हो रहे थे कि काले आजाद हो जाए। भारत में शुद्रों की स्थिति उन काले नौजवानों की तरह जो अमेरिका में गुलाम थे। अमेरिका में नस्लवाद खत्म नहीं हुआ। मार्टिन लूथर किंग सहित कई नेताओं की अगुवाई में सिविल राइट्स मूवमेंट चले। इन सब में बड़ी संख्या में श्वेत भी शामिल हुए। ऐसे आंदोलनों में आज भी श्वेत नौजवानों की भागीदारी दिखती है।


राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने इस आंदोलन के लिए अमरीकी फासीवाद समूह एंटीफा पर दंगे भड़काने का आरोप लगाया है। उनका मानना है कि इस आंदोलन को एंटीफा ने हाईजैक कर लिया है। डोनाल्ड ट्रंप समूह पर पाबंदियां लगाने जा रहे हैं। डोनाल्ड ट्रंप ने इस हिंसा के पीछे वामपंथी संगठनों को जिम्मेदार बताया है। अमेरिका में यह फासीवाद विरोधी संगठन एंटीफा के नाम से मशहूर है। विरोध प्रदर्शन के कारण अमेरिका के 40 शहरों में कर्फ्यू लगा दिया गया है लेकिन इसके बाद भी लोग सड़कों पर उतर रहे हैं। अमेरिका की कई शहरों में पुलिस और प्रदर्शनकारियों के बीच लगातार झड़पों की खबरें मिल रही हैं।जार्ज फ्लाएड की मौत के कुछ ही घंटों के बाद अमेरिका के बड़े शहरों में प्रदर्शन आरंभ हो गए और देखते ही देखते इसने आंदोलन का रूप ले लिया। इस घटना ने 2014 की एरिक गार्रनर की मौत की घटना को याद दिला दी। इस घटना में भी न्यूयॉर्क शहर के एक पुलिस अधिकारी ने एरिक गर्दन को तब तक घुटने से दबाए रखा जब तक उसकी मौत न हो गई। इस बार भी हिंसा भड़कने का एक बड़ा कारण आया था कि कई सालों से अश्वेत लोगों के खिलाफ पुलिस अत्याचार बढ़ गया था। समाजशास्त्र की विश्व विख्यात पत्रिका द सोशलॉजी टुडे के मुताबिक 2016 में 10 लाख लोगों में औसतन 10. 13 लोगों को गोली मारी इनमें अश्वेतों की संख्या 6.6 थी। अमेरिकन जर्नल ऑफ पब्लिक हेल्थ में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार अमेरिका में प्रति एक लाख लोगों में पुलिस के हाथों मारे गए अश्वेतों की संख्या 2.4 है जबकि गोरों की संख्या केवल 0.7 है। यहां गौर करने की चीज है अमेरिका में अश्वेतों की आबादी केवल 13% और वहां पुलिस की गोली से मरे कुल लोगों में एक चौथाई अश्वेत नागरिक हैं। इसका अर्थ है अमेरिका में किसी निहत्थे गोरे व्यक्ति की तुलना में काले लोगों की मारे जाने की संभावना 4 गुना अधिक होती है। आंकड़े बताते हैं 2019 में पुलिस के हाथों मारे गए 1099 लोगों में 24% अश्वेत थे जबकि उनकी संख्या 13% ही है। अमेरिका में जार्ज फ्लाएड की मौत को लेकर गुस्सा इसलिए ज्यादा बढ़ गया कि लोग पुलिस की नीतियों से परेशान हो चुके हैं और पुलिस सिस्टम में पूरी तरह बदलाव चाहते हैं। इस बार के आंदोलन में हॉलीवुड के स्टार्स , बड़े नेता, बड़े कारोबारी और कई अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं अमेरिकी पुलिस के तौर-तरीकों के खिलाफ गुस्से में थी। अमेरिका मैं जो आबादी का घनत्व है उसे देखते हुए ऐसा लगता है कि वहां श्वेत सदियों तक वर्चस्व शाली रहेंगे





अब जरा परिदृश्य बदलिए और बताइए कि हमारे देश में क्या स्वर्ण जातीय अत्याचार और भेदभाव के खिलाफ संघर्ष में शामिल होंगे? यही उम्मीद की जा सकती है? यह तो देखा जा रहा है भारतीय स्वर्ण सेलिब्रिटीज और बुद्धिजीवी अमेरिका में अश्वेतों के लिए न्याय की मांग कर रहे हैं । लेकिन क्या भारत में ऐसी उम्मीद की जा सकती है कि किसी दलित महिला की हत्या पर सवर्ण आवाज उठाएं। शायद ऐसा नहीं होता है वरना वी पी सिंह और अर्जुन सिंह यह हालत नहीं होती।लेकिन यह दूसरा दौर था। उस समय सवर्णों और दलितों के बीच की खाई इसलिए चौड़ा किया गया इसमें राजनीतिक स्वार्थ था। यहां इसमें एक अध्याय और जोड़ा जा सकता है कि जब से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार बनी है तब से कई लोगों ने सवर्ण दलित और अल्पसंख्यक बहुसंख्यक इत्यादि जुमलों का प्रयोग शुरु कर दिया है। लेकिन, यहां अभी इस तरह की किसी आंदोलन आहट नहीं सुनी जा रही है। यह हमारे देश के वर्तमान राजनीतिक नेतृत्व की क्षमता और उसकी सहृदयता का सबूत है। जोकि अमेरिका में देखने को नहीं मिल रहा है। अमेरिकी राष्ट्रपति जहर उगलने के लिए बदनाम है जबकि भारत के प्रधानमंत्री स्थितियों को संभालने और समरसता कायम करने के पक्षधर हैं । इस तरह के जातीय आंदोलन तभी होते हैं जब राष्ट्रीय नेतृत्व व्यवस्था को विशेषकर पुलिस व्यवस्था अपने राजनीतिक उद्देश्य के लिए इस्तेमाल करने लगता है और जनता गौण हो जाती है। फिलहाल भारत में ऐसा कुछ नहीं है। कुछ लोग इसे स्वरूप देने की कोशिश में है लेकिन सरकार उनके प्रयासों को सफल नहीं होने दे रही है और इसका मुख्य श्रेय सरकार की सामाजिक विचारशीलता को है।

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