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Wednesday, June 3, 2020

आपदा को मोदी ने अवसर में बदला



आपदा को मोदी ने अवसर में बदला





इस वर्ष फरवरी में जब कोविड-19 का दैत्य इस धरती पर आया तो लोग कहने लगे सारी नीतियां और पूरी दुनिया की जीवनशैली बदल जाएगी। धीरे धीरे इसका प्रसार होता है और यह महामारी के रूप में पूरी दुनिया में फैल गया। दुनिया के लगभग सभी देशों ने इसके मुकाबले के लिए असाधारण कदम उठाए। भारत भी पीछे नहीं रहा। अर्थव्यवस्था के ध्वस्त हो जाने के भय से सभी देशों के नेताओं ने कुछ न कुछ ऐसा करना आरंभ किया जो देश की अर्थव्यवस्था को बचाने के लिए जरूरी था। एक तरफ ऑनलाइन लेन देन , शिक्षा तथा अन्य व्यवस्थाएं और दूसरी तरफ आर्थिक पैकेज। ऑनलाइन शिक्षा यह बारे में कहा जाने लगा सरकार इसके माध्यम से अमीरों और गरीबों के बीच एक दरार पैदा करना चाहती है वही आर्थिक पैकेज के बारे में टिप्पणियां होने लगी किससे 130 करोड़ जनता का विकास कैसे होगा? यह राशि गरम रेत पर पानी की बूंद की तरह है और इसके बाद क्या होगा? भूख और बेरोजगारी से व्याकुल लोग विप्लव पर उतर आएंगे। ऐसे आलोचक अपनी बात के लिए कई ऐतिहासिक तथ्य भी प्रस्तुत करते हैं। इन्हें कैसे बताया जाए कि इतिहास समय सापेक्ष होता है और उसकी धारा को प्रभावित करने के लिए कई कारक होते है। इतिहास के उद्धरण उन कारकों के अभाव में वर्तमान में देना बहुत सही नहीं है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने 193 देशों की वित्तीय और मौद्रिक हम नीतियों पर एक रिपोर्ट की है। उस रिपोर्ट के मुताबिक यह आर्थिक पैकेज अनुमानतः जीडीपी के आंकड़े 3:5 प्रतिशत है जो गरीब घरों, प्रवासी मजदूरों और कृषि में खर्च होते हैं। आंकड़े बताते हैं कि ब्राजील और पेरू में इससे ज्यादा खर्च हो रहे हैं। मौद्रिक और वित्तीय समर्थन स्तर भारत से ज्यादा केवल इंडोनेशिया में है जहां की आबादी भारत के बहुत कम है। आबादी के कंपोनेंट और वित्तीय समर्थन की अगर तुलना करें चीन भी लगभग भारत के बराबर होगा। जहां तक भारत में दिए गए पैकेज का प्रश्न है तो यह अतिरिक्त खर्च और के रूप में है। इसका सीधा असर होता है। अगर देखें तो सभी ज़ी 24 देशों में किए जाने वाले सभी वित्तीय उपाय लगभग भारत के समतुल्य हैं।


जहां तक भारत का सवाल है अगर भारत में किसानों को उनकी फसल के समर्थन मूल्य के रूप में दी जाने वाली मदद, खाद, बिजली , पानी आदि के रूप में जो सब्सिडी मिलती है और पिछले साल से प्रति किसान को जो 6000 रुपए दिए जाते हैं इन सब को यदि जोड़ा जाए यह राशि जीडीपी के 2% के बराबर होगी। इसमें किसानों को बैंकों से मिलने वाले क्यों ब्याज दरों पर दी जाने वाली रकम शामिल नहीं है। चूंकि , यह सारा कार्यक्रम देश के 14 करोड़ हेक्टेयर जमीन के लिए है। अब अगर प्रति हेक्टेयर खर्च देखें तो यह 30000 रुपए हो जाएगा। इसका अर्थ है हमारे देश में एक हेक्टेयर की जोत वाले की शाम को लगभग ढाई हजार रुपए लाभ दिए जाते हैं। अगर यह बात आप किसी किसान से कहेंगे तो वह आपका मजाक बना देगा। अब यह मामला इस रकम का है तो निरंतर संकटग्रस्त किसान के लिए न्यूनतम आय का विचार लागू करना संभव नहीं है। राजनीतिज्ञ किसानों की कमजोरियां जानते हैं इसलिए वे उनका उपयोग करते हैं। उदाहरण के लिए देखें तो भूजल के अधिक दोहन रासायनिक खादों के अत्यधिक प्रयोग से खेत ऊसर होते जा रहे हैं इसे रोका जाना चाहिए लेकिन इसके राजनीतिक असर को देखकर कोई भी दल ऐसा साहस नहीं करेगा। किसानों को बिजली लगभग मुफ्त या भारी रियायत के साथ उपलब्ध है। मोदी सरकार इस दूरी सब्सिडी को खत्म करने का प्रयास कर रही है क्योंकि लागत की भरपाई के लिए मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र से ज्यादा वसूल किया जा रहा है। इस पर राजनीतिक विवाद शुरू हो गए हैं । कहा जा रहा है की भूजल के अतिरिक्त उपयोग पर रोक लगाने से पंजाब में कम पानी वाले क्षेत्रों में धान की खेती और महाराष्ट्र में गन्ने की खेती बंद हो जाएगी। इस तरह चावल और चीनी के निर्यात को बनावटी बढ़ावा देना भी बंद हो जाएगा। लेकिन क्या किया जाए? अगर ध्यान से देखें तो यह एक तरह से पानी का निर्यात है।





लेकिन नरेंद्र मोदी ने अपने हिम्मत को बनाए रखा है और उनका दावा है की सारी आलोचनाओं के बाद भी 21वीं सदी भारत की होगी। हमें कोरोना पहले की दुनिया और बाद की दुनिया की तुलना करने का अवसर मिला है। जो स्थितियां बनी हैं उसे भी हम समझते हैं। जब हम दोनों काल खंडों को भारत के नजर से देखेंगे हमें लगेगा 21वीं सदी भारत की है और नरेंद्र मोदी ने इस संकट को अवसर में बदला है। कृषि पर ज्यादा बोझ ना पड़े इसके लिए मोदी जी ने आत्मनिर्भर भारत कल्पना की और कहा एशः पंथाः और इसे कहा यही एक रास्ता है यानी आत्मनिर्भर भारत ही एकमात्र रास्ता है। भारत ने आपदा को अवसर बना दिया और एक संकल्प के साथ उस अवसर को लाभदायक बनाने की राह पर चल पड़ा है।

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