बंगाल में नहीं बदलेगी सियासत
- हरिराम पाण्डेय
देश में राजनीतिक रूप से सबसे ज्यादा संवेदनशील कहे जाने वाले राज्य पश्चिम बंगाल में अगले साल चुनाव होने वाले हैं और सोशल मीडिया में चर्चा है कि यहां भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस के लिये सरदर्द बन सकती है। दरअसल लोकसभा चुनाव के बाद सोशल मीडिया लोग सिरीयसली नहीं ले रहे हैं। फिर भी चर्चा के लिये तो है ही। भाजपा की सबसे बड़ी खूबी है कि वह अपने प्रचार तंत्रों के जरिये मतदाताओं के दिमाग में अपने लिये स्पेस तैयार कर लेती है। यहां अभी से वह इस तरह की रणनीति अपना रही है। दूसरी तरफ जिस कम्बीनेशन ने बिहार में फतह दिलवाई उस कम्बीनेशन की तैयारियां यहां भी शुरू हो गयीं हैं। कहा जा रहा है कि यहां भाजपा के ‘साफ्ट’ सहयोगी तृणमूल के साथ उसका गठबंधन तो होगा ही नहीं और पिछले चुनाव में जिस कांग्रेस के साथ तालमेल था उसके मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सी पी एम) के साथ जाने के आसार नजर आ रहे हैं। भारतीय जनता पार्टी यहां तीखी लड़ाई के लिये दिमागी तौर पर तैयार है। वह अपने पुराने जातिगत और साम्प्रदायिक हथकंडों को आजमाने से गुरेज भी नहीं करेगी। हालांकि 30 नवम्बर को कोलकाता में भाजपा की एक रैली है जिसमें राज्य सरकार की विफलताओं को बताया जायेगा, दूसरी तरफ दिल्ली से इमोशनल गोले दागे जाने की तैयारी है। मंगलवार 24 नवम्बर को नयी दिल्ली के जंतर मंतर में बंगाली शरणार्थियों की एक सभा को भाजपा महासचिव कैलाश विजयवर्गीय ने सम्बोधित किया। जंतर-मंतर पर धरना दे रहे निखिल भारत बंगाली उद्वास्तु शरणार्थी समन्वय समिति के लोगों से मिलकर उन्हें न केवल भारत की नागरिकता दिलाने की बात कही बल्कि इस संबंध में गृहमंत्री से भी मुलाकात कराने का आश्वासन दिया। निखिल भारत बंगाली उद्वास्तु शरणार्थी समन्वय समिति के लोगों ने मंगलवार को समता स्थल से लेकर जंतर-मंतर तक एक विरोध रैली का आयोजन किया। इस समिमि के सिर पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का वरद हस्त है। समिति के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ सुबोध विश्वास ने कहा कि बांग्लादेश का विस्थपित हिंदू आज भी विभाजन की त्रासदी की पीड़ा से त्रस्त है। सुबोध विश्वास ने कहा कि भारत सरकार और राज्य सरकार ने हमें राशन कार्ड, वोटर आईडी कार्ड दिया और हमें वोट बैंक के हिसाब से इस्तेमाल किया। समिति के मुताबिक भारत सरकार ने नागरिक अधिनियम 2003 संशोधित कर बंगाली हिंदुओं बौद्धो और ईसाइयों का नागरिक अधिकार छीन लिया। समिति के तत्वाधान में 16 राज्यों में संगठित तौर पर एक आदोलन जारी है। इनकी मांगों में नागरिक अनुसूचित बंगाली जाति प्रमाण पत्र, विस्थपित का भूस्वामी अधिकार, मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा और बांग्लादेश के अल्पसंख्यक हिंदुओं की सुरक्षा सुनिश्चित करने की मांग शामिल है। शरणार्थियों की समस्या पश्चिम बंगाल की अत्यंत भावात्मक समस्या है। बंगाल के नब्बे प्रतिशत मध्यवर्गीय बंगाली किसी ना किसी रूप में शरणार्थियों से जुड़े हैं। बिहार में जो साम्प्रदायिक मसला ‘मिसफायर’ हो गया था उसे ‘रीसाइकिल’ कर हिंदू शरणार्थी मामले में बदलने का भाजपा न केवल प्रयास करेगी बल्कि बंगाल के हिंदू मतदाताओं को यह समझाने की कोशिश करेगी कि मुस्लिम घुसपैठियों का मुकाबला करने की इच्छाशक्ति केवल उसमें ही है। दूसरी तरफ छोटे स्तर पर ही सही मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और अनकी पार्टी ने भी लोगों के दिल- ओ- दिमाग में जगह बनाने का प्रयास आरंभ कर दिया है। बिहार में महागठबंदान की विजय के बाद मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने ट्वटि किया कि ‘यह सहिष्णुता की विजय है।’ पार्टी प्रवक्ता डेरेक ओ ब्रायन ने ट्वीट किया ‘भाजपा हारी, भारत जीता।’यही नहीं भाजपा नेता और पिछले लोकसभा चुनाव में बीरभूम से पार्टी के प्रत्याशी जॉय मुखर्जी ने चुनाव आयोग पर टिप्पणी करते हुए कहा था आयोग हमारे हाथ में है और विधानसभा चुनाव में हम तृणमूल की चलने नहीं देंगे। इसके लिए उन्हें माफी मांगनी पड़ी थी। इसीके साथ पालिका चुनावों में भाजपा ने जानबूझ कर तृणमूल के कार्यकर्ताओं का विरोध नहीं किया कि ये बात मीडिया से आम जनता तक पहुंचे कि चुनावों में गड़बड़ी तृणमूल ही करती है भाजपा नहीं। अबसे पहले बंगाल की राजनीति की एक खूबी थी कि वह मतदाताओं की पसंदगी और नापसंदगी के बूते चलती थी। यहां का ‘इलीट’ मध्यवर्ग ही सियासत की दिशा तय करता था। अब हालात बदलने लगे हैं। निम्न मध्यवर्ग से एक नया वर्ग उत्पन्न हुआ है और वह नया वर्ग इस ‘इलीट मिड्ल क्लास’ पर हावी हो गया है। इसी के साथ बदल गये हैं सियासत के तेवर। अब सियासत पसंदगी और नापसंद के घेरे से निकल कर वजूद बचाने और मिटाने के दायरे प्रवेश कर गयी है। अबसे पहले वाममोर्चा, जो करीब साढ़े तीन दशकों तक सत्ता में कायम रही और आंतरिक समस्याओं के कारण उसे सत्ताच्युत होना पड़ा। तृणमूल कांग्रेस के साथ भी कुछ ऐसी ही दिक्कतें पेश आ रहीं हैं। फिर भी राज्य में मौजूदा सियासी हालात है उन्हें देख कर लगता है कि एकमात्र तृणमूल कांग्रेस ही ‘उत्पादक राजनीति’ की मिसाल है। इसलिये तृणमूल कांग्रेस के बिना पश्चिम बंगाल की राजनीति अर्थहीन हो जायेगी। साथ ही , राज्य के मतदाताओं के समक्ष दूसरा को व्यवहारिक विकल्प भी नहीं है। अगर तृणमूल कांग्रेस अभी भी शांत होकर सही विकास कार्य करती है तो भाजपा के लिये बहुत स्कोप नहीं रह जायेगा क्योंकि देश भर में चुनाव वायदों के आधार पर लड़े जाते हैं और बंगाल ही एकमात्र ऐसा राज्य है जहां वायदों की संभावित विश्वसनीयता पर चुनाव लड़े जाते हैं। यहां बीजेपी को वोट पर्सेंटेज गिरावट के मोड में है। भारतीय राजनीति के पन्ने पलटें तो पहली बार गैर कांग्रेसी यानी सत्ता विरोधी ताकतें देश में पहली बार 1967 में एक साथ आईं थीं। उस वक्त दक्षिण और वामपंथी ताकतों ने हिंदी राज्यों में गठबंधन बनाया था और ऐसा गठबंधन कि कोई व्यक्ति कोलकाता से अमृतसर कांग्रेस शासित राज्यों में बिना घुसे पहुंच सकता था।बाद में 1975 के आपातकाल के बाद सत्ताविरोधी ताकतें जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में एकजुट हुईं। फिर 1989 में विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में और फिर 1996 में। लेकिन इस एकजुटता की उम्र बहुत लंबी नहीं रही। हालांकि ये भी सही है कि राजनीति में कोई स्थाई दुश्मन नहीं होता। कभी एक ही पार्टी में रहे और फिर लंबे समय तक एक-दूसरे को कोसने वाले लालू और नीतीश आज फिर एक साथ हैं। इसी तरह उत्तर प्रदेश में भी नवंबर 1993 और जून 1995 में सपा और बसपा मिलकर सरकार चला चुके हैं। 2004 में वामपंथी दलों ने केंद्र में उस यूपीए सरकार का समर्थन किया था जिसमें ममता बनर्जी केंद्रीय मंत्री थी। राजनीति संभावनाओं का खेल है। राजनीति में एक हफ्ता भी बहुत लंबा समय होता है। जबकि अभी कई महीने बाकी हैं। कोई भी जल्दी में नहीं दिखता, यहां तक लालू भी नहीं। कोलकाता में बीजेपी की मजबूत पकड़ मानी जाती है, लोकसभा चुनावों में ये दूसरे नंबर की पार्टी बन कर उभरी थी और 25 फीसदी वोट हासिल किए थे लेकिन निगम चुनावों में ये वोट घट कर 15 फीसदी हो गए। यही हाल रहा तो भाजपा अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के साथ तीसरे और चौथे स्थान के लिए मुकाबला करती नजर आएगी। सभी अपफवाहों के बावजूद मुख्यमंत्री ममता बनर्जी राज्य की जनता के मन में बहुत गंभीरता से कायम हैं और यहां तक कि प्रतिद्वंद्वियों तक के दिमाग में उनके लिये स्पेस है। बिहार में जिस तरह एंटी इंकम्बेंसी की हवा फैलाये जाने के बाद भी नीतीश ही जीते उसी तरस बंगाल में भाजपा की हर कोशिश के बाद समीकरण वही रहेंगे जो आज हैं।- लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं
- हरिराम पाण्डेय
देश में राजनीतिक रूप से सबसे ज्यादा संवेदनशील कहे जाने वाले राज्य पश्चिम बंगाल में अगले साल चुनाव होने वाले हैं और सोशल मीडिया में चर्चा है कि यहां भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस के लिये सरदर्द बन सकती है। दरअसल लोकसभा चुनाव के बाद सोशल मीडिया लोग सिरीयसली नहीं ले रहे हैं। फिर भी चर्चा के लिये तो है ही। भाजपा की सबसे बड़ी खूबी है कि वह अपने प्रचार तंत्रों के जरिये मतदाताओं के दिमाग में अपने लिये स्पेस तैयार कर लेती है। यहां अभी से वह इस तरह की रणनीति अपना रही है। दूसरी तरफ जिस कम्बीनेशन ने बिहार में फतह दिलवाई उस कम्बीनेशन की तैयारियां यहां भी शुरू हो गयीं हैं। कहा जा रहा है कि यहां भाजपा के ‘साफ्ट’ सहयोगी तृणमूल के साथ उसका गठबंधन तो होगा ही नहीं और पिछले चुनाव में जिस कांग्रेस के साथ तालमेल था उसके मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सी पी एम) के साथ जाने के आसार नजर आ रहे हैं। भारतीय जनता पार्टी यहां तीखी लड़ाई के लिये दिमागी तौर पर तैयार है। वह अपने पुराने जातिगत और साम्प्रदायिक हथकंडों को आजमाने से गुरेज भी नहीं करेगी। हालांकि 30 नवम्बर को कोलकाता में भाजपा की एक रैली है जिसमें राज्य सरकार की विफलताओं को बताया जायेगा, दूसरी तरफ दिल्ली से इमोशनल गोले दागे जाने की तैयारी है। मंगलवार 24 नवम्बर को नयी दिल्ली के जंतर मंतर में बंगाली शरणार्थियों की एक सभा को भाजपा महासचिव कैलाश विजयवर्गीय ने सम्बोधित किया। जंतर-मंतर पर धरना दे रहे निखिल भारत बंगाली उद्वास्तु शरणार्थी समन्वय समिति के लोगों से मिलकर उन्हें न केवल भारत की नागरिकता दिलाने की बात कही बल्कि इस संबंध में गृहमंत्री से भी मुलाकात कराने का आश्वासन दिया। निखिल भारत बंगाली उद्वास्तु शरणार्थी समन्वय समिति के लोगों ने मंगलवार को समता स्थल से लेकर जंतर-मंतर तक एक विरोध रैली का आयोजन किया। इस समिमि के सिर पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का वरद हस्त है। समिति के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ सुबोध विश्वास ने कहा कि बांग्लादेश का विस्थपित हिंदू आज भी विभाजन की त्रासदी की पीड़ा से त्रस्त है। सुबोध विश्वास ने कहा कि भारत सरकार और राज्य सरकार ने हमें राशन कार्ड, वोटर आईडी कार्ड दिया और हमें वोट बैंक के हिसाब से इस्तेमाल किया। समिति के मुताबिक भारत सरकार ने नागरिक अधिनियम 2003 संशोधित कर बंगाली हिंदुओं बौद्धो और ईसाइयों का नागरिक अधिकार छीन लिया। समिति के तत्वाधान में 16 राज्यों में संगठित तौर पर एक आदोलन जारी है। इनकी मांगों में नागरिक अनुसूचित बंगाली जाति प्रमाण पत्र, विस्थपित का भूस्वामी अधिकार, मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा और बांग्लादेश के अल्पसंख्यक हिंदुओं की सुरक्षा सुनिश्चित करने की मांग शामिल है। शरणार्थियों की समस्या पश्चिम बंगाल की अत्यंत भावात्मक समस्या है। बंगाल के नब्बे प्रतिशत मध्यवर्गीय बंगाली किसी ना किसी रूप में शरणार्थियों से जुड़े हैं। बिहार में जो साम्प्रदायिक मसला ‘मिसफायर’ हो गया था उसे ‘रीसाइकिल’ कर हिंदू शरणार्थी मामले में बदलने का भाजपा न केवल प्रयास करेगी बल्कि बंगाल के हिंदू मतदाताओं को यह समझाने की कोशिश करेगी कि मुस्लिम घुसपैठियों का मुकाबला करने की इच्छाशक्ति केवल उसमें ही है। दूसरी तरफ छोटे स्तर पर ही सही मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और अनकी पार्टी ने भी लोगों के दिल- ओ- दिमाग में जगह बनाने का प्रयास आरंभ कर दिया है। बिहार में महागठबंदान की विजय के बाद मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने ट्वटि किया कि ‘यह सहिष्णुता की विजय है।’ पार्टी प्रवक्ता डेरेक ओ ब्रायन ने ट्वीट किया ‘भाजपा हारी, भारत जीता।’यही नहीं भाजपा नेता और पिछले लोकसभा चुनाव में बीरभूम से पार्टी के प्रत्याशी जॉय मुखर्जी ने चुनाव आयोग पर टिप्पणी करते हुए कहा था आयोग हमारे हाथ में है और विधानसभा चुनाव में हम तृणमूल की चलने नहीं देंगे। इसके लिए उन्हें माफी मांगनी पड़ी थी। इसीके साथ पालिका चुनावों में भाजपा ने जानबूझ कर तृणमूल के कार्यकर्ताओं का विरोध नहीं किया कि ये बात मीडिया से आम जनता तक पहुंचे कि चुनावों में गड़बड़ी तृणमूल ही करती है भाजपा नहीं। अबसे पहले बंगाल की राजनीति की एक खूबी थी कि वह मतदाताओं की पसंदगी और नापसंदगी के बूते चलती थी। यहां का ‘इलीट’ मध्यवर्ग ही सियासत की दिशा तय करता था। अब हालात बदलने लगे हैं। निम्न मध्यवर्ग से एक नया वर्ग उत्पन्न हुआ है और वह नया वर्ग इस ‘इलीट मिड्ल क्लास’ पर हावी हो गया है। इसी के साथ बदल गये हैं सियासत के तेवर। अब सियासत पसंदगी और नापसंद के घेरे से निकल कर वजूद बचाने और मिटाने के दायरे प्रवेश कर गयी है। अबसे पहले वाममोर्चा, जो करीब साढ़े तीन दशकों तक सत्ता में कायम रही और आंतरिक समस्याओं के कारण उसे सत्ताच्युत होना पड़ा। तृणमूल कांग्रेस के साथ भी कुछ ऐसी ही दिक्कतें पेश आ रहीं हैं। फिर भी राज्य में मौजूदा सियासी हालात है उन्हें देख कर लगता है कि एकमात्र तृणमूल कांग्रेस ही ‘उत्पादक राजनीति’ की मिसाल है। इसलिये तृणमूल कांग्रेस के बिना पश्चिम बंगाल की राजनीति अर्थहीन हो जायेगी। साथ ही , राज्य के मतदाताओं के समक्ष दूसरा को व्यवहारिक विकल्प भी नहीं है। अगर तृणमूल कांग्रेस अभी भी शांत होकर सही विकास कार्य करती है तो भाजपा के लिये बहुत स्कोप नहीं रह जायेगा क्योंकि देश भर में चुनाव वायदों के आधार पर लड़े जाते हैं और बंगाल ही एकमात्र ऐसा राज्य है जहां वायदों की संभावित विश्वसनीयता पर चुनाव लड़े जाते हैं। यहां बीजेपी को वोट पर्सेंटेज गिरावट के मोड में है। भारतीय राजनीति के पन्ने पलटें तो पहली बार गैर कांग्रेसी यानी सत्ता विरोधी ताकतें देश में पहली बार 1967 में एक साथ आईं थीं। उस वक्त दक्षिण और वामपंथी ताकतों ने हिंदी राज्यों में गठबंधन बनाया था और ऐसा गठबंधन कि कोई व्यक्ति कोलकाता से अमृतसर कांग्रेस शासित राज्यों में बिना घुसे पहुंच सकता था।बाद में 1975 के आपातकाल के बाद सत्ताविरोधी ताकतें जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में एकजुट हुईं। फिर 1989 में विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में और फिर 1996 में। लेकिन इस एकजुटता की उम्र बहुत लंबी नहीं रही। हालांकि ये भी सही है कि राजनीति में कोई स्थाई दुश्मन नहीं होता। कभी एक ही पार्टी में रहे और फिर लंबे समय तक एक-दूसरे को कोसने वाले लालू और नीतीश आज फिर एक साथ हैं। इसी तरह उत्तर प्रदेश में भी नवंबर 1993 और जून 1995 में सपा और बसपा मिलकर सरकार चला चुके हैं। 2004 में वामपंथी दलों ने केंद्र में उस यूपीए सरकार का समर्थन किया था जिसमें ममता बनर्जी केंद्रीय मंत्री थी। राजनीति संभावनाओं का खेल है। राजनीति में एक हफ्ता भी बहुत लंबा समय होता है। जबकि अभी कई महीने बाकी हैं। कोई भी जल्दी में नहीं दिखता, यहां तक लालू भी नहीं। कोलकाता में बीजेपी की मजबूत पकड़ मानी जाती है, लोकसभा चुनावों में ये दूसरे नंबर की पार्टी बन कर उभरी थी और 25 फीसदी वोट हासिल किए थे लेकिन निगम चुनावों में ये वोट घट कर 15 फीसदी हो गए। यही हाल रहा तो भाजपा अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के साथ तीसरे और चौथे स्थान के लिए मुकाबला करती नजर आएगी। सभी अपफवाहों के बावजूद मुख्यमंत्री ममता बनर्जी राज्य की जनता के मन में बहुत गंभीरता से कायम हैं और यहां तक कि प्रतिद्वंद्वियों तक के दिमाग में उनके लिये स्पेस है। बिहार में जिस तरह एंटी इंकम्बेंसी की हवा फैलाये जाने के बाद भी नीतीश ही जीते उसी तरस बंगाल में भाजपा की हर कोशिश के बाद समीकरण वही रहेंगे जो आज हैं।- लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं
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