10 नवम्बर 2015
देश के पहले चुनाव से लेकर आज तक यह नियम लागू है कि चुनाव में जीत नेता की होती है और हार कार्यकर्ता की। दोष-पाप धोने की यह व्यवस्था हर पार्टी में एक जैसी है। बिहार विधानसभा के चुनावों पर देर-सबेर लागू कर दिया जाएगा।इतिहास गवाह है कि यह सवाल जितनी बार पूछा गया, उत्तर हमेशा यही रहा कि पार्टी विस्तृत रिपोर्ट आने के बाद स्थिति की ‘समीक्षा’ होगी। वह ‘समीक्षा’, जिसमें अंततः पाया जाता है कि पराजय की जिम्मेदारी प्रधानमंत्री, पार्टी अध्यक्ष या रिमोट कंट्रोल की नहीं है। बिहार के चुनालव प्रचार के दौरान या किसी भी चुनाव के प्रचार के दौरान यह देखने को मिला होगा कि सभी नेता या दल मतदाताओं को सपने बेचने में लगे हैं। जो जितना बड़ा बिसाती है वह उतने ही सपने बेच पाता है और वोट पा लेता है। बिहार चुनाव के नतीजे बताते हैं कि भारतीय जनता पार्टी सपनों का पहले जैसी सौदागर नहीं रही। उसका टोकरा ख़ाली हो गया? जाति के आधार पर टिकट सभी दलों ने दिए। यादव या कुर्मी बहुल क्षेत्रों में सभी दलों के उम्मीदवार उन्हीं जातियों के थे लेकिन अंतिम परिणाम में सीटों का गणित भाजपा और मोदी के विरुद्ध चला गया। बिहार चुनाव में इस तथ्य को अनदेखा नहीं किया जा सकता कि बिहार ने अश्वमेध का घोड़ा दूसरी बार रोका है। दोनों बार घोड़ा छोड़ने वाली जमात भारतीय जनता पार्टी थी। पहले उसने लाल कृष्ण आडवाणी का रथ रोका था और इस बार नरेंद्र मोदी का।
बिहार के जनादेश में बहुत सारे सन्देश समाहित हैं। लेकिन जनादेश की सबसे बड़ी खासियत यही मानी जाएगी कि नीतीश का मोदी-विरोध सच्चा है। जनादेश ने इसी सच्चाई पर अपनी मोहर लगायी है। जनादेश से ये भी साफ हो गया कि अब राष्ट्रीय स्तर पर भी मोदी-विरोध की क़मान नीतीश के हाथों में ही होगी। केजरीवाल और ममता इस विरोध के प्रादेशिक क्षत्रप के रूप में और मुखर होकर दिखायी देंगे। नया जोश तो कांग्रेस में भी दिखेगा। बशर्ते, राहुल गांधी कुछ ज्यादा परिपक्वता से पेश आएं और अपने सलाहकारों में अनुभवी नेताओं को प्राथमिकता दें। मोदी खेमा ठीक से आत्म-विश्लेषण करे। मोदी जी को यह मानना पड़ेगा कि लोकसभा चुनाव के साल भर में बहुत कुछ बदल गया। बिहार के मतदाताओं ने मोदी के विकास और उनके जाति-समीकरण पर भरोसा नहीं किया। कटाक्ष उलटे पड़ गए। जुमले मजाक बने। एनडीए मूलतः बिहार के डीएनए में नहीं था और उसने इसे दिखा दिया। अमित शाह और नरेन्द्र मोदी के अलावा मोहन भागवत भी अपने गिरेबान में झांकें और भारत की समावेशी राजनीति को आत्मसात करने का गुर सीखें। अब नीतीश के सामने पहाड़ जैसी चुनौतियां हैं। सत्ता का अनुभव उनकी मदद करेगा। लेकिन लालू और आरजेडी को राज्य-हित में साधकर चलना आसान नहीं होगा। सबसे पहले तो नीतीश को जंगलराज के बदनुमा दाग को धोना होगा। इस चुनाव में उन्हें पसन्द करने वाले लाखों मतदाता ऐसे थे जो लालू यादव के साथ जाने से नाखुश थे। इनमें ज्यादातर सवर्ण और शहरी शिक्षित वर्ग के लोग हैं। नीतीश को न सिर्फ बिहारवासियों बल्कि देश के जहन में बैठी इस आशंका को खत्म करना होगा कि कहीं उनकी नयी सरकार लालू की जंगलराज वाली छवि के आगे घुटने तो नहीं टेक देगी। बेहतर होगा कि बिहार का गृह-विभाग और पुलिस-प्रशासन दोनों सीधे मुख्यमंत्री के पास हों। रोजमर्रा का काम बांटने के लिए वो भले ही राज्यमंत्री को साथ रखें। लेकिन इस मोर्चे पर चमत्कार करके दिखाएं। यदि नीतीश ऐसा कर सकें तो जल्द ही वो महागठबन्धन पर लगे दागों को धो सकेंगे। इस चुनाव में जनता ने नई संभावनाओं को खोजा है और नेतृत्व को इससे सीख लेनी चाहिए। राजद को इतनी अधिक सीटें मिलीं। इस राज्य में गरीब, उपेक्षित, पिछड़े, अतिपिछड़े, दलित, अल्पसंख्यक आदि ही बहुसंख्यक हैं, इसलिए इस विशाल तबके के हितों को ध्यान में रखना नेतृत्व के लिए भी अपेक्षित होगा और राज्य के लिए भी। वहीं जदयू विकास की अपनी नीति को गरीबों के पक्ष में और ज्यादा ले जा सके, तो उसका दूरगामी प्रभाव होगा।
इस चुनाव में बिहार ने सबसे बड़ी सीख यह दी है कि सांप्रदायिक असहिष्णु भाषा और आचरण की अपनी राजनीतिक सीमा है। भारतीय समाज में सामान्य जन उसे व्यापक समर्थन नहीं दे सकता। किसी खास समय और संदर्भ में भले ही वह वोट का जरिया बने, मगर ज्यादा स्थितियों में उसके राजनीतिक और चुनावी परिणाम भी नकारात्मक होंगे। बिहार की कानून-व्यवस्था को यदि नीतीशकुमार ने चमका दिया तो उत्तर प्रदेश में भी बीजेपी के लिए भगवा फहरा पाना मुश्किल हो जाएगा। नीतीश चाहें तो पड़ोसी नेपाल के साथ भी भारत के ऐतिहासिक रूप से खराब हो चुके रिश्तों में भी नयी जान डाल सकते हैं। यदि ऐसा हुआ तो मोदी जी की लड़खड़ाती विदेश नीति को नीतीश एक जोरदार और शानदार सबक देने में सफ़ल हो जाएंगे। नीतीश और लालू की जोड़ी को एक और बात गांठ बांधनी होगी कि वो मुसलमानों के प्रति ऐसी नीतियां न अपनायें जिससे बीजेपी और संघ को ये प्रचार करने का मौका मिले कि वो कांग्रेस की तुष्टिकरण और वोट-बैंक की राह पर चल रहे हैंं। नेताओं को अपने दिमाग से ये गलतफहमी निकालनी होगी कि मुसलमानों को आरक्षण का झुनझुना थमाकर राजनीति चमकायी जा सकती है।
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