5 नवम्बर
लेखकों द्वारा पुरस्कार लौटाने का विरोध करने वाले अक्सर यह कहते सुने जाते हैं कि जब आपात काल लागू हुआ था तब क्यों नहीं लौटाया पुरस्कार या सम्मान या जब सिख विरोधी दंगे हुए थे तब क्यों नहीं लौटाया या जब गुजरात में दंगे हुए थे तब क्यों नहीं ऐसा हुआ जो आज हो रहा है। पर ऐसे लोग शायद जानबूझ कर मिथ्या प्रचार कर रहे हैं। पहले यहां यह स्पष्ट कर दें कि करीब करीब हर लेखक और कलाकार ये कहलाना पसंद करता है कि वह अराजनीतिक है लेकिन रचनात्मकता शून्य में तो नहीं पैदा होती। हर रचनात्मकता में राजनीति का कुछ न कुछ पुट जरूर होता है और पुरस्कार को लौटा कर ये बुद्धिजीवी एक तरह का कड़ा राजनीतिक संदेश दे रहे हैं। अमरीकी उपन्यासकार टोनी मॉरिसन ने एक बार सही ही लिखा था, "जो लोग ये कह कर कि वे यथास्थिति को पसंद करते हैं, राजनीतिक न होने की बहुत ज्यादा कोशिश करते हैं, वे वास्तव में राजनीतिक सोच वाले लोग होते हैं।" साहित्य अकादमी या पद्म पुरस्कार लौटाने वाले लोगों के समर्थन या विरोध में कई तर्क दिए जा सकते हैं लेकिन ये बात अधिकतर लोग मानेंगे कि उनके इस क़दम ने देश में बढ़ती हुई असहिष्णुता की ओर सबका ध्यान जरूर खींचा है। पुरस्कार लौटाने की शुरुआत सबसे पहले गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने की थी जब उन्होंने जालियांवाला बाग कांड के विरुद्ध नाइटहुड यानी सर की उपाधि वापस कर दी थी। पद्म पुरस्कारों की निष्पक्षता पर शुरू से सवाल उठते आए हैं। इस पर पहला सवाल पचास के दशक में तत्कालीन शिक्षामंत्री मौलाना आजाद ने उठाया था जब उन्होंने खुद को भारत रत्न दिए जाने के फैसले को अस्वीकार करते हुए कहा था कि पुरस्कार चुनने वाले लोगों को खुद को पुरस्कार देने का अधिकार नहीं है। ऐसे उदाहरण करीब-करीब नहीं के बराबर हैं जब किसी सरकार ने अपने राजनीतिक विरोधियों को इस सम्मान के लिए चुना हो। इसका एक ही अपवाद है जब नरसिंह राव के नेतृत्व वाली सरकार ने विपक्षी दल के अटल बिहारी वाजपेयी को पद्मविभूषण देने का फ़ैसला किया था। आज साहित्यकारों का यह प्रतिरोध इस अर्थ में सफल है कि उन्होंने अभिव्यक्ति की आजादी और बहुलतावादी सह अस्तित्व के मुद्दे पर देश का ध्यान खींचा है। इस दौरान लेखकों को लगातार यह तोहमत झेलनी पड़ी कि उनका पूरा विरोध प्रायोजित है।भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने यहां तक कह दिया कि यदि आपको देश में बढ़ती असहिष्णुता की इतनी ही चिंता है तो आपने इससे पहले इतने दंगे हुए, तब अपने पुरस्कार क्यों नहीं लौटाए, जब देश में आपातकाल लागू हुआ, तब आपने पुरस्कार क्यों नहीं लौटाए? उनसे बार-बार यह सवाल पूछा गया कि इसके पहले उन्होंने इमरजेंसी या ऐसी दूसरी बड़ी घटनाओं का विरोध क्यों नहीं किया। यह तोहमत यही साबित करती है कि हम मूलतः ऐसे छिछले समाज में बदलते जा रहे हैं जो बीते हुए संघर्षों को याद तक नहीं करता, क्योंकि उसके लिए राजनीति और सत्ता सबसे बड़े मूल्य, सबसे बड़ा सच हैं। क्योंकि समाज का यह बदलाव राजनीति और सत्ता के ही डायनामिक्स से आता है। जहां तक इमरजेंसी का सवाल है उस दौरान तो राजनीतिज्ञों के अलावा लेखकों, पत्रकारों और चित्रकारों ने भी लड़ी थी। उस दौर के हर अादमी को भारती की ये पंक्तियां याद होंगी , शहर का हर बशर वाकिफ है
कि पच्चीस साल से मुजिर है यह
कि हालात को हालात की तरह बयान किया जाए
कि चोर को चोर और हत्यारे को हत्यारा कहा जाए
कि मार खाते भले आदमी को
और असमत लुटती औरत को
और भूख से पेट दबाये ढाँचे को
और जीप के नीचे कुचलते बच्चे को
बचाने की बेअदबी की जाये
इमरजेंसी के दौरान सम्मान लौटाने वालों में फणीश्वर नाथ रेणु और नागार्जुन के अलावा हंसराज रहबर, गिरधर राठी, मुरली मनोहर प्रसाद सिंह, सुरेंद्र मोहन, डॉ रघुवंश, कुमार प्रशांत, कुलदीप नैयर जैसे कई बड़े लेखक और पत्रकार थे, जिन्हें इमरजेंसी के दौरान जेल तक काटनी पड़ी थी। सिख विरोधी दंगों से क्षुब्ध हो कर पाश ने लिखा था
‘मैंने उसके ख़िलाफ़ जीवन भर लिखा और सोचा है
आज उसके शोक में सारा देश शरीक है
तो उस देश से मेरा नाम काट दो।
मैं उस पायलट की धूर्त आंखों में चुभता हुआ भारत हूं
अगर उसका अपना कोई भारत है
तो उस भारत से मेरा नाम काट दो’
गुजरात दंगों के दौरान मंगलेश डबराल की मशहूर कविता किसे याद नहीं होगी।
संक्षेप में पुरस्कार लौटानेवाले बढ़ती असहिष्णुता और हिंसा के लिए केंद्र सरकार और सत्तारूढ़ पार्टी को इसीलिए दोषी मानते हैं कि जो तत्व हिंसा कर रहे हैं, उनको सरकार और पार्टी का प्रत्यक्ष या परोक्ष समर्थन प्राप्त है। लेकिन पिछले कुछ सालों से स्थिति ख़राब हुई हैं। दाभोलकर, पानसरे और कुलबर्गी की हत्याएं इस खराब होते हालात का प्रतीक है। इस स्थिति पर कोई चुप है तो हो सकता है हालात इतने बिगड़ जाएं कि हम भी उनके शिकार होने लगें। महर्टिन नीमोलर की वह विख्यात कविता है न
‘....अंत में वे मेरे लिये आये,
और तब मेरी मदद करने वाला
वहां कोई नहीं था।’
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