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Thursday, November 26, 2015

बदलेगा बिहार


23 नवम्बर 2015
नीतीश कुमार ने एक बार फिर मुख्यमंत्री पद की शपथ ली है। विख्यात उपन्यासकार फणिश्वर नाथ रेणु के मुहावरे को उधार लें तो गांधी मैदान में आयो​जित शपथ ग्रहण समारोह बारहों बरण के लोग थे। इस ‘बारहों बरन’ की एक ‘समुचित’ व्यवस्था नीतीश कुमार ने महागठबंधन के टिकट वितरण में भी की थी। राजद, जदयू और कांग्रेस के प्रत्याशियों की घोषणा संयुक्त प्रेस कांफ्रेंस में नीतीश कुमार ने की थी और आदत के विपरीत जाकर एक जातिगत ब्योरा भी जारी किया था। महागठबंधन की इस सोशल इंजीनियरिंग को भाजपा और उसके घटक दल नहीं समझ सके। इस कारण चुनाव में उन्हें भारी कीमत चुकानी पड़ी। लोकतंत्र में सरकार हर घटना के लिए जिम्मेदार होती है। भारत में हालांकि बाहरी सतह पर विचारधारा सेक्युलरिज्म की थी, लेकिन आजादी के बाद से अब तक कोई बड़ा सामाजिक बदलाव लाने की कोशिश नहीं की गई। इसलिए जातीय झगड़े एवं सांप्रदायिक तनाव सतह के नीचे बने रहे। जाति प्रथा की गैर-बराबरी खत्म नहीं की गई, बल्कि मंडल आयोग के जरिये उसे प्रोत्साहित किया गया। सेक्युलरिज्म अल्पसंख्यकों का रक्षा कवच बन गया। नई स्थितियों में उन पर हमले हो रहे हैं। लोकतंत्र में बहुत दिनों से दबे-कुचले और हाशिये पर छोड़े गए लोग सार्वजनिक रूप से सामने आ गए हैं। वे न तो सेक्युलर हैं और न उदारवादी, बल्कि वे भारतीय हैं। उनकी भाषा हमेशा से अलग रही है। बिहार में मंत्रिमंडल निर्माण में भी नीतीश कुमार ने इसी भारतीय सोशल इंजीनियरिंग का कमाल दिखलाया है। इस बार सरकार कोई जातिगत ब्योरा तो जारी नहीं कर सकती थी, लेकिन जिन 28 मंत्रियों ने शपथ ली है, उनका जातिगत ब्योरा तैयार किया जाए तो इस प्रकार होगा-यादव 7, मुसलमान 4, दलित 5, अति पिछड़े 4, कुशवाहा 3, राजपूत 2 और कुर्मी, भूमिहार और ब्राह्मण एक-एक। प्रतिशत में देखें तो यादव 25 प्रतिशत, दलित 18 प्रतिशत, मुस्लिम, अति पिछड़े, कुशवाहा, कुर्मी, सवर्ण में हर एक 14 प्रतिशत। दिल्ली में बैठे अभिजात वर्ग के समाजशास्त्री यह सबअल्टर्न सोशियोलॉजी नहीं समझ पाये और चुनाव में पिट गये। बिहारी समाज में इस जातीय समीकरण के मायने हैं। यह उनके पिछड़ेपन का भी परिचायक हो सकता है, या फिर उनके अतिरिक्त रूप से जागरूक होने का भी। यह काम विशिष्ट समाजशास्त्रियों या राजनीतिवेत्ताओं पर छोड़ हमें इस पर विचार करना चाहिए कि इस सरकार के साथ बिहार की नियति एकाकार हो सकेगी या नहीं? 64 साल के नीतीश कुमार के शपथ लेने के बाद जब उनसे 38 साल छोटे तेजस्वी यादव शपथ लेने आए तो कई लोगों को यह दृश्य खटका। ये और बात है कि छोटे भाई तेजस्वी ने बड़े भाई तेज प्रताप से पहले शपथ ली। अपेक्षा को उपेक्षा पढ़ देने की गलती कर तेजप्रताप ने विरोधियों को मौका दे दिया। उन लोगों की निगाहें सतर्क हो गयीं जो देख रहे थे कि वरिष्ठ नेताओं से पहले दोनों भाइयों का शपथ लेना कहीं मजबूत नीतीश के आंगन में मजबूत लालू का आगमन तो नहीं। मंत्रिमंडल में राजद और जेडीयू के 12-12 मंत्री हैं। कांग्रेस के चार मंत्री बनाए गए हैं। एक फार्मूला निकला जो सब पर लागू हुआ कि हर पांच विधायक पर एक मंत्री होगा। इनसे काम लेने में मुख्यमंत्री को ज्यादा मेहनत करनी पड़ेगी, लेकिन एक फायदा भी होगा कि ये अभी ‘खाली स्लेट’ की तरह होंगे। इनकी कार्य संस्कृति पर मुख्यमंत्री अपना प्रभाव बना सकेंगे। राजनीतिक रूप से यह ज्यादा महत्वपूर्ण इसलिए है कि राजद-जदयू की एक नई पीढ़ी प्रशिक्षित होगी। कर्पूरी ठाकुर के निधन के बाद लोक दल के कई वरिष्ठ नेताओं को किनारे कर जब लालू प्रसाद को प्रतिपक्ष का नेता चुना गया था, तब भी इस तरह की आशंका व्यक्त की गई थी कि युवा लालू प्रसाद समाजवादी विरासत को कैसे संभाल पाएंगे? सब संभल गया और बेहतर ही संभला, लेकिन इसमें दो राय नहीं हो सकती कि नये मंत्रियों को कड़ी मेहनत करनी होगी। पिछले दस साल में आधारभूत ढांचे अर्थात सड़क, बिजली को एक हद तक ठीक कर लिया गया है, लेकिन शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्र में चुनौतियां भरी पड़ी हैं। जयप्रकाश आंदोलन का केंद्रीय विषय शिक्षा में आमूलचूल परिवर्तन था। नीतीश और लालू ने कभी साथ नारा लगाया था-‘राष्ट्रपति हो या भंगी की संतान, सबकी शिक्षा एक समान।’ नीतीश ने सरकार बनते ही समान स्कूल शिक्षा प्रणाली आयोग गठित किया था। सरकार ने उस पर कोई फैसला लिया होता तो गरीबों की शिक्षा में गुणात्मक परिवर्तन आते। तेजी से ज्ञान केंद्रित हो रहे विश्व में शिक्षा जरूरी हथियार है। पुराने जमाने में भी वैदिक ऋषि बिहार को नहीं समझ पाए थे। आज भी अभिजात और विकसित दुनिया के लोग बिहार को गंवार और हर तरह से पिछड़ा मानते हैं, बिहारियों का मजाक उड़ाया जाता है। उनके शब्दों में बिहार कभी सुधर नहीं सकता। बिहार मर रहा है, लेकिन इसी बिहार ने भाजपा की चुनौती को स्वीकार किया और तय है कि बिहार चुनाव के नतीजे देश में नई राजनीति के संदेश देंगे। जनता ने इस सरकार को हाथ पर हाथ धर कर बैठने और राज करने के लिए समर्थन नहीं दिया है, बिहार को बदलने के लिए दिया है।

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