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Thursday, November 26, 2015

पेरिस हमला: सबको सम्यक भाव से सोचना होगा


16 नवम्बर 2015
पे​रिस में शनिवार को आधी रात के बाद क्रूरतम हमला उस समाज पर दूसरे विश्वयुद्ध के बाद सबसे बड़ा हमला था। राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद ने इसे फ्रांस के विरुद्ध जंग कहा है और हमलावरों से बेरहमी से निपटने का एलान किया है। आई एस ने इस हमले की जिम्मेदारी ली है और कहा है कि सीरिया और इराक पर हमलों में जो फ्रांस ने हिस्सा लिया यह उसके बदले का आगाज है। राष्ट्रपति ओलांद ने कहा है कि यह फ्रांस पर हमला है और उन मूल्यों पर आक्रमण है जिनकी फ्रांस दुनिया भर में तरफदारी करता है। हमलों के बाद पेरिस के आम लोग डरे और सदमे में हैं। ये डर यहां की अल्पसंख्यक मुस्लिम आबादी में ज्यादा है। लेकिन फ्रांस का एक इतिहास ये भी है कि यहां सदियों से ईसाई, मुसलमान और यहूदी मिलकर रह रहे हैं और यहां धर्मनिरपेक्षता बहुत मज़बूत है। ऐसा ही डर का माहौल जनवरी में शार्ली हेब्दो के दफ्तर पर हुए हमले के बाद भी था। लेकिन तब कोई अप्रिय घटना नहीं हुई थी और फ़्रांस का समाज एकजुट था। यहां प्रशासन जोर देकर इस बात को कह रहा है कि ऐसी किसी भी घटना को रोका जाएगा लेकिन यहां के मुसलमानों में जरूर प्रतिक्रियाओं का डर है। जिस स्टेडियम में फ्रांस-जर्मनी के बीच दोस्ताना फुटबाल मैच चल रहा था, वहां मैच के ऐन बीच ऐसा बर्बर हमला अप्रत्याशित और दहलाने वाला था। हमले की टाइमिंग भयावह थी। उदारतावादी और जनतांत्रिक समाज को अपने आतंक के आगे झुकाना चाहती थी। आतंकवाद इसी तरह काम करता है। सारी दुनिया को अपने जैसा बना लेना चाहता है। आतंक ऐसा हिंसक व्यापारी है, जो आतंक फैलाकर समाज को अपने आगे नतमस्तक करना चाहता है या प्रतिक्रिया में अपने जैसा बना लेना चाहता है। सीरिया की सरकार को उलटाने के लिए सऊदी अरब जैसे देशों ने आईएसआईएस के आतंकवादियों की जमकर मदद की और सऊदी अरब की पीठ पर किसका हाथ है? अमरीका का! अमरीका ने ही अफगानिस्तान के आतंकवादियों को बढ़ावा दिया था, जिन्होंने अब पाकिस्तान को भी बेहाल कर दिया है। अमरीका भूल गया कि हिंसक लोग उसी हाथ को काट खाते हैं, जो उन्हें खिलाता है। जनरल जिया उल हक और राजीव गांधी की हत्या इसके ठोस प्रमाण हैं। पश्चिमी राष्ट्र आतंकवादियों में फर्क करना बंद करें, यह पहला काम है। आतंकवादी अच्छे और बुरे, अपने और पराए नहीं होते। ये किसी के सगे नहीं होते। ये अपने आप को लाख इस्लामी कहें, ये इस्लाम के सबसे बड़े दुश्मन हैं। हमले के बाद भारत की मीडिया में कहा गया कि यह मुम्बई हमरे की तरह का हमला था। बेशक रहा होगा पर दोनों के प्रति रेस्पांस में भारी फर्क था। किसी भी फ्रेंच चैनेल में यह देखने को नहीं मिला कि दरअसल इससे कैसे निपटा जाय। भारत में सारी ताकतें यहीं पर आकर ठहर जाती हैं। लेकिन ऐसे वाकयों से ऐसा बर्बर और हिंसक आतंकवाद न लज्जित होता है, न रुकता है। हमारे दल, उनके नेता भी इसी तरह की ‘पालिटिकली करेक्ट’ किया करते हैं जबकि आतंकवाद किसी की पालिटिकली करेक्ट लाइन से कायल नहीं होने वाला। बेहतर हो हम ऐसी ‘करेक्ट’ बहसें बार-बार न किया करें और आतंकवाद की तह तक पहुंचने की कोशिश करें तभी कुछ काट हो सकेगी। उसके आर्थिक, सामरिक, सामाजिक, मनौवैज्ञानिक और सांस्कृतिक आयामों को धैर्य से समझने की कोशिश करें। उसका तात्कालिक उपचार प्रशासनिक एक्शन हो सकता है, लेकिन उसका ऊर्ध्वगामी उपाय आतंकवाद को पूरी समग्रता में समझकर ही हो सकता है। नियमित सेनाएं, कड़ा प्रशासन, आतंकी अड्डों पर सीधे हमले आतंकवाद का बहुत कुछ नहीं बिगाड़ सकते। आतंकी मानसिकता और संगठनों को कोई कमजोर कर सकता है, तो तरह-तरह के आतंकियों के अंडरग्राउंड मनोविज्ञान के प्रति जनजागरूकता ही कर सकती है। इन आतंकी हमलों की जड़ें बहुत गहरी हैं। जरूरी उन तक पहुंचना है। यह किसी से छिपा हुआ नहीं कि आतंकवादी संगठनों को चाहे पैसों की सप्लाई हो या हथियारों की सप्लाई, इसमें कई बार राष्ट्रों की सरकारों का ही हाथ होता है। अफगानिस्तान में रूस ने क्या किया और कैसे अमरीका ने तालिबान को खड़े होने दिया, यह सबको पता है। आईएसआईएस जैसा संगठन खड़ा करने के लिए बेशुमार पैसों और संसाधनों की जरूरत है। कोई न कोई तो उन्हें यह सब मुहैया करवा ही रहा है। इनमें से कितने ही ऐसे होंगे जो कभी पकड़े नहीं जाएंगे। क्योंकि वे सभी राजनीति से जुड़े हुए हैं। वे सत्ता के भागीदार हैं। उन्हें हर कीमत पर अपनी सत्ता बचानी है। इसके लिए वे बहुत गणित से चलते हैं। सिर्फ पाकिस्तान के ही सत्ताधारी नहीं हैं अकेले, जिन्होंने हाफिज सईद को बचाकर रखा हुआ है, लगभग हर मुल्क के सत्ताधारियों ने धार्मिक असहिष्णुता फैलाने वाले लोगों को पनाह दी हुई है क्योंकि वे उन्हें सत्ता में बने रहने के लिए बहुत जरूरी लगते हैं। उसके लिए क्या उनका पूरा समाज और उनकी सरकार जिम्मेदार नहीं? इसके लिए क्या वह व्यवस्था जिम्मेदार नहीं जिसने दुनिया के एक फीसदी लोगों के हाथों में बाकी बची निन्यानबे फीसदी लोगों के बराबर दौलत सौंप दी है? जाहिर है, यह दौलत ईमानदारी से कमाई गई दौलत नहीं। इसे सरकारों के साथ सांठगांठ और गरीबों के शोषण के जरिए ही हासिल किया गया है। जवाबी आतंकवाद भी कोई हल नहीं है। गोली का जवाब गोली से जरूर दिया जाए लेकिन बोली के हथियार से बड़ा कोई हथियार नहीं है। आतंकवादियों से सीधा संवाद कायम करना भी उतना ही जरूरी है, जितना कि उन पर बंदूक ताने रखना। फिलहाल महज शुरुआत है पर गंभीर और दोटूक। इसमें केंद्र बिंदु असहिष्णुता बनाम सहिष्णुता का है। इस्लाम और इस्लाम के बंदों को सोचना होगा कि असहिष्णु कौन है? वे हैं या दुनिया के दूसरे धर्म? किसका इतिहास, किसका ट्रैक रिकार्ड कैसा है?भारत में हम लोगों को भी सम्यक भाव से यह सोचना चाहिए।

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