21 नवम्बर 2015
हमारा भारतीय समाज कई तरह की विचारधाराओं से ‘ग्रस्त’ है। कुछ लोग सरकार या सत्तारूढ़ दल के समर्थक हैं, कुछ विरोधी हैं और कुछ निष्पक्ष हैं। जो निष्पक्ष हैं उनमें कुछ ऐसे निष्पक्ष हैं जो निष्पक्षता का दिखावा करते हैं, समाज को, सरकार को और मीडिया को कोसते हैं। कोसने या आईना दिखाने की बातें कहीं नहीं पहुंचतीं कि देखो पेरिस को, याद है न 9/11, कैसे हुई थी वहां मीडिया की कवरेज़, कैसे पेश आया था वहां का समाज एक-दूसरे के साथ। और यहां क्या होता है… सम्मान लौटाने का ढोंग, असहिष्णुता फैल रही है या नहीं, इस पर परिचर्चा। प्रचंड वाक्-युद्ध। हर स्तर पर। सबमें ख़ुद को औरों से बेहतर, समझदार, संवेदनशील बताने की होड़ लग जाती है। अन्तहीन, अनुपयोगी, अनुपयोगी इसलिए क्योंकि देखते ही देखते सारी चर्चा और बहस, सच और छद्म के दलदल में जा फंसती है। अपनी-अपनी टीम के लिए नये-नये गोल दाग़ने और बड़ा स्कोर खड़ा करने की होड़ छिड़ जाती है। यहां ऐसे लोगों या समूहों की पीड़ा को रेखांकित करने का इरादा नहीं है बल्कि इस श्रेणी में कुछ ऐसे लोग भी हैं जो ऐसी किसी भी दौड़ में शामिल नहीं हैं , जो किसी भी दरबार के दरबारी नहीं हैं और जो चाहते हैं कि समाज तरक्की करे। ये लोग इस अभागे देश के ऐसे असहाय प्राणी हैं जो चुनावी राजनीति के मैदान में एक दूसरे को नष्ट कर डालने और अपनी जीत के लिए किसी भी हद तक नीचे गिर जाने वालों में से किसी की भी जीत-हार पर तालियां नहीं पीटते, बल्कि सोचते हैं कि जीतने वाला गरिमा के साथ अपने वचनों-वादों का निर्वाह करेगा और हारने वाला बौराए बंदर की तरह इस-उस को काटने के लिए दौड़ने के बजाय गरिमा के साथ जनादेश को शिरोधार्य करेगा। ये लोग जो हर चुनाव के बाद आकलन करते हैं कि इस देश के लोकतंत्र की सभ्यतापूर्ण जीत हुई या असभ्यतापूर्ण बर्बर हार। ये लोग न तो महागठबंधन की जीत का जश्न मनाते हैं, और न दरबार की हार का मातम। ये उन लोगों में से हैं, जो चालू राजनीति की तमाम लंपटताओं, विद्रूपताओं, विकृतियों, बेहूदगियों के निर्बाध नंगे नाच के बावजूद जब कोई इस नंगे नाच को बंद कराने की बात करता है, अभद्र राजनीति के क्षुद्र, चालू मुहावरों को बदलने की कसम खाता है, देश-समाज को भ्रष्टाचार की महामारी से मुक्त कराने का वादा करता है, अपने कुत्सित स्वार्थो के बजाय जनता के हितों को अपनी राजनीति के केंद्र में स्थापित करने का वक्तव्य देता है, तो अनायास उस पर भरोसा कर लेते हैं। लेकिन ये लोग उनसे जैसे व्यवहार की अपेक्षा रखते हैं, उसे सीखने और अपनाने की प्रक्रिया बहुत लम्बी है। पीढ़ियों जितनी लम्बी। इंसान तोते की तरह नक़ल करना तो बहुत जल्दी सीख सकता है, लेकिन समझदार और विवेकशील इंसान बनने में, उसके जैसी हरकतें सीखने में, कई युग लग जाते हैं। आप पूछ सकते हैं कि इंसानियत को सीखने की पाठशाला कहां है? उसका ककहरा और व्याकरण क्या है? प्रश्न सटीक है। सार्थक है। आपको मालूम होना चाहिये कि इस पाठशाला का नाम समाज है। इन दिनों सबसे ज्यादा बहस असहिष्णुता पर है , लेकिन ये कैसे बताएं कि सहिष्णुता सिखाने का कोई क्रैश कोर्स नहीं होता और इसे वही सीखेगा और समझेगा जिसका वास्ता असहिष्णुता से पड़ा होगा। जिसने असहिष्णुता को झेला होगा। इस पर चर्चा की होगी। उसकी जड़ में गया होगा। क्योंकि इलाज तो जड़ से ही मुमकिन है,वर्ना हम तर्कों-कुतर्कों के दलदल में ही फंसे रहेंगे कि आतंकवाद का कोई मजहब होता है या नहीं? उस समाज ने मोदी जी के दिखाए गए सपनों पर भरोसा किया था, ‘सबका साथ सबका विकास’ के उनके नारे से स्वयं को जोड़ लिया था, बीमार और भ्रष्ट राजनीतिक शैली के स्थान पर स्वस्थ और जनपरक सर्वसमावेशी राजनीति करने के आपके वादे को इस समाज ने उम्मीद से देखा था। वास्तव में नये भारत की परिकल्पना लोगों के मन में उमड़ने-घुमड़ने लगी थी। लेकिन क्या हुआ। यही नहीं, अब बिहार की देखें , जब यह लिखा जा रहा है उस समय बिहार के विकास पुरुष शपथ ले रहे हैं। खबर है कि इस शपथ ग्रहण या कहें सत्ता के पाणिग्रहण समारोह में 20 करोड़ रुपये से ज्यादा खर्च हुये हैं। काश कोई ऐसा होता जो बुरा बनकर भी जनता का यह पैसा बचा देता। लेकिन, कोई नहीं बोल रहा है। यहां तक कि जंगलराज का भय दिखाने वाले भी चुप हैं। भारत एक गहन अंधकार में फंस गया है। लेकिन नाउम्मीदी जैसी कोई बात भी नहीं है, वो सुबह कभी तो आयेगी, बस यही उम्मीद रखें।
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