24 नवम्बर 2015
देश के बड़े भूभाग के किसान हताश हैं। 20 राज्यों के 300 जिलों पर सूखे की मार है। संविधान के अनुसार कृषि राज्य का विषय है। चिन्ता का विषय है कि सरकार ने अकाल जैसी जमीनी हकीकत को सर्वोच्च वरीयता क्यों नहीं दी? कर्नाटक ने पूरी तैयारी के साथ केंद्र को सूचना दी। यूपी के साथ बिहार भी सूखे की चपेट में है। बिहार में चुनावी जीत का जश्न है। सूखे की मार महाराष्ट्र, तेलंगाना व झारखंड भी झेल रहे हैं। यूपी में बुंदेलखंड क्षेत्र की स्थिति पहले से ही भयावह है। इस राज्य में अतिवृष्टि और ओलावृष्टि की आपदा से पीड़ित किसानों ने आत्महत्या भी की थी। यह अलग बात है कि सरकार ने आत्महत्या के तथ्य स्वीकार नहीं किए। गत सितम्बर में अस्सी साल बाद जारी किए गए सामाजिक, आर्थिक और जातीय जनगणना के आंकड़े भारत की चमचमाती तस्वीर के पीछे का विद्रूप चेहरा उजागर करने के लिए काफी हैं। आंकड़े के अनुसार गांव में रहने वाले 39.39 प्रतिशत परिवारों की औसत मासिक आय दस हजार रुपये से भी कम है। आय और व्यय में असमानता की हर दिन गहरी होती खाई का ही परिणाम है कि कुछ दिनों पहले ही संयुक्त राष्ट्र के खाद्य व कृषि संगठन द्वारा जारी की गई रपट में बताया गया है कि भारत में 19.4 करोड़ लोग भूखे सोते हैं। हालांकि सरकार के प्रयासों से पहले के मुकाबले ऐसे लोगों की संख्या कम हुई है। हमारे यहां बीपीएल यानी गरीबी की रेखा से नीचे जीवनयापन करने वालों की संख्या को ले कर भी गफलत है। हालांकि यह आंकड़ा 29 प्रतिशत के आसपास सर्वमान्य-सा है। भूख, गरीबी, कुपोषण व उससे उपजने वाली स्वास्थ्य, शिक्षा, मानव संसाधन प्रबंधन की दिक्क्तें देश के विकास में सबसे बड़ी बाधक हैं। हमारे यहां न तो अन्न की कमी है और न ही रोजगार के लिए श्रम की। पिछले दिनों आई ए एस प्रशिक्षुओं ने प्रधानमंत्री को बताया कि देश में कागजों पर योजनाएं हैं, लेकिन कमी है तो उन योजनाओं के क्रियान्वयन के लिए स्थानीय स्तर की मशीनरी में जिम्मेदारी और संवेदना की। जिस देश में नए खरीदे गए अनाज को रखने के लिए गोदामों में जगह नहीं है, जहां सामाजिक जलसों में परोसा जाने वाला आधे से ज्यादा भोजन कूड़ा-घर का पेट भरता है, वहां ऐसे भी लोग हैं, जो अन्न के एक दाने के अभाव में दम तोड़ देते हैं। महाराष्ट्र में अरबपति शिरडी मंदिर के पास ही मेलघाट में हर साल हजारों बच्चों की कुपोषण से मौत की खबर या फिर राजस्थान का बारां जिला हो या मध्यप्रदेश का शिवपुरी जिला, जहां आदिवासियों की बस्ती में पैदा होने वाले कुल बच्चों के अस्सी प्रतिशत के उचित खुराक न मिल पाने के कारण छोटे में ही मर जाने के वाकये इस देश में हर रोज हो रहे हैं। लेकिन विज्ञापन में मुस्कुराते चेहरों, दमकती सुविधाओं के फेर में वास्तविकता से परे उन्मादित भारतवासी तक ऐसी खबरें या तो पहुंच नहीं रही हैं या उनकी संवेदनाओं को झकझोर नहीं रही हैं। देश भर के कस्बे-शहरों से आए रोज गरीबी, कर्ज व भुखमरी के कारण आत्महत्या की खबरें आती हैं, लेकिन वे किसी अखबार की छोटी-सी खबर बन कर समाप्त हो जाती हैं। इन दिनों बुंदेलखंड की आधी ग्रामीण आबादी सूखे से हताश होकर पेट पालने के लिए अपने घर-गांव से पलायन कर चुकी है। वैदिक साहित्य में भी प्राकृतिक आपदाओं की चिन्ता का उल्लेख है। ऋग्वेद प्राचीनतम शब्द साक्ष्य है। यहां इन्द्र को वृत्रहन्ता कहा गया है। मैक्डनल ने वैदिक माइथोलोजी में वृत्र को ‘चीफ डेमन ऑफ ड्राट’ बताया है। वृत्र यानी सूखे का दानव। इन्द्र वर्षा लाते हैं, सूखे का दानव ढेर हो जाता है। सूखा है भी किसानहन्ता दानव। महाभारत के बाद युधिष्ठिर राजा बने। नारद आए। उन्होंने हालचाल पूछा। युधिष्ठिर ने कहा, आपकी कृपा से हमारी कृषि बादलों पर निर्भर नहीं है। कृषि बहुत बड़े किसान समुदाय की आजीविका है। कृषि उत्पादन व्यवसाय मात्र नहीं है। यह अन्न सुरक्षा की गारंटी भी है। विश्व खाद्य कार्यक्रम का यह भी मानना है कि आने वाले दो-तीन वर्ष तक खाद्यान्न और तेलों की कीमतें बढ़ती जाएंगी। इसके आकलन के अनुसार इस समय हालत यह है कि लगभग 70 फीसदी विकासशील देश खाद्यान्नों का आयात कर रहे हैं। वर्ष 2030 तक स्थिति और खराब होने वाली है। एक अध्ययन के अनुसार विकासशील देश अपनी आवश्यकता का अधिकतम 86 फीसदी खाद्यान्नों का ही उत्पादन कर सकेंगे, आयात पर उनकी निर्भरता और बढ़ेगी। मौजूदा समय में लगभग 10.3 करोड़ टन खाद्यान्न का आयात विकासशील देश कर रहे हैं। जो अगले 20 वर्ष में बढ़कर दोगुने से भी ज्यादा 26.5 करोड़ टन हो जाएगा। इस सबसे यह पता चलता है कि भारत में अन्न की कमी तो है ही, इस कमी की भरपाई के लिए अन्न के आयात की संभावनाएं भी अत्यन्त क्षीण हैं। भारत शायद ही किसी वर्ष अपनी आवश्यकता के अनुसार खाद्यान्न का उत्पादन कर पाता है, खासकर गेहूं के मामले में उसे वर्षों से आयात पर निर्भर रहना पड़ रहा है। दुनियाभर में अन्न की कमी को देखते हुए अब यह पहले से भी अधिक जरूरी हो गया है कि भारत पुन: अन्न-आत्मनिर्भरता की ओर अग्रसर हो। लेकिन भारत में कृषि की निरंतर अनदेखी करते जाने से स्थिति पहले से ज्यादा बदतर हो गयी है। दूसरी तरफ किसान बदहाल हैं। किसान खेती छोड़ रहे हैं। किसान हताश हैं। कृषि उत्पादन की गिरावट तिलहन, दलहन सहित अनेक आवश्यक वस्तुओं के अभाव को साथ लेकर आती है। इसलिए सूखे की उपेक्षा आत्महन्ता ही होगी। ऐसे में जर्मन कवि बेर्टोल्ट ब्रेख्त के इन शब्दों को याद करने की जरूरत है:
गर थाली आपकी खाली है
तो सोचना होगा
कि खाना कैसे खाओगे
ये आप पर है कि
पलट दो सरकार को उल्टा
जब तक कि खाली पेट नहीं भरता...
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