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Thursday, November 26, 2015

चेतिया को लाये जाने का निहितार्थ


13 नवम्बर 2015
अलगाववादी उल्फा नेता अनूप चेतिया को बुधवार तड़के भारत के हवाले करने की ख़बर के बाद केंद्र सरकार के साथ शांति वार्ता में शामिल उल्फ़ा का अरविंद राजखोवा गुट इसे बड़ी उपलब्धि बता रहा है।वहीं केंद्रीय गृह राज्य मंत्री किरेन रिजिजू ने कहा कि ये प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल की सक्रिय भूमिका का फल है।विशेषज्ञों का मानना है कि अगर चेतिया भारत सरकार के साथ शांति वार्ता में अरविंद राजखोवा गुट के साथ शामिल होते हैं तो इससे वार्ता विरोधी अलगाववादी नेता परेश बरूवा को बड़ा झटका लगेगा। असम पुलिस की मोस्ट वांटेड सूची में शामिल चेतिया को 1979 में उल्फा की स्थापना के समय संगठन का महासचिव बनाया गया था।चेतिया संगठन में राजनीतिक मामले देखते थे, लेकिन वे शस्त्र चलाने और गुरिल्ला युद्ध में भी माहिर थे। चेतिया के इस मामले में देश में भारी भ्रम बना हुआ है। खास कर उन्हें सौंपने के तकनीकी पक्ष को लेकर। क्योंकि यही पक्ष वार्ता की सियासी साईकी को तय करेगा। अगर ढाका ने उसे सौंपा है तो इसका अर्थ बाध्यतामूलक होगा और उस बाध्यता के फलस्वरूप वार्ता में सहयोग का अंश तय होगा। चूंकि चेतिया को बंगलादेश के कानून के तहत गिरफ्तार किया गया था।18 साल बंगलादेश की जेल में रहे उल्फा महासचिव चेतिया के खिलाफ असम के कई थानों में हत्या, अपहरण और उगाही के मामले दर्ज हैं। इन्हीं अपराधों में बंगलादेश के कानून के तहत उसे सजा भी मिली थी। सजा खत्म होने के बाद उसने बंगलादेश में राजनीतिक शरण मांगी थी और अदालत ने आदेश दिया था कि जब तक शरण का मामला तय नहीं नहीं होता तबतक उसे हिरासत में रखा जाय। बुधवार को चेतिया को मुक्त कर दिया गया। इस बातका कहीं उल्लेख नहीं है कि उसके राजनीतिक शरण के आवेदन का क्या हुआ। खबर है कि जब उसे मुक्त किया गया तो भारतीय दूतावास को जानकारी दे दी गयी और बंगलादेश सीमा रक्षकों ने उसे प​श्चिम बंगाल के बेनापोल सीमा पर सीमा सुरक्षा बल को सौंपा। बेनापोल तक उसे सड़क से लाया गया था। उल्फा संगठन में चेतिया की काफी अहमियत रही है, यहां तक ​कि परेश बरूवा भी उनकी बात को कभी अनदेखी नहीं करते थे।केंद्र सरकार के साथ 2011 में शांति वार्ता में शामिल होने के बाद संगठन के कई नेता अपने सूत्रों के जरिए चेतिया से संपर्क में रहे और उनसे सुझाव लेने के लिए कुछ लोगों को बंगलादेश भी भेजा गया। सरकार के साथ शांति वार्ता में चेतिया की ज़रूरत थी। उन्होनें संगठन को शुरू से चलाया और अब सभी उल्फ़ा नेता चाहते है कि वे औपचारिक रूप से वार्ता गुट में शामिल हों। असम में 2016 के विधानसभा चुनाव से पहले चेतिया का भारत प्रत्यर्पण और उल्फा के साथ शांति वार्ता समझौता खासकर भाजपा के लिए भी काफी अहम बताया जा रहा है।केंद्रीय गृह राज्य मंत्री रिजिजू ने मंगलवार को कहा था कि उल्फा के वार्ता समर्थक गुट के साथ जल्द ही शांति समझौते पर हस्ताक्षर किए जाएगें। केंद्रीय मंत्री ने यहां तक कहा कि असम की छह जनजातियों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने की उल्फ़ा की मांग लगभग स्वीकार कर ली गई है और फाइल कैबिनेट की अंतिम मंज़ूरी के लिए प्रधानमंत्री के पास है। चेतिया को भारत लाये जाने के फकत एक दिन पहले केंद्रीय मंत्री का यह बयान अपने आप में काफी महत्वपूर्ण समझा जा रहा है। उल्फा के साथ केंद्र सरकार की शांति वार्ता दरअसल असम के लोगों की भावना से जुड़ा एक मसला है। महज कुछ महीनों में असम विधानसभा चुनाव होनें हैं, इसलिए उल्फा शांति वार्ता को लेकर मोदी सरकार पर सबकी नजर रहेगी। लेकिन यह इस बात पर निर्भर करेगा कि अनूप चेतिया किस तरफ जाते है। उल्फा इस समय दो भागों में बंट चुका है। एक तरफ उल्फा के परेश बरूवा अपने कैडरों के साथ म्यांमार के जंगलों से सशस्त्र जंग छेड़े हुए है और दूसरी तरफ केंद्र सरकार वार्ता समर्थक उल्फा गुट के साथ बात कर रही है। अगर भारत सरकार चेतिया को वार्ता में शामिल कर ले तो इससे परेश बरूवा को बड़ा झटका लगेगा। अपने चचेरे भाई चेतिया का समर्थन नहीं मिलने से परेश बरूवा विचलित हो उठेगें। चेतिया अगर शांति वार्ता गुट में शामिल होते है तो यह असम में स्थाई शांति के लिए काफी महत्वपूर्ण फैसला होगा। बिहार चुनाव में बड़ा झटका खा चुकी भाजपा को अगले साल जिन राज्यों में चुनाव लड़ने है, उनमें असम में पार्टी की हालत थोड़ी ठीक है, लिहाजा मोदी सरकार उल्फा वार्ता में जरूर गंभीरता दिखाएगी। सांगठनिक रूप से कमजोर पड़ चुके परेश बरूवा ने नगा अलगावादी संगठन एनएससीएन (खापलांग) के साथ पूर्वोत्तर राज्यों के कुछ चरमपंथी संगठनों को लेकर एक संयुक्त मोर्चा बनाया है, जो इस समय खासकर सुरक्षा बलों पर हमले करने के इरादे से सक्रिय है। लेकिन लगता है भारत सरकार ने अब ऐसे सगंठनों से निपटने के लिए पूरी तरह से ठान ली है। सरकार के सुरक्षा रणनीतिकार कई तरीकों से इन अलगाववादियों पर दवाब बना रहें है।अगर इसमें कामयाबी मिलती है तो मोदी सरकार को राजनीतिक सफलता मिल सकती है और बिहार का गम गलत हो सकता है।

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