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Tuesday, November 10, 2015

बिहार की केमिस्ट्री नहीं समझ सके मोदी



9 नवम्बर2015

बिहार में वही हुआ जिसका इम्कान था, वह नहीं हुआ जिसका शोर था। चुनाव के दौरान और मतदान खत्म होने के बाद ए​िग्जट पोल ने जो अलजेबरा दिखाया था वह बिहार के मतदाताओं की केमिस्ट्री को समझ नहीं सका। यहां जो सबसे बड़ी बात थी वह थी कि यह चुनाव अन्य विधानसभा चुनावों से अलग था। जिसके पास जो भी रणनीति थी आजमा ली है। किसी ने गाय खोल दी तो किसी ने सरसों मिर्चा का हवन भी कर लिया। पैकेज से शुरू हुआ चुनाव पाकिस्तान पर चला गया और गवर्नेंस की बात होते होते गाय की होने लगी। डीएनए की बात होते- होते ब्रह्मपिशाच और नरभक्षी की होने लगी। पर हमारी चुनावी राजनीति का स्तर जैसा है हमारे नेताओं ने उसे भाषा के स्तर के मामले में भी बरकरार रखा। रैलियों और सभाओं के मामले में भी यह अप्रत्याशित चुनाव रहा। बीजेपी ने अपने दल- बल के साथ खूब लड़ाई लड़ी है। उसके कई नेता ऐसे हैं जो सौ- सौ सभाएं करने का दावा कर रहे हैं। महागठबंधन ने भी वो सबकुछ किया जो करना चाहिए था। उसके पास बीजेपी की तरह कार्यकर्ताओं और रणनीतिकारों की फौज नहीं थी फिर भी उसकी लड़ाई कई बार बीजेपी पर भारी पड़ी। हेलिकॉप्टर के पायलटों ने बिहार खूब देखा होगा। ज़मीन से बिहार चाहे जैसा दिखे, लेकिन हेलिकाप्टर से बहुत खूबसूरत दिखता है। हरे- हरे खेत और ताड़ के पेड़ किसी कैनवास पर उतारी गई तस्वीर की तरह लगते हैं। बिहार के चुनाव का नतीजा सबके सामने है। एन डी ए ने हार स्वीकार कर ली है। यहां एक बात गौर के काबिल है कि इतना होने के बावजूद भाजपा क्यों हारी? एक नजर में जो कारण दिखते हैं वे हैं , भाजपा की गाय को किसी ने चारा नहीं डाला। बिहारी और बाहरी का मसला ज्यादा दमदार रहा। राज्य के चुनावों में स्थानीय नेताओं की अहमियत सबसे ज्यादा होती है जो भाजपा के पास थी ही नहीं। लोगों को लगता है कि स्थानीय नेता को जरूरत पड़ने पर देख-सुन तो सकते हैं। दिल्ली वालों को कहां खोजते फिरेंगे! इसके साथ ही कहना सही नहीं है कि बिहार में मोदी का जादू नहीं चला। दरअसल, दिल्ली चुनाव के वक्त भी यही बात सामने आई थी। अब भी वही सही है कि जब भी किसी राज्य के चुनाव में केंद्र अपनी पूरी ताकत झोंकेगा, मतदाता इसे कमजोर के सामने बलवानों का मुकाबला मानेगा और मतदाता कमजोर के साथ हो जाएगा। हेलिकाॅप्टर देखकर भीड़ तो आ जाती है लेकिन वह वोट में परिवर्तित नहीं होती। संघ प्रमुख द्वारा उठाया गया आरक्षण का मुद्दा बिहार में भाजपा की हार का सबसे बड़ा कारण रहा। ये भी एक हकीकत है कि विकास के मानदंड पर पिछले डेढ़ साल में मोदी सरकार की साख गिरी है। वे न अच्छे दिन ला पाए न महंगाई से राहत दे पाए। हां, जनता पर बोझ जरूर बढ़ गया। जाहिर है कि विकास के उनके दावे को गंभीरता से नहीं लिया गया। बिहार में हिंदुत्व कार्ड के चलने के बारे में प्रेक्षकों को पहले से ही संदेह था। बिहार में जातिगत राजनीति हमेशा से बहुत शक्तिशाली रही है और इसीलिए हिंदुत्व का हथियार वहां कम ही काम करता है। फिर हिंदुत्व का कार्ड इतना खुल्लमखुल्ला चला गया कि संभव है कि मतदाताओं को उसका छल-छद्म पसंद न आया हो। इसका एक और प्रभाव ये पड़ा कि अल्पसंख्यक समुदाय लालू-नीतीश के साथ जमकर गोलबंद हो गया। लालू का एम-वाई (मुस्लिम-यादव) समीकरण इससे बहुत मजबूत हो गया। नरेन्द्र मोदी लोकसभा चुनाव जीतने के बाद चार विधानसभा महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड और जम्मू-कश्मीर के चुनाव जीत चुके हैं लेकिन दिल्ली विधानसभा में करारी हार हुई। बिहार चुनाव नरेंद्र के लिए अहम रहा। अगर नरेंद्र मोदी बिहार का चुनाव जीत जाते तो खुद उन्हें , बीजेपी की पूरी टीम, उनके विरोधियों और मीडिया को भी लगता कि उनका जलवा जारी है। भले दिल्ली में पार्टी हार गई लेकिन उनकी लोकप्रियता और शख्सियत बरकरार है। इस जीत से पार्टी में उभर रहे विरोधियों के लिए सबक भी होता और उनके खिलाफ कार्रवाई भी हो सकती थी। देश से विदेश में उनकी प्रतिष्ठा में चार चांद लगता और आर्थिक दृष्टि से विकास की गति को रफ्तार मिलती वहीं असहिष्णुता के नाम सरकार की घेराबंदी भी कमजोर हो जाती। विपक्ष के हौसले पस्त हो जाते और जमीनी हकीकत से ताल बिठाने की कोशिश करते। उनके पराजित हो जाने से सारे अरमानों पर जबर्दस्त धक्का लगा है। भले उनकी कुर्सी पर फिलहाल खतरा नहीं है लेकिन पहला सवाल ये उठता है कि क्या उनका जलवा खत्म हो गया है? दिल्ली के बाद बिहार में दूसरी बड़ी हार है। अहिष्णुता के नाम पर सरकार को घेरने वाले साहित्यकार, फिल्मकार और साइंटिस्ट के अलावा विपक्षी पार्टियों को मोदी को घेरने का मौका मिल गया। वहीं पार्टी के अंदर भी नरेन्द्र मोदी और अमित शाह के खिलाफ स्वर उभरेगा। जो पहले से पार्टी के अंदर स्वर उठा रहे थे उन स्वरों को और बल मिल जायेगा। ये भी आरोप लग सकता है कि अहंकार की वजह से पार्टी की हार हुई क्योंकि पार्टी के अंदर पार्टी की नीति, कदम और फैसले से जो नेता असहमत थे, उन्हें मनाने की कोशिश नहीं हुई। विपक्षी तो अब यही आरोप लगाएंगे कि नफरत फैलाने की वजह से जनता ने सबक सिखाने का काम किया है। नरेन्द्र मोदी और अमित शाह की टीम को इस हार से उबरने में काफी समय लग सकता है।

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