2 नवम्बर
निगमन तर्क शास्त्र में एक सिद्धांत है सापेक्षता का। इसके अनुसार गलत को तय करने के लिए सही का तय होना जरूरी है, उसी तरह अच्छे और बड़े के तय होने के लिए खराब और छोटे का तय होना अनिवार्य है। इसीलिए ये सवाल पूरी तरह से दुरुस्त हैं कि इन दिनों जो सियासी होड़ छिड़ी है, वो सही है या नहीं? अच्छी है या खराब? जायज है या नाजायज? सवाल कभी गलत नहीं होते? जबाव ‘सही है या नहीं’, ये तय होता रहता है। वो भी देश, काल और परिस्थितियों के हिसाब से। विख्यात दार्शनिक बट्रेंड रसल ने कहा है कि ‘ट्रुथ इज द प्रॉडक्शन ऑफ पावर’ यानी सत्ता सत्य तय करती है। यही सही तरीका भी है। लेकिन सही तरीके की आड़ में जब कुतर्क का सहारा लिया जाता है तो चर्चा भ्रष्ट हो जाती है। अब भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह बिहार में अपने चुनावी भाषण में कहते सुने जाते हैं कि ‘अगर यहां महागठबंधन की सरकार बनती है तो पाकिस्तान में पटाखे फोड़े जाएंगे और अगर यहां भजपा वाले गठबंधन की सरकार बनी तो देश में आतिशबाजियां होंगी।’ यह कितने शर्म की बात है कि एक दल जो राष्ट्रीय सत्ता पर आसीन है वह अपने ही राष्ट्रवासियों को लोकतंत्र में यह बताने की कोशिश कर रहा है कि उसे वोट देने वाले राष्ट्रभक्त और बाकी सब राष्ट्रद्रोही। ऐसा कह कर वे यह बताने का प्रयास कर रहे हैं कि पाकिस्तान हिंदुओं का देश नहीं है और इस माध्यम से वे अहिंदुओं खास कर मुस्लिमों की राष्ट्रभक्ति को संदेह के घेरे में ला रहे हैं। जब मोदी 2014 में अपना चुनाव लड़ रहे थे तब उन्होंने हिंदुत्व के ऊपर विकास को तरजीह दी थी। जब वे पी एम हुए और संघ का एजेंडा लागू होने लगा, उस समय यह बताने का प्रयास हुआ कि पी एम इससे नाराज हैं पर पी एम की तरफ से ऐसा कुछ कहा नहीं गया। अलबत्ता बिहार चुनाव के दौरान प्रधान मंत्री ने यह जरूर कहा कि वे पिछड़ों को आरक्षण के विरोध में नहीं हैं। इसके बाद अमित शाह का बयान आया। बहुत पुरानी बात नहीं है। बीजेपी की शह से खड़े हुए अण्णा आन्दोलन के प्रतिनिधियों से, न चाहते हुए भी मनमोहन सिंह सरकार को बात करनी पड़ी थी। लोकपाल की मांग पर मंत्रियों की समिति बनानी पड़ी थी। तब क्या यूपीए चाहती थी कि उसकी फजीहत हो? क्या सरकार के लिए सारा घटनाक्रम सुखद था? क्या उस वक्त सरकार ने आन्दोलन में छिपे गुस्से को तरजीह नहीं दी थी? लेकिन मौजूदा सरकार के पास सम्मान लौटाने वाले ‘पाखंडियों’ से निपटने की कोई रणनीति नहीं है, सिवाय, ये बयान देने के ‘उस वक़्त’ उनकी अन्तर्आत्मा कहां गयी थी? ये रवैया ‘विनाश काले विपरीत बुद्धि’ जैसा है। जो आपके साथ पहले से हैं, उन्हें साथ लेकर चलने की कोई चुनौती हो ही नहीं सकती। चुनौती तो उन्हें साधने की होती है, जो साथ नहीं हैं. ये ‘लोक-लाज’ में यकीन रखने से ही आता है। यकीन ही आपको नये रास्ते सुझाता है, ताकि आप हालात को अनुकूल बना सकें। कहां है ऐसी सूझबूझ और दूर-दृष्टि? उल्टा, आप तो ‘उस वक्त’ की दलीलें देकर आग में और घी डाल रहे हैं। ये कैसा डर है कि बिहार से आने वाला जनादेश किसी की साख पर बट्टा लगा सकता ? ऐसा क्यों होगा कि परीक्षा बीए की हुई हो और रिजल्ट, एमबीबीएस का घोषित हो! इसीलिए, उन लोगों की बीमारी कैसे ठीक होगी जो बिहार के चुनावी मौसम में सवाल ये करते हैं कि बताओ, पाकिस्तान, बंगलादेश और अफगानिस्तान में हिन्दुओं की दशा दर्दनाक और शर्मनाक क्यों है? कश्मीरी पंडितों को घाटी से मार-मारकर किसने और क्यों भगाया? पश्चिम बंगाल के उन गांवों का दुःखड़ा कहां है, जो प्रशासनिक निकम्मेपन और तुष्टीकरण की नीतियों की वजह से तीन साल से दुर्गा पूजा का आयोजन नहीं कर पा रहे हैं?
हम कौन थे, क्या हो गए हैं, और क्या होंगे अभी
आओ विचारें आज मिल कर, ये समस्याएं सभी
इसी तरह, वो लाल बुझक्कड़ कहां हैं जो बता सकें कि बिहार का विकास सिर्फ़ और सिर्फ उसी युग में क्यों हुआ, जब बीजेपी और नीतीश साथ-साथ थे? न उससे पहले और न उसके बाद! इनमें से कोई भी सवाल गलत नहीं है। सभी शर्मनाक हैं। लेकिन जितनी मौक़ापरस्त टोली महागठबन्धन की है, उससे कम स्वार्थी एनडीए की भी नहीं है। सबके नारे-वादे खोखले हैं। किसी का रिपोर्ट कार्ड निष्कलंक नहीं है। गुजरात में भी नहीं थीं। तो क्या बिहार की जनता निर्णय नहीं ले? पसन्द हो या नापसन्द, चुनाव में तो निर्णय करना ही पड़ता है। इसीलिए अभी मौका बिहार का है। ये चुनाव हिन्दू हृदय सम्राट को तय करने का नहीं है। आधे कश्मीर में भगवा फहरा गया है, तो क्या दस-बीस कश्मीरी पंडितों का भी वहां लौटना हो पाया? क्या भारत ऐसा देश होना चाहिए जिसमें अल्पसंख्यकों के साथ वैसा ही बर्ताव हो जैसा पाकिस्तान और बंगलादेश में हिन्दुओं के साथ होता है? सही समाधान है क्या? हिन्दुओं की तो छोड़िए, पाकिस्तान तो मुहाजिरों के साथ भी तमीज से नहीं पेश आ सका। तो क्या हमें उसका अनुशरण करना चाहिए?
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