4नवम्बर 2015
कल बिहार का चुनाव खत्म हो जायेगा। प्रधानमंत्री ने आश्वासन दिया है कि वे इसके बाद कई सुधार कार्यक्रम आरंभ करेंगे। प्रधानमंत्री की बात को अगर मानें तो उनका इरादा महंगाई को रोकने तथा अर्थ व्यवस्था में गति लाने के उपाय करने का है। देश के भीतर बदलती तरह- तरह की सांस्कृतिक स्थितियाें को देख कर एक वहम होता जा रहा है कि सरकार अर्थ व्यवस्था से फोकस हटाने की कोशिश में है। सच भी है कि बिहार के चुनाव की फौरी हलचल के बीच देश में मंदी के अंदेशे पर बातचीत का मौका बन नहीं पाया। फिर आर्थिक मामलों में अबतक जिनकी ज्यादा दिलचस्पी रहती आई है वे आज सत्ता में हैं। जो भी सत्ता में होता है उसे महंगाई, मंदी, बेरोजगारी, औद्योगिक उत्पादन, कृषि उत्पादन जैसे संवेदनशील मुददों की चर्चा अच्छी नहीं लगती। पूरी दुनिया का चलन है कि इन जरूरी बातों को विपक्ष ही ज्यादा उठाता है। अलबत्ता इसकी शुरुआत मीडिया से होती है। चारों तरफ से संकेत आ रहे हैं कि हम दिन पर दिन मुश्किल आर्थिक परिस्थितियों से घिरते जा रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियां इशारों में हमें आगाह भी कर रही हैं। मौजूदा विपक्ष को बरी करने के लिए तो फिर भी एक तर्क हो सकता है कि उसे सत्ता से उतारने के लिए महंगाई और देश में आर्थिक सुस्ती के प्रचार का हथियार ही चलाया गया था। पिछले दस साल सत्ता में रही यूपीए सरकार जब उस समय इस प्रचार का कोई कारगर काट नहीं ढूंढ़ पाई और विपक्ष और मीडिया ने चौतरफा हमला करके उसे सत्ता से उतरवा दिया तब आज इतनी जल्दी वह इन मुद्दों पर कुछ कहना कैसे शुरू करती? दिन दूनी रात चौगुनी रफ्तार से बेरोजगारी का बढ़ना और मौजूदा सत्ता पक्ष की ओर से 65 फीसद युवा जनसंख्या को देश की धरोहर बताया जाना क्या बहुत ही सनसनीखेज बात नहीं थी? इतना ही नहीं देश में लगातार दूसरे साल सूखे के आसपास के हालात बने हैं। बारिश का वास्तविक आंकड़ा 14 फीसदी कम होने के बावजूद इस विकट परिस्थिति की कोई चर्चा तक न हुई। तब भी नहीं हुई जब सभी दालों के दाम हर हद को पार कर गए। आज सरकार की सबसे बड़ी चुनौती विपक्ष से तालमेल बनाया जाना और जी एस टी जैसे महत्वपूर्ण विधेयकों को मंजूरी दिलाना। यही नहीं सरकार को महत्वपूर्ण आर्थिक सुधार करने होंगे। विगत दो बजटों में ऐसा कुछ नहीं हुआ जिसे व्यवसाय के लिए बहुत बड़ी बात कही जाय। वैश्विक मंदी की आहट के बावजूद हमारी मुद्रा निश्चिंत भाव वाली है। इसके पीछे कौन सा विश्वास है? कहीं यह तो नहीं कि पिछली भयावह वैश्विक मंदी में मनमोहन सरकार ने पूरे यकीन के साथ बेफर्क रहने का विश्वास जताया था और वैसा ही हुआ था। लेकिन क्या आज के माली हालात वाकई तब जैसे हैं? सन 2008 के बाद से 2015 तक हमारी आबादी 13 करोड़ बढ़ी है। पिछले डेढ़ साल में साढ़े तीन करोड़ युवक पढ़ लिखकर या ट्रेनिंग लेकर या रोजगार के लायक होकर बेरोजगारों की कतार में लग गए हैं। हालत यह है कि देश में उपलब्ध कुल जल संसाधन का हिसाब रखने वाले जल वैज्ञानिकों को यह नहीं सूझ रहा है कि हर साल सवा दो करोड़ के हिसाब से बढ़ने वाली आबादी के लिए पानी का इंतजाम कैसे करें? दो साल पहले तक भोजन, पानी, छत, वगैरह के इंतजाम के लिए योजना आयोग के विद्वान सोच विचार करते रहते थे। उससे हालात का पता चलता रहता था। साल दर साल फौरी तौर पर इंतजाम होता रहता था। अब योजना आयोग खत्म कर दिया गया है या उसका नाम बदल दिया गया है। बहरहाल उन पु़राने विशेषज्ञों का विचार- विमर्श लगभग बंद है और नए प्रकार के आयोग के बारे में ज्यादा कुछ पता नहीं चल रहा है। चाहे कृषि हो या जल प्रबंधन हो और चाहे औद्योगिक क्षेत्र हो, कोई भी बड़ा विशेषज्ञ नया सुझाव या नवोन्मेष लेकर नहीं आ रहा है। अभी सबसे जरूरी है कि सरकार विकास को राज्यों के चुनावों से अलग कर दे। क्योंकि , अभी बिहार का चुनाव खत्म हुआ है, इसके बाद 2016 में असम, केरल , तमिलनाडु और बंगाल का चुनाव है और उसके बाद 2017 में उत्तर प्रदेश के चुनाव हैं। इसका अर्थ है कि पार्टियां हमेशा चुनाव की तैयारी में लगी रहेंगी। सत्तारूढ़ दल को चाहिये कि वह लोकसभा चुनाव पर नजर टिकाये और उसके पहले कुछ उल्लेखनीय सुधार कर ले। राज्यों के चुनाव के नतीजों से सुधारों और अन्यान्य हालातों से जोड़ना व्यर्थ है। 2019 में लोकसभा चुनाव होने वाले हैं अगर अभी सुधार आरंभ हुए तो उसके नतीजे आने में तो थोड़ा समय लगेगा ही , इसलिये अगर अभी नहीं हुआ तो फिर बहुत देर हो जायेगी। संक्षेप में कहें तो कह सकते हैं कि ‘अभी नहीं तो कभी नहीं।’
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