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Thursday, November 26, 2015

सरकार की निश्चिंतता के कारण क्या हैं


17 नवम्बर 2015
हर भारतीय के दिमाग में एक अजीब अंधेरे और चमकदार उजाले का ​स्पेस बनता जा रहा है। एक तरफ आर्थिक मंदी का बढ़ता डर और उससे तिरोहित होता अंधेरा साथ ही मोदी के विदेश दौरों की चकाचौंध। इसमें जो सबसे खतरनाक स्थिति है वह बुद्धिजीवियों की चुप्पी और मीडिया का भटकाव। आर्थिक और सामाजिक बीमारियों और व्याधियों के जिक्र से मीडिया बचने लगा है। बहाने तो ये हैं कि राजनीतिक शोर- शराबे में मीडिया व्यस्त है। दो-तीन महीने के राजनीतिक शोर-शराबे में मीडिया की व्यस्तता स्वाभाविक थी। हालांकि बिहार चुनाव खत्म हो जाने के बाद देश के आर्थिक हालात पर सोच-विचार का मौका बन सकता था, लेकिन बिहार चुनाव के फौरन बाद सत्तारूढ़ दल की अंदरूनी उठापटक ने मीडिया को व्यस्त कर लिया। उधर खुद प्रधानमंत्री विदेश दौरे पर निकल गए। यह हफ्ता उनके वहां के भव्य समारोहों के प्रचार-प्रसार में निकल जाएगा। कुल मिलाकर दिन पर दिन देश में वर्तमान की विकट आर्थिक स्थितियों पर गौर करने के सारे मौके ही निकलते जा रहे हैं। इस हफ्ते जारी साल की पहली छमाही के हिसाब के मुताबिक सितंबर में देश में औद्योगिक उत्पादन वृद्धि दर घटकर 3.6 के स्तर पर आ गई। पिछले डेढ़ साल से उद्योग व्यापार में ताबड़तोड़ सुधार और फुर्ती लाने के तमाम दावों के बावजूद ऐसा क्यों हो गया? इस पर गंभीरता से कोई चर्चा सुनाई नहीं दी। केंद्र में सत्तारूढ़ दल की बिहार चुनाव में सनसनीखेज हार का विश्लेषण अभी हुआ नहीं है, लेकिन इस हार के पीछे जिन दो प्रमुख कारणों को मीडिया ने चिह्नित किया है वे दाल और दादरी ही बताए गए हैं। हारने के बाद भी और चुनाव प्रचार के दौरान भी। लेकिन खुद को बड़ा चौकन्ना और चौकस दिखाती हुई डेढ़ साल पहले सत्ता में आई सरकार से ये कैसी हीला- हवाली हो गई। सिर्फ तब ही नहीं, बल्कि मुसलसल अभी तक। वहीं प्रधानमंत्री की विदेश यात्राएं वैसी खबर नहीं रहीं जैसी पहले थीं कि प्रधानमंत्री के विदेश दौरे पर किसी प्रमुख कार्यक्रम की दूसरे दिन के अखबारों में फोटो छप जाय या ज्यादा से ज्यादा लौटते समय हवाई जहाज पर कोई प्रेस कांफ्रेंस हो जाय, या फिर किसी शिखर सम्मेलन में अनगिनत राष्ट्र ध्वजों के नीचे बहुत सारे नेताओं की न पहचाने जाने वाली तस्वीरें छप जाएं। याद कीजिए ओबामा का भारत दौरा। दिल्ली आने से पहले मुंबई जाना, कभी ताज देखने जाना तो कभी पत्नी मिशेल के साथ हुमायूं का मकबरा देखने जाना। क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी वैसा ही कुछ कर रहे हैं या बिल्कुल नया कर रहे हैं। औपचारिकताओं से भरी विदेश यात्राओं में क्या वे वाकई कोई बड़ा बदलाव ला रहे हैं। बहुत से लोग मानते हैं कि दुनिया के नक्शे पर भारत को लेकर कुछ नया हो रहा है। प्रधानमंत्री मोदी का दौरा भारत की छवि को बदल रहा है। उनकी यात्रा जब भी आधिकारिक चरण में होती है, तमाम न्यूज चैनलों पर एक ही तरह के एंगल से शॉट चलने लगते हैं। एक खास किस्म का अनुशासन बन जाता है। एक बने बनाये फ्रेम में प्रधानमंत्री का हर कदम पहले से सोचा- समझा लगता है। विदेश नीति के जानकारों को कैमरों की निगाहों को भी कूटनीतिक विश्लेषण में शामिल करना चाहिए। किस तरह हेलिकॉप्टर से लिया गया ब्रिटिश संसद का शॉट एक अलग किस्से की रचना करता है। टॉप एंगल शॉट से संसद की गहराई नजर आती है और दूर भारत में बैठे दर्शक के मन में अचानक प्रधानमंत्री की हैसियत कुछ और होने लगती है। यह दर्शक के दिमाग में एक चमकदार स्पेस की रचना करता है। जिस वक्त लंदन में प्रधानमंत्री भारत को बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था बता रहे थे भारत में बिजनेस अखबार अपनी पहली खबर यह बना रहे थे कि सितंबर महीने के औद्योगिक उत्पादन में गिरावट दर्ज हुई है। सितंबर में विकास 3.6 प्रतिशत ही रहा। औद्योगिक उत्पादन के सूचकांक का 75प्रतिशत हिस्सा उत्पादन क्षेत्र से आता है जिसमें विकास दर 2.6 प्रतिशत ही देखी गयी है। कंपनियों की कमाई में भी तेजी से कमी आई है। उपभोक्ता मूल्य सूचकांक भी अक्टूबर में 4.41 से बढ़कर 5 प्रतिशत हो गया है। स्टार्टअप कंपनियों के लिए निवेश में कमी आने लगी हैं। निवेशक अब अपना हाथ खींचने लगे हैं। देश की मौजूदा अर्थव्यवस्था के ये गंभीर संकेत उस कुदरती मौसम के हैं जिसे बाजार के लिहाज से सबसे आसान और माफिक माना जाता है। इन सर्दियों के डेढ़-दो महीने गुजरते ही पानी की किल्लत और आर्थिक सुस्ती का असर कई अंदेशे पैदा कर रहा होगा। अब तक गिनाए गए अंदेशे तो फिर भी दिखने और नापतौल करने लायक हैं। इनके अलावा बेरोजगारी की तरफ तो अभी किसी का ध्यान ही नहीं है। जबकि डेढ़ साल पहले राजनीतिक बदलाव का माहौल बनाने के लिए इन बेरोजगार युवकों को ही सबसे ज्यादा उम्मीदें बंधाई गई थीं। आलम यह है कि पिछले डेढ़ साल में कम से कम दो करोड़ बेरोजगार युवकों की फौज पहले से बेरोजगार पांच करोड़ बेरोजगारों में और जुड़ गई है। इधर देश की जनसंख्या में 65 प्रतिशत युवकों की संख्या होने को जिस तरह अपनी पूंजी बताए जाने का प्रचार इस समय हो रहा है उसे कब तक प्रचारित किया जा सकेगा?अगर वाकई देश के हालात ऐसे हैं, तो सरकार और प्रशासन की तरफ से आश्चर्यजनक निश्चिंतता के क्या कारण हो सकते हैं? यही नहीं , प्रधानमंत्री मोदी के विदेश दौरे पर अब सवालों के बादल मंडराने लगे हैं, मेडिसिन से लेकर वेम्बले जैसे आयोजन विदेश नीति को कोई नया आयाम देते हैं या फिर उनकी गंभीरता को कम कर देते हैं।

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