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Thursday, November 26, 2015

दीया आत्म का संपूर्ण विस्तार है


11 नवम्बर 2015
भारत के मन में आज दीपोत्सव की पुलक है। प्रकाशलब्धि है, लेकिन अंधकार हमारा मूल। हम मां के गर्भ में थे, गहन अंधकार था। हमारा प्राथमिक विकास गहन तमस् में हुआ। बीज भी धरती के अंधकार गर्भ में फूटता है, अंधकार से उगता है। बीज का गर्भ भी अंधकार में ही पकता है। हम अंधकार से उगते हैं, व्यक्त जगत में आते हैं। आंखों को प्रकाश देखने का अनुभव नहीं होता। तमस हमारी यथास्थिति है, और प्रकाश हमारी नियति। सो, ज्योतिर्मयता हमारी चिरन्तन प्यास है। उजाला सामूहिक रूप में प्रसारित हो तो जैसे फूल खिल जाते हैं, उसी तरह दीप की पंक्तियां, जिनमें दीप की निष्ठाएं हैं, दीपावली की आभा रच देती हैं। पंक्तिबद्ध होने में जो लय है, वही तो पृथ्वी की उजास है। एक-एक का लालित्य एवं समूह का लालित्य। समूह जब अनुशासन की ज्यामिति हो तो वह भीड़ नहीं होती। दीपावली समाज व व्यक्ति के जीवन के कुरूप पाठों को नया रूपांकन देती है। कृषि संस्कृति में पीड़ाओं व दु:खों के बावजूद उल्लास व उजास के इतने शेड हैं कि देखते ही बनते हैं। सभी एक जैसे मौसम का आनंद उठाते हैं, जिसे सम कहा जा सकता है : न गर्मी, न सर्दी। मिट्टी की कला के इतने सारे रूप इस समय देखने को मिलते हैं कि शायद सालभर न मिलते हों। भिन्न-भिन्न तरह के दीये, हाथी-घोड़े, पेड़-पौधे सभी कुछ मिट्टी की कला में। हमारे यहां इन कलाओं को संरक्षित किए जाने की जरूरत है। वह सबकुछ जो हमें कलात्मक रूप से समृद्धि दे, वैभव दे, उसे बचाके रखा जाना चाहिए। मध्य वर्ग, निम्न वर्ग, किसान आदि दीपावली को नई अभिव्यंजना देते हैं। यहां एक प्रश्न है कि क्या मनुष्य प्रकृति की श्रेष्ठतम रचना है? प्रकृति में अनेक रूप, रंग, रस और नाद हैं। प्रकृति स्वयं को प्रकट करती है बारम्बार। छान्दोग्य उपनिषद् के ऋषि ने बताया है कि प्रकृति समस्त सर्वोत्तम प्रकाश रूपा है। जहां-जहां खिलता है, प्रकृति का सर्वोत्तम, वहां वहां प्रकाश। हम धन्य हो जाते हैं। प्रकाश दीप्ति एक विशेष अनुभूति देती है हमारे भीतर। अर्जुन ने विराट रूप देखा। उसके मुख से निकला-दिव्य सूर्य सहस्त्रांणि। हजारों सूर्य की दीप्ति एक साथ। भारतीय अनुभूति का ‘विराट’ प्रकाशरूपा ही है। पूर्वजों ने प्रकाश अनुभूति को दिव्यता कहा। बगैर परिवर्तन के नई आभा नहीं रची जा सकती। यदि बड़े परिवर्तन न संभव हो सकें, तो छोटे-छोटे बदलाव सृजन की दीपावली ला सकते हैं। राजनीति, इतिहास, मार्क्सवाद से परे ही अब नई दुनिया सृजित होगी। यहां 'राजनीति" का अर्थ सिर्फ राज पाने के लिए बनी नीति से है। जो सृजनधर्मी वृहत्तरता के सापेक्ष नीति होगी, वह समाज, राज व व्यक्ति सबसे सकारात्मक रूप से जुड़ी होगी। यहां 'इतिहास' का अर्थ अपने वर्चस्व को घटना-रूप देना है। इससे अलग जाना होगा। वर्चस्व को तोड़कर ही छोटे-छोटे दीये रास्तों, दीवारों व चौबारों में जल सकते हैं। 'लघु मानव' अपनी आत्मा में 'वृहत' होता है। उसे पता है कि नव-इतिहास के नाम पर चल रहा नव-मार्क्सवाद, सांस्कृतिक भौतिकवाद, जाति, लिंग, वर्गवाद सबकुछ अब धूमिल पड़ने लगे हैं। क्या भाषा वह कहने में असमर्थ है, जो वह कहने का दावा करती है? भाषा और साहित्य जिस सच्चाई का चित्रण करते हैं, उस आधार पर कैसे तय होगा कि सच्चाई क्या है? हम अर्थों को स्थगित कर रहे, प्राप्त नहीं। दीपावली अर्थों की तहों में जाने का दु:साध्य प्रयत्न है। सूर्य और शरद चन्द्र का प्रकाश प्रकृति की अनुकम्पा है, लेकिन दीपोत्सव मनुष्य की प्रकाश अभीप्सु संस्कृति का सृजन। यह कर्मशक्ति का रचा- गढ़ा तेजोमय प्रकाश है। प्रकाश ज्ञानदायी और समृद्धिदायी है। दीपावली को भारत केवल भूगोल नहीं होता, हिंदू-मुसलमान का जोड़ नहीं होता। यह राज्यों का संघ नहीं होता। भारत कर्मतप के बल पर इस रात ‘‘दिव्य दीपशिखा’ हो जाता है। दीपावली परिवर्तन, सौंदर्य, निजता, स्वायत्तता, ज्योति व लघु अंधकार का समन्वयन एक साथ स्थापित करती है। लघुता को सम्मान देती है यह। छोटा दीया आत्म का संपूर्ण विस्तार करता है। वह संवेदना, संवाद व संप्रेषण की स्थिति की ओर ले जाता है। हमें निचले दर्जे की राजनीतिक स्पर्द्धा, संवादहीनता व विद्वेष की भावनाओं से परे जाना है, तभी दीपावली का असली डिस्कोर्स समझ में आएगा। दीपावली हमारे भीतर के सृजन को ऊर्जा व आभा देती है। अमावस की रात प्रकाश पर्व का मुहूर्त घोषित करता है। शरद पूर्णिमा का प्रकाश अमृत कहा गया है। सो, शरद् पूनों को ही प्रकाश पर्व जानना चाहिए था। लेकिन तब गहन तमस् का क्या होता? ‘‘तमसो मा ज्योतिर्गमय्’ की प्यास को कर्मतप में बदलने के आह्वान का क्या होता? तमस से मानव संघर्ष की जिजीविषा का क्या होता? अमावस का अंधकार प्राकृतिक है। भारतीय प्रकृति की अनुकम्पा का नीराजन करते हैं और अमावस को प्रकाश से भरने की सांस्कृतिक कार्रवाई करते हैं।

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