6 नवम्बर
भारत में बढ़ती असहिष्णुता की गूंज दूसरे देशों में भी सुनाई देने लगी है। मूडी कारपोरेशन के बाद अबविदेशी अखबारों ने भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को नसीहत देने के अंदाज में लिखना शुरू कर दिया है। न्यूयार्क टाइम्स ने ‘हिंदू अतिवाद की कीमत’ शीर्षक से अपने सम्पादकीय में लिखा है कि भारत में बढ़ते असहिष्णुता के माहौल से देश और विदेश के बिजनेस लीडर निराश हैं। इसके अनुसार यह वह भारत नहीं है, जैसा बड़ी संख्या में भारतीय चाहते हैं। यह वह भारत भी नहीं है, जो विदेशी निवेश आकर्षित कर सके, जिसके लिए मोदी ने अपनी विदेश यात्राओं में मेहनत की है।पिछले हफ्ते मूडी ने भी मोदी को चेताया था कि राजनीतिक विफलता आर्थिक परिणामों के लिए घातक हो सकती है। संस्था ने अपनी रिपोर्ट में प्रधानमंत्री को विवादित बयान देने वाले भाजपा नेताओं पर लगाम लगाने की नसीहत दी थी।मूडी के मुताबिक ऐसा नहीं करने पर मोदी के घरेलू और वैश्विक मोर्चे पर अपनी विश्वसनीयता खो देने का खतरा है।प्रधानमंत्री मोदी अमूमन मीडिया की आलोचना को खास तवज्जो नहीं देते लेकिन उनकी हाल की अमरीकी यात्रा ने दोनों देशों में बहुत उम्मीदें जगा दी हैं। ऐसे में वहीं के एक अखबार द्वारा भारत की स्थिति पर की गई टिप्पणी के काफी मायने हैं। असहिष्णुता के इस बात को ही संदर्भ में रख कर हालातों का जायजा लेंगे तो हमारे समाज में दो तरह के लोग दिखेंगे। एक दक्षिणपंथी हैं , जिन्हें उपहास पूर्वक संघी, कच्छाधारी वगैरह वगैरह की उपमाएं दी जाती हैं। दूसरे तरह के वे लोग हैं जो इस तरह की उपमाएं देते हैं और खुद को उदारवादी कहते हैं। ये शब्द कुछ ऐसे हो गये हैं मानों वे बिम्ब हो गये हैं। संघी कहते ही लगता है कि कुछ लोगों के गिरोह हैं जो बलवा करते चल रहे हैं, उन्मादी आंदोलनकारी हैं। ... और उदारवादी कौन हैं? लगता है कुछ ऐसे लोगों एक तबका जो ड्राइंगरूम बैठ कर भरी भारी तर्क दे रहा है। देश की आर्थिक नीति और धर्मनिरपेक्षता के मुद्दों पर उन उदारवादियों को पता ही नहीं होता है कि भारत वास्तव में कैसा होना चाहिए। उनके पास कभी कोई समाधान होता है, इसलिए यह कहना कठिन है कि वे किस का प्रतिनिधित्व करते हैं। उनका व्यवहार झुंड की तरह होता है। इन्हें अपने भारत के बारे में मालूम नहीं है। अपनी अंग्रेजी शिक्षा ,ऊंचे रसूख और अंतरराष्ट्रीय संस्कृति के अनुभव के कारण वे उच्च वर्ग के साथ घुलमिल सकते हैं। आम आदमी से विशिष्ट होने से उन्हें सर्वश्रेष्ठ नौकरियां मिलती हैं और इससे भी बड़ी बात, समाज में ऊंचा दर्जा मिलता है। विशिष्ट वर्ग के ये लोग अपने जैसे अन्य लोगों को आसानी से पहचान लेते हैं और वे एक-दूसरे के साथ रहना पसंद करते। चूंकि खुद को अलग साबित करना उनके लिए बहुत महत्वपूर्ण होता है , इसलिए उन्होंने लगभग हर उस चीज को नापसंद करना शुरू कर दिया, जिसे साधारण भारतीय पसंद करते हैं। अभी ताजा उदाहरण ‘विख्यात अर्थशास्त्री’ विवेक देवराय का देखें। इन्होंने फतवा दिया है कि भारतीय समाज कभी सहिष्णु रहा ही नहीं। यह उक्ति उसी विशिष्ट वर्ग की है जिसका जिक्र ऊपर किया जा चुका है। विशिष्ट वर्ग के इन लोगों ने अपना एक खास वर्ग बना लिया। समय बदला और भारत आर्थिक प्रगति करता गया। प्रतिभा की मांग बढ़ गई और अब विशिष्ट वर्ग के होेने का उतना अर्थ नहीं रह गया। योग्यता व प्रतिभा के आधार पर नौकरियां हासिल हुईं तो ज्यादा लोग समृद्ध हो गये। उन्हें अंतरराष्ट्रीय संस्कृति का अनुभव नहीं है लेकिन इसकी उन्हें परवाह भी नहीं है। इन प्रतिभाशाली बच्चों को स्थानीय संस्कृति,भाषा और धर्म को निची निगाह से देखने की कोई जरूरत नहीं थी। इन्होंने गौरवभरे राष्ट्रवादियों का बड़ा वर्ग तैयार किया।इस ताजा स्थिति के बाद विशिष्ट वर्ग के लोग खुद को असुरक्षित महसूस करने लगे। वे ही एकजुट होकर उदारवादियों के नए स्वरूप में उभरे। खुद को धर्मनिरपेक्ष और सहिष्णु कहने लगे। उन्होंने एक ऐसा वातावरण बनाया मानो भारत को हिंदू आक्रमण से बचा रहे हैं। धर्मनिरपेक्षता के नाम पर हिंदू भावना पर हमला करने वाले ये उदारवादी, उसी तरह इस्लामी कट्टरपंथियों पर हमला नहीं करते। इन उदारवादियों को उपहास में छद्म धर्मनिरपेक्षवादी और छद्म उदारवादी इसलिए कहते हैं कि उदारवाद उनका एजेंडा है ही नहीं। उनका एजेंडा तो उन वर्गों को निची निगाह से देखना है, जिन्हें अंतरराष्ट्रीय अनुभव की विशिष्टता हासिल नहीं है। ये नकली लोग हैं। हमें ऐसे लोगों की जरूरत है जिनके पास नए विचार हों, समाधान हों और सच्चे अर्थ में सबमें मिलने-जुलने की इच्छा हो। मोदी की गलोचना करने से कुछ नहीं होने वाला, या विवेक देवराय की तरह पूरे हिंदू समाज को असहिष्णु बताने से कुछ नहीं होने वाला या हर बात को कांग्रेस और भाजपा के बीच का खेल बनाने से कोई लाभ नहीं है। गीता में कहा गया है कि ‘जब पृथ्वी पर मिथ्या का राज हो जाता है तो बुद्धि पर माया व्याप्त हो जाती है।’ आज माया से ग्रस्त हैं हालात। समाज में सुधार के लिए आम-सहमति तो बुद्धिजीवी और उदारवादी ही कायम कर सकते हैं। न्यूयार्क टाइम्स और मूडी की बातों को उछालने से कुछ होने वाला नहीं है। उंगलियां उठाना छोड़ें और समाधान की तलाश करें।
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