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Wednesday, November 4, 2015

मसले बदलती सियासत



3 नवम्बर 2015

कभी आपने सोचा है कि सियासत के मसायल कैसे बदल गये हैं और उन्हें कैसे अमरता प्रदान की जा रही है। 6 दशक पहले गरीबी मिटाओ के नारे से शुरू हुई प्रचार परम्परा इन दिनों दाल और खानपान पर आ टिकी है। उसकी धार्मिकता पर उसकी महंगाई- सस्ताई पर। जैसे मोदी राज से पहले यहां दाल बहुत सस्ती थी और जिस वस्तु के खाने पर बवाल मचा हुआ है उसे खाया नहीं जाता था इस देश में। मोदी तो डेढ़ साल से आये हैं, 60 साल तक कांग्रेस ही रही है उसने ऐसा उपाय क्यों नहीं किया कि किसी खाने वाली चीजें दाल- चावल- गेहूं इत्यादि की कभी कोई कमी नहीं पड़ती या कम से कम लोग इतने सक्षम हो गये होते कि यह छोटी- मोटी विपत्ति झेल लेते। ऐसा क्यों नहीं हुआ इसका जवाब इसी सवाल में छिपा है। फिर कांग्रेस को मुद्दा कहां से मिलता। हमेशा से होता आया है कि इन राजनी​तिज्ञों ने अपने स्वार्थ के लिए देश को कभी स्वावलंबी होने ही नहीं ​दिया। जरा सोचिए , जिन्ना नाराज हुए देश बांट दिया , अम्बेडकर ने धमकी दी जाति बंट गयी , क्षेत्र और मजहब बंट गये। बांटने का यह कार्य या यों कहें कि प्रयोग इतना कारगर और सफल साबित हुआ कि अब कंबल , साड़ी, सायकिल, किताबें, वजीफे , पेंशन , लैपटाप सबकुछ बंट रहा है और साथ- साथ लोग और समाज भी बंट रहे हैं। अंदाजा लगाइए की हमारे अतीत और बर्तमान के नेता प्रतिभा के कितने धनी थे और हैं कि जिन लोगों को कभी अंग्रेज और मुगल नहीं बांट पाये उसे ये एक छोटे से उपाय से बांट दिये। इस स्थिति को और खराब कर रहे हैं हमारे टी वी और मीडिया के लोग। आपने देखा होगा कि 15 सेकेंड का एक जुमला, एक विशेषण कभी-कभी बड़ा ‘मारक’ बन जाता है। यह तब होता है, जब कोई शब्द कोई विशेषण टीवी पर बार-बार कहा जाने लगता है, बोला जाने लगता है, रिपीट होने लगता है, और शीर्षक बनने लगता है, तो वह पंद्रह सेकेंड की भंगुरता में बदलकर भी मारक हो उठता है। हम इसे पिछले एक महीने की अवधि में लगभग हर रोज के टीवी प्रसारणों की कहानियों में बार-बार दुहराये जाने वाले दो शब्दों को उनकी व्याप्ति से समझ सकते हैं। ये दो शब्द हैं, ‘बीफ’ और ‘असहिष्णुता।’ यह राजनीति दरअसल खानपान की अभिरुचि की राजनीति है। कोई है जो लोगों के खान-पान पर पहरे बिठा रहा है। इसी बहाने असहिष्णुता के तरह-तरह के संस्करण प्रसारित होते रहे। इसी बीच लेखकों ने अपने सम्मानों को बढ़ती असहिष्णुता के विरोध में वापस करना शुरू किया। देखते- देखते यह एक नए प्रकार का सविनय प्रतिरोध विश्वव्यापी बन गया। दादरी कांड को मीडिया ने एक करुण कथा की तरह कवर किया, उसके ठीक विपरीत अखलाक की हत्या के व्यख्याकारों ने बार-बार एक निष्करुण किस्म की कहानी रची। शक पर की गई हत्या को जितना ही ‘गलतफहमी में हुई दुर्घटना’ बताया गया उतनी ही अखलाक की हत्या हमदर्दी का विषय बनती गई। पहली बार ऐसे भी पक्षधर दिखे जो हत्या को पहले रस्मिया ढंग से ‘अफसोस की बात’ कहते और फिर हजार शब्दों में कथित हत्यारों का पक्ष लेते। इस तरह पहली बार एक नए प्रकार की अमानवीयता मुखर होती दिखी। इस क्रम में लेखकों की सम्मान वापसी ने असहिष्णुता के बिम्बों को एक नया आयाम दिया। लेखक अवसरवादी हैं! ऐसी बातें जब- जब कही गईं तब- तब असहिष्णुता एक मिसाल बनी। लेखक इस असहिष्णुता के बरक्स निरीह प्राणी की तरह दिखते रहे। सत्ता की चुप्पी और उसके प्रवक्ताओं की असहिष्णुता इतनी तरह के अवतारों में इतनी तरह के नृशंस तर्कों के रूप में प्रकट हुई कि नागरिक समाज के लिए डरावनी बन उठी! समाजशास्त्र की कसौटी पर देखें तो असहिष्णुता कुल मिलाकर एक नया वातावरण ही बन गई और इसका असर हमारे वातावरण की असहिष्णुता को ठोस बनाता गया। यह समझ में नहीं आ रहा है कि हम इतिहास का इम्तिहान ले रहे हैं या इतिहास हमारा। आजादी की लड़ाई हिन्दू और मुसलमानों ने एकजुट होकर लड़ी थी। 1857 की क्रांति के दौरान दोनों समुदायों ने एकजुट होकर अंग्रेजों के खिलाफ आवाज उठाई थी। दोनों समुदाय एक-दूसरे की संस्कृति का सम्मान करते हुए आगे बढ़े हैं। अगर खानपान से हम एक-दूसरे की खामियां निकालेंगे तो इससे खतरनाक हमारे समाज के लिए कुछ हो नहीं सकता। इस मसले पर लगभग सभी राजनीतिक दल फायदा उठाने की कोशिश कर रहे हैं। कुछ नेता इसी मसले के भरोसे अपना राजनीतिक भविष्य चमकाने में लगे हुए हैं। भड़काऊ बयान दे रहे हैं। मीडिया को भी समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी समझते हुए ऐसे बयानों को दिखाने से परहेज करना पड़ेगा। ऐसी स्थिति को नजरअंदाज करने का लोगों का मानस न बना कर , राजनीतिक लाभ के लिये इसे मुद्दा बनाना भविष्य के लिए कितना घातक है, इसका इन्हें अंदाजा ही नहीं है। सत्तारूढ़ दल इस स्थिति को कैसे संभालता है, इसी बात पर भारत का राजनीतिक भविष्य निर्भर करता है।

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