25 नवम्बर 2015
भ्रष्टाचार मिटाने के नाम पर एक ‘उद्योगपति’ बाबा को पेट फुलाने- पचकाने की वर्जिश की दरी से उठा कर लड़कियों के कपड़े पहनने के लिये मजबूर करने वाले और फौजी वाहन चलाने वाले एक ड्राइवर को गांधी के रूप में प्रोजेक्ट कर खुद सी एम की कुर्सी पर बैठने वाले केजरीवाल उस लालू के मंच पर जा पहुंचे और उस लालू से गले मिले जिसे भ्रष्टाचार के मामले में सजा हो चुकी है। उन्होंने उस लालू प्रसाद से खुलेआम एकजुटता दिखायी जिस पर चुनाव लड़ने से रोक लगी है। जब यह खबर फैली तो लगे कहने यह एक सलीका है। केजरीवाल जी गले मिलने का तरीका तो एक ही होता है जो प्रेम का होता है। असली सवाल तो ये है कि क्या यह वही केजरीवाल हैं जो रोज भ्रष्टाचार के कागजों के पुलिंदे हाथ में लेकर व्यवस्था परिवर्तन के मधुर गीत सुनाया करते थे और अब यहां तक भूल गये कि यह वही लालू हैं जिन पर करोड़ों का चारा खाने का अपराध साबित हो चुका है। दो इंच मुस्कान होठों पे लिए मिले केजरीवाल लालूजी से। उनकी मुद्रा प्रेम पूर्ण थी ,निर्दोष थी। वैसी ही मुस्कान लिए अब वह पार्टी की बैठक में कह रहे हैं मैं तो हाथ ही मिला रहा था। उन्होंने मुझे खींच के गले लगा लिया। यहां तक तो ठीक लेकिन लालू के चेहरे पर भी कोई चाहत भरी मुस्कान नहीं थी? आपने ये नहीं बताया कि लालू ने आपके कान में कहा क्या था! कहीं ये तो नहीं कहा था कि रजिया गुंडों में फंस गयी! वैसे तो आप दोनों में कौन किसका उस्ताद है यह बतलाना मुश्किल है पर यह भी सत्य है कि आप उनके दोनों बेटों के समर्थन में भी बिहार पधारे थे। केजरीवाल शायद समझ नहीं पा रहे हैं कि लोकतंत्र क्या है? वे सब कुछ अपने चश्मे से देखते हैं। कभी आप के सबसे मजबूत सहयोगी रहे और केजरीवाल के दोहरे रवैये की शिकायत करने पर पार्टी से बाहर किए गए प्रशांत भूषण ने भी इसकी आलोचना की है। क्या केजरीवाल बड़ी मासूमियत के साथ ये कहना चाहते हैं कि मेरे साथ राजनीतिक बदखैली की गई। यह राजनीति का बलात्कार है? अरविंद केजरीवाल पर मनमाने ढंग से पार्टी चलाने का आरोप गाहे- बगाहे लगता रहता है, यदि केजरीवाल ने आम आदमी पार्टी को अपनी पकड़ में नहीं रखा होता तो योगेन्द्र यादव, प्रशांत भूषण जैसे लोग अभी भी पार्टी में होते। राजनैतिक दलों में एक व्यक्ति की पकड़ होना कोई नई बात नहीं है। सभी पार्टियां ऐसे ही चलती हैं, लेकिन आम आदमी पार्टी बनी थी सबसे हटकर इसलिए लोगों को लगा था कि यहां आंतरिक लोकतंत्र होगा। मगर ऐसा हुआ नहीं। विरोधियों को यहां भी दरवाजा दिखा दिया जाता है। उनकी बात यहां भी नहीं सुनी जाती। मसला आम आदमी पार्टी की राष्ट्रीय परिषद की बैठक के पहले का है। इस बैठक में आप ने अपने संस्थापक सदस्य शांति भूषण को बुलाया था, मगर बैठक के पहले ही शांति भूषण ने आप को खाप करार दे दिया यानी, जहां पर मुट्ठीभर लोगों की ही चलती है, बाकी सब कठपुतली हैं। आम आदमी पार्टी की राष्ट्रीय परिषद में 300 सदस्य हैं और कार्यकारिणी में 24। प्रशांत भूषण और योगेन्द्र यादव को निकालने के बाद कार्यकारिणी में केवल 14 सदस्य रह गए हैं। बैठक के बाहर कुछ नेता जिन्हें पार्टी से निकाल दिया गया वे पार्टी विरोधी नारे लगाते रहे और धरने पर बैठकर अपना विरोध जताते रहे। दिक्कत यह है कि अभी शील का निर्वाह करने वाले केजरीवाल कभी नाम ले-लेकर नेताओं को कोसते रहे हैं। लालू और मुलायम को उन्होंने अपनी ओर से भ्रष्टाचार का प्रतीक मान लिया। जब राजनीति के असली मैदान में आए तब उनको मजबूरियां समझ में आ रही हैं। फिर राजनीतिक तौर पर आप नीतीश के साथ खड़े हों, मगर लालू के साथ नहीं- क्या यह संभव है? जब आप नीतीश के साथ हैं और समारोह में जा रहे हैं तो आपको लालू के गले मिलना ही पड़ेगा। यही नहीं, यहां शरद पवार भी मौजूद थे जिनके खिलाफ केजरीवाल लगातार बोलते रहे हैं। केजरीवाल के साथ दिक्कत इस बात की है कि जिस तरह विरोधाभास की राजनीति वे करते हैं उसमें ऐसे मौके खूब आएंगे और उनको सफाई भी देती रहनी पड़ेगी। केजरीवाल को समझना चाहिए कि राजनीति में न आने के पहले राजनीति को भला- बुरा कहना, सभी को भ्रष्ट कहना, पार्टियों पर हिटलरवादी ढंग से चलाने का आरोप लगाना, सब सही है, मगर जब बात खुद पर आती है तब पता चलता है कि राजनीति काजल की एक कोठरी है जहां दाग तो लगता ही है।
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