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Thursday, November 26, 2015

जनता की जेब सफाई बंद हो


19 नवम्बर 2015
केंद्र सरकार ने एक नया टैक्स लगा दिया है, वह है स्वच्छता अभियान पर अधिभार। इस साल तो ऐसा लग रहा है कि केंद्र सरकार की मौद्रिक नीति की ‘खूबियां’ हैं। पहली नये टैक्स, दूसरी प्राप्त हो रही टैक्स सुविधाओं का खात्मा और तीसरी टैक्स की दर में वृद्धि। इस वृद्धि दर की कड़ी में स्वच्छता पर अधिभार। कितना बड़ा विरोधाभास है कि यही सरकार विदेशी निवेशकों काे आश्वासन देती है कि टैक्स की दर समान रहेगी और उसे आसान बनाया जायेगा और वही सरकार देशवासियों के गले पर टैक्स का चाकू चला देती है। भारत सरकार के पास एक बजट होता है जिसमें मूलभूत सुविधाओं जैसे शिक्षा, सफाई और स्वास्थ्य के लिए प्रावधान होता है। यदि इसके लिए अतिरिक्त अधिभार लगाया जाता है तो साफ है कि सामान्य बजट की राशि को किसी दूसरे मद में खर्च किया जा रहा है अथवा उसकी फिजूल खर्ची हो रही है। पिछले दिनों से यह एक तरह से व्यवस्था बन चुकी है कि सरकार अधिभार लगायेगी ही। विगत बजट वर्ष में इस अधिभार से सरकार को लगभग एक खरब रुपये की आमदनी हुई थी। यह राशि कुल टैक्स की 13.14 प्रतिशत है। यह जो नया अधिभार लागू हुआ उस तरह के अधिभार नमक से लेकर सिनेमा तक पर लागू हो चुके हैं। नये अधिभार से सरकार को दस हजार करोड़ रुपये प्रतिवर्ष की अतिरिक्त आय होगी। इसका असर खानपान से लेकर रेल यात्रा तक होगा। कुछ लोग सोचते हैं कि इसे सहर्ष चुकाएं क्योंकि इससे देश के गांव, कस्बे व शहर साफ-सुथरे रह सकेंगे, जो गंदगी के चलते राष्ट्र की छवि धू​मिल करते हैं। दरअसल सफाई अभियान निचले स्तर से नियमित रूप से चलाया जाना चाहिए। इसके लिए कारगर सिस्टम बनाने की जरूरत है। दरअसल ऐसे जुटाया गया पैसा जरूरतमंद नगरपालिकाओं व पंचायतों तक नहीं पहुंचता। वे हमेशा अर्थाभाव से जूझती रहती हैं। जिसके चलते नागरिकों को मूलभूत सुविधाओं के अभाव से जूझना पड़ता है। यही नहीं ये अधिभार जिस तरह से लगाये जा रहे हैं उससे लगता है कि सरकार आपकी कमर तोड़ देना चाहती है। यही नहीं ये अधिभार देश के संघीय उद्देश्य से अलग हैं। इस तरह से प्राप्त राशि को केंद्र और राज्यों के हिस्से में विभाजित नहीं किया जाता है। महालेखा परीक्षक ने भी आपत्ति जतायी है कि इस तरह से होने वाली आय के व्यय का उपयुक्त जिक्र नहीं होता है। इस बात का खुलासा होना चाहिए कि इस धन का कितना हिस्सा राजनीति चमकाने और कितना हिस्सा सफाई अभियान पर खर्च होगा। पहले भी नरेंद्र मोदी पार्टी हित में राज्यों के लिए भारी-भरकम पैकेजों की घोषणा करते रहे हैं। देश में निर्धारित मद के धन को अन्यत्र खर्च करने का रिवाज रहा है। आखिर जब सरकार के आय के स्रोत बढ़ रहे हैं और तेल के दामों में गिरावट से अच्छा-खासा फायदा हो रहा है तो नए कर क्यों? क्या कॉरपोरेट जगत का सामाजिक दायित्व नहीं है कि वह स्वच्छता अभियान में योगदान करे? मोदी के विदेशी दौरों में विदेशी कंपनियों को भारत में करों में छूट का आश्वासन दिया जाता है। देश में बहुराष्ट्रीय कंपनियों को करों में छूट देने के अदालती फैसलों को सरकार चुनौती नहीं देती। पिछले आम बजट में वेतनभोगियों को तो सरकार ने नाममात्र की छूट दी जबकि कॉरपोरेट को भारी छूट दी गई। दलील यह कि कर कम करने से उत्पादन बढ़ेगा। ये फार्मूला आम करदाताओं के लिए क्यों नहीं? सरकार ने बजट के दौरान कहा था कि स्वच्छता सेस केवल उन्हीं पर लगेगा जिनकी आय अधिक है, लेकिन इस तरह के एलान ने सबको चकित कर दिया है। लेकिन यहां सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या सेस लगाकर जनता का जेब खाली करने मात्र से स्वच्छता अभियान सफल हो सकेगा। भारत में स्वच्छता एक बेहद पेचीदा और कठिन कार्य है। और जब तक इसके लिए सरकार मजबूत संकल्प के साथ स्वच्छता के लिए व्यावहारिक, सांगठनिक और तकनीकी ढांचा तैयार नहीं करती, यह प्रयास महज एक सद्विचार ही बना रहेगा। इसके लिए आधारभूत ढांचा सरकार को ही तैयार करना होगा। इसमें कॉर्पोरेट की भूमिका भी महत्त्वपूर्ण होगी। कूड़ा उठाने की प्रक्रिया, उसकी डंपिंग और रीसाइक्लिंग और हर दो सौ कदम पर कूड़ेदान लगाने और उन्हें नियमित साफ करने का काम नगरनिगम ही कर सकेंगे, जनता नहीं। जबकि हम देख रहे हैं कि देश में नगरपालिकाओं और नगरनिगमों की कार्यप्रणाली पूरी तरह अव्यावहारिक और अवैज्ञानिक है। क्या उन्हें सुधारे बिना जनता पर अधिभार लगाने भर से यह अभियान अपेक्षित गति पकड़ सकेगा। यही नहीं अधिभार लगाने के मुफीद कारण भी होने चाहिये, साथ ही उससे इस बात की गारंटी होनी चाहिये कि उससे उद्देश्य की पूर्ति होगी। अब नागरिक सुविधाओं के लिए यदि अधिभार लगया जा रहा है तो भविष्य क्या होगा, इसकी कल्पना सहज ही की जा सकती है।

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