14 नवम्बर 2015
बिहार में चुनाव और नतीजों पर तू-तू , मैं- मैं अब खत्म हो जाना चाहिये अैर सीधे भविष्य की तरफ देखा जाना चाहिये। इस मामले में पहला प्रश्न है कि , बिहार में आगे क्या? महागठबंधन को कहने को भारी बहुमत मिला है लेकिन मुख्यमंत्री जद यू के नीतीश कुमार होंगे। संख्या बल के आधार पर अगर देखें तो नीतीश इस बार पहले से कमजोर सी एम होंगे, क्योंकि लालू उनके ऊपर भारी पड़ रहे हैं। लालू का स्वभाव बिहार की जनता से अनजाना नहीं है और ना लालू राज की कारस्तानियां। कुछ लोगों का मानना है कि लालू इतने बुड़बक नहीं हैं पिछली गलतियों से सीखें नहीं। लालू बुड़बक नहीं हैं कि उन्हें सत्ता से अपनी बेदखली की वजह न पता हो। अब लालू के लिए चुनौती यह है कि वह अपने समर्थकों को ऐसी लीडरशिप दें कि वे लूट-खसोट के बजाय उद्यमिता से सामाजिक न्याय की जंग को नए मुकाम तक ले जाएं। ऐसा किया जा सकता है और इससे यादवों और मुसलमानों को ही नहीं, पूरे राज्य और पूरे देश को फायदा होगा। जमींदारों और भूमिहीन ब्राह्मणों से लेकर दिल्ली में सिक्योरिटी गार्ड्स तक की नजर बिहार के राजनीतिक घटनाक्रम पर लगी हुई है और कई लोगों को डर है कि लालू प्रसाद के चलते बिहार में जंगलराज की वापसी हो सकती है। हालांकि कई ऐसी वजहें हैं, जो संकेत दे रही हैं कि लालू सुशासन में भागीदार बनना पसंद करेंगे, जिसका श्रेय तमाम लोग नीतीश कुमार को दे रहे हैं। एक तो खुद नीतीश नहीं चाहेंगे कि अराजकता जैसी स्थिति बने। अगर लालू प्रसाद अपने यादव बाहुबलियों को मनमानी करने की छूट देंगे तो नीतीश के पास महागठबंधन से नाता तोड़कर एनडीए के साथ जाने का विकल्प होगा। पटना यूनिवर्सिटी के छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष लालू प्रसाद और पूर्व महासचिव नीतीश के बीच दोस्ताने की चाहे जितनी कहानियां सुनाई जा रही हों, दोनों की नजर एक-दूसरे पर हैं और दोनों जानते हैं कि उनकी हरकत पर दूसरे की प्रतिक्रिया क्या हो सकती है। लालू को पता है कि उनके सीएम रहने के दिनों से अब पॉलिटिकल इकॉनमी काफी बदल चुकी है। हाशिए पर पड़े लोगों को आवाज देने और बिहार के दबंग जाति समूहों का दबदबा खत्म करने के बावजूद लालू को सत्ता से हटना पड़ा था। 2014 के चुनाव में उत्तरप्रदेश में भाजपा को इतनी जबर्दस्त जीत इसलिए मिली, क्योंकि युवाओं को आर्थिक तरक्की और निर्णायक सरकार के वादे में नई उम्मीद नजर आई। यह कोई मुस्लिम या पाकिस्तान के खिलाफ जनादेश नहीं था। बिहार में बिल्कुल उलटा हो गया। मतदाताओं ने देखा कि नीतीश वही सकारात्मक, रचनात्मक आह्वान कर रहे हैं, जबकि भाजपा ने उन्हें मुस्लिम, पाकिस्तान, आतंकवाद से डराने की कोशिश की या उनसे गोरक्षा का आह्वान किया। लोगों ने सकारात्मकता को चुना। तरक्की के गुजरात मॉडल ने नरेंद्र मोदी को 2014 में जीत दिलाई किंतु, चूंकि भाजपा ने जनादेश का गलत अर्थ निकाला, इसलिए वह ध्रुवीकरण के गुजरात मॉडल को भारत में अन्य जगहों पर भी आजमा रही है। कोई अचरज नहीं कि बिहार ने इस मॉडल को ठुकरा दिया। नीतीश और यकीनन लालू प्रसाद यादव इस हकीकत को समझते हैं। लालू वह डेवलपमेंट और ग्रोथ मुहैया नहीं करा सके थे। लिहाजा लालू का फोकस अब बिहार के लोगों को यह समझाने पर होगा कि उनके बेटे-बेटियों के नेतृत्व में उनकी पार्टी राज्य को समृद्धि की दिशा में ले जा सकती है। लालू के लिए बेहतर यही होगा कि वह गवर्नेंस और डेवलपमेंट के मोर्चे पर नीतीश की मदद करें। साथ ही लालू प्रसाद के परिवार का राजनीतिक भविष्य भी दांव पर है। यदि ये पांच वर्ष सुशासन की मिसाल बन सके तो ज्यादा लाभ लालू यादव को ही मिलेगा। यही नहीं अगर सब कुछ ठीक- ठाक रहा तो संघीय स्तर पर एक तीसरी ताकत का उभार निश्चित है। राजनीति में तीसरी शक्ति एक पारिभाषिक शब्द बन गया है जिसका अर्थ जरूरी नहीं है कि वह तीसरे स्थान का ही कोई राजनीतिक मोर्चा हो। यह ऐसे राजनीतिक प्रवृत्तियों वाले दलों के मोर्चे के रूप में रूढ शब्द हो गया है जो वैकल्पिक धारा का प्रतिनिधित्व करता है। वैकल्पिक अर्थ है ऐसी राजनीति जिसमें सामाजिक सत्ता से छिटकी हुई जातियों के नेताओं का नेतृत्व हो , जिसमें सफ़ेदपोश के बजाय मेहनतकश वर्ग से आये नेता अगुआ हों , जो मजबूत संघ के बजाय राज्यों को अधिकतम स्वायतत्ता के पक्षधर हों। इस समय जबकि कांग्रेस के भविष्य पर अनिश्चितता के बादल मडरा रहे हैं, नरेन्द्र मोदी के प्रति मोहभंग की वजह से भाजपा के केंद्र में पैर डगमगाने लगे हैं राष्ट्रीय स्तर पर विकल्प के रूप में तीसरी शक्ति के सितारे बुलंद होने के आसार देखे जाने लगे हैं लेकिन बिहार के चुनाव परिणाम आने के पहले तक तीसरी शक्ति में किसी राष्ट्रीय स्तर के नेतृत्व के अभाव की वजह से किसी संभावना को टटोलना मुश्किल लग रहा था लेकिन बिहार के चुनाव परिणाम ने रातों रात इस मामले में हालात बदल दिए हैं | तीसरी शक्ति को अब नीतीश कुमार के नेतृत्व के तले संजोए जाने की कल्पना दूर की कौड़ी लाना नहीं माना जा सकता। बिहार का चुनाव राष्ट्रीय स्तर का दंगल बन गया था इसलिए नीतीश कुमार इसे जीत कर एकाएक ऐसे महाबली बन गये हैं जिन्हें केंद्र बिंदु बनाकर राष्ट्रीय स्तर का ध्रुर्वीकरण होने की पूरी- पूरी संभावना है। तीसरी शक्ति बदलाव की ऐसी ख्वाहिश का नाम है जिसकी तृप्ति न होने से बदलाव की भावना से ओत प्रोत भारतीय जन मानस प्रेत की तरह भटकने को अभिशप्त है। मोटे तौर पर भारतीय समाज को लेकर यह अनुमानित किया जाता है कि भेदभाव और अन्याय पर आधारित वर्ण व्यवस्था में बदलाव होने पर देश में एक साफ़- सुथरी व्यवस्था कायम हो सकेगी। लेकिन, यह संभावना तभी साकार हो सकती है जब बिहार में सुशासन का मॉडल देश के सामने मिसाल बन जाय।
0 comments:
Post a Comment