7 नवम्बर 2015
कांग्रेस इन दिनों एक नयी प्रकार की भाषा इजाद करने के प्रयास में है। एक ऐसी भाषा जो लोगों में उसके प्रति भरोसा पैदा करे। इसी प्रयास के तहत उसने सहिष्णुता का जुमला उछाला। पर कांग्रेस का यह प्रयास बिल्कुल पाखंडपूर्ण है, इसे समझने के लिए किसी विशेष बुद्धि की जरूरत नहीं है। हमारे लोकतंत्र की सबसे बड़ी विपदा है कि वह समस्याओं और मसलों से घिरे रहने का पाखंड करता है। अब कांग्रेस को देखें। इसने सहिष्णुता का मसला उठाया। यह सब जानते हैं कि आप किसी राष्ट्रीय मसले को पेश करना चाहते हैं तो आपको ऐसा कर सकने की अपनी क्षमता भी प्रदर्शित करनी होगी, साथ ही कुछ ऐसा करना होगा जो विश्वसनीय लगे। राष्ट्रपति भवन तक जुलूस लेकर जाने से ऐसा कुछ नहीं लगता कि वह संघर्ष करने को तैयार है। लेखकों द्वारा पुरस्कार लौटाये जाने के मसले पर राष्ट्रपति के पास जाना कुछ ऐसा ही लगता है मानों वह उन्हीं लेखकों - बुद्धिजीवियों की पिछलग्गू है। बेशक एक मामले में भाजपा कांग्रेस से पीछे है कि लेखकों का एक भाग कांग्रेस के साथ है लेकिन यह भी सच है कि बुद्धिजीवियों का एक बड़ा वर्ग कांग्रेस के साथ दिखने से कतराता है। कांग्रेस का सबसे बड़ा भ्रम है कि वह चीजों को सुसंगत ढंग से समझ नहीं पाती। चाणक्य का कथन याद आता है कि ‘अपने दोस्तों को निकट रखिए, लेकिन दुश्मनों को और भी निकट रखिए।’ इस मामूली सी बात को कांग्रेस नहीं समझ पा रही है। यही गलती मोदी सरकार भी कर रही है। उसके साथी अपने आलोचकों का मुंह बंद करने में लगे हैं। वह कुछ आलोचकों को अपने में समायोजित कर सकती है और उनका दिल जीत सकती है, जिन्हें वह शत्रु के रूप में देखती है। सत्ता में आकर 15 माह बाद भी वे कांग्रेस को भला-बुरा कहने में ही लगे हैं, गांधी परिवार के लोगों को बदनाम करने में लगे हैं। समझदारी यही होती कि वे दोनों की अनदेखी करते, जैसा कि देश पहले ही कर चुका है। विजेता तो अपने पूर्ववर्तियों से बेहतर चीजें करने पर ध्यान केंद्रित करता है। ‘हम’ बनाम ‘वे’ की बातें तो चुनाव के समय ठीक लगती हैं, तब नहीं जब आप सत्ता में आ चुके हैं। सत्तारूढ़ होने के बाद तो लोगों को विभिन्न मुद्दों पर आपसे आम सहमति निर्मित करने की अपेक्षा रहती है। वे चाहते हैं कि आप नया भविष्य बनाएं बजाय इसके कि आप यही दोहराते रहें कि भूतकाल कितना बुरा था। अभियान चलाने वाले की भूमिका में मोदी महान व्यक्ति हैं। वे अपना वक्त बर्बाद नहीं करते और विरोधियों की चालों में नहीं उलझते, लेकिन वे मोदी देश नहीं चला सकते। केवल राजनीतिक मोदी ही देश चला सकते हैं। उसके लिए तो उन्हें सिर्फ भाजपा का ही नहीं, अन्य सबका समर्थन भी चाहिए। यही गड़बड़ी कांग्रेस के साथ भी है। सहिष्णुता की उसकी अवधारणा पराभौतिक है। उन्हें यह जानना होगा कि पार्टियां आती- जाती रहेंगी और सदा नफरत फैलाने वाले लोग मौजूद रहेंगे। समाज तो उन्हें समर्थन देगा जो या तो आजादी की कटौती नहीं करेंगे या नफरत फैलाने वाले को दंडित करेंगे। तब जाकर आप वह हासिल कर सकते हैं, जिसे आपने अपना लक्ष्य बना रखा है, जिसके लिए आप चल पड़े हैं। आम सहमति निर्मित करना इस दिशा में पहला कदम भर है। मोदी सरकार यहीं पर नाकाम हुई है साथ ही कांग्रेस क्षमता हीन दिख रही है। इनके पास उतनी बौद्धिक गुंजाइश नहीं है कि वह अन्य लोगों के दृष्टिकोण और मतों को भी अपने वैचारिक क्षेत्र में स्थान दे सके। और इसके हाशिये पर पड़े सिरफिरे तत्व इस बात पर तुले हुए हैं कि ऐसे कोई प्रयास कामयाब न हो सकें। किसी और के बजाय मोदी इसे बेहतर जानते हैं। अवॉर्ड लौटाने वाले लेखकों, फिल्मकारों व अन्य बुद्धिजीवियों के प्रति सरकारी प्रतिक्रिया भी अनावश्यक थी। इससे पता चलता है कि भाजपा सांकेतिक मुद्राओं के महत्व के बारे में कितना कम समझती है। यह कोई मोदी विरोधी रवैया नहीं है, जैसा कि उनके चापलूस समझते हैं। ये बुद्धिजीवी किसी का पक्ष नहीं ले रहे हैं। उन पर कांग्रेस के गुट का लेबल लगाना उतना ही मूर्खतापूर्ण है, जितना कि कुछ लेखकों पर या आगे अकादमी अवॉर्ड से सम्मानित होने वालों पर भाजपा का लेबल लगाना। बुद्धिजीवी वर्ग यह चिंता प्रदर्शित कर रहा है कि भारत गलत दिशा में जा रहा है। उन्हेें यह देखकर बेचैनी है कि प्राथमिकताओं का घालमेल हो रहा है और हम गलत सपनों का पीछा कर रहे हैं। कौन जानता है, वे सही भी हो सकते हैं? शायद मोदी को उनकी बात सुननी चाहिए। वे अपने वफादारों को निकट रख सकते हैं, लेकिन उन्हें अपने आलोचकों को और भी निकट रखना चाहिए। सत्ता में बैठे हर व्यक्ति को वह सब सुनना चाहिए, जो वह सुनना नहीं चाहता। कहते हैं कि ,
निंदक नियरे राखिये आंगन कुटी छवाय
बिन साबुन पानी बिना निर्मल करे सुहाय।
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