सोवियत संघ और असके साथी कम्युनिस्ट देशो के पतन के बाद यूरोप में खुशी मनायी गयी थी और इसे पश्चिम की उदारवादी लोकतांत्रिक व्यवस्था की विजय कहा गया था। एक अमरीकी राजनीतिशास्त्री फ्रांसिस फुकुयामा ने इसे ‘इतिहास की समाप्ति’ कहा था। उनका कहना था कि पश्चिम आखिर सिद्धांतों की जंग जीत गया। यह भी भले के लिये हुआ। अगर कोई इसके विपरीत बोलता सुना जाता तो उसकी सार्वजनिक खिल्ली उड़ायी जाती। उस ाटना के पच्चीस वर्ष के बाद हम लगता है कि ‘इतिहास की समाप्ति : श्रृंखला -2’ को देख रहे हैं। फर्क यही है कि इसबार यह समाप्ति मास्को, बुडापेस्ट और वारसा में ना होकर पश्चिम देशों की राजधानियों लंदन, पेरिस , वाशिंगटन , रोम और पेरिस में हो यही है। जो उसूल पश्चिम के वर्चस्व के आधार स्तम्भ थे और जिन उसूलों के कारण कम्युनिज्म का खात्मा बताया गया था उन्हीं उसूलों – उदार लोकतंत्र और पूंजीवाद – के कारण यह सब मिटता दिख रहा है। वे उसूल आज खुद गंभीर संकट में हैं। आज चारों तरफ उबलते गुस्से और जलती नफरत का बोलबाला है। मोटे तौर दूसरे विश्व युद्ध के बाद का यह सबसे बड़ा संकट है। अटलांटिक के दोनों तरफ सामाजिक विघटन और आर्थिक अव्यवस्था के काले बादल मंडरा रहे हैं। राजनीतिक वर्ग के लोगों और निर्वाचित प्रतिनिधियों पर से भरोसा घटता जा रहा है। कहा जा सकता है कि संसदीय लोकतंत्र पर से भी भरोसा कम हो रहा है। संसद की बहस सड़कों का संघर्ष बनती जा रही र्है। जन प्रतिरोध का आलम यह है कि 1930 के जर्मनी का इतिहास याद आ रहा है। आम जनता एक अजीब अंजान दिशा की ओर बढ़ रही है। चाहे वा भारतीय उपमहाद्वीप हो या अमरीका या इंगलैंड जो आदमी अपने भाषणों में समसामयिक राजनीतिज्ञों से अलग बोलता सुनाई – दिखाई पड़ता है लोग उसके चतुर्दिक जमा हो जाते हैं। अमरीकी राजनीति का ट्रम्पीकरण या बेक्सिट या फ्रांस का ली पेन या नदिरलैंड्स के ग्रीट विल्डर्स चारो तरफ दक्षिणपंथी रूझान बढ़ता दिख रहा है। इकोनॉमिस्ट के मुताबिक आज लोकलुभावन अधिनायकवादी वाम पंथी और दक्षिणतंथी दल यूरोप के जनसमुदाय पर सन 2000 के मुकाबले दोगुनी पकड़ बनाये हुये हैं। आ सवाल है कि यह सब हुआ कैसे? इकोनॉमिस्ट के अनुसार यह 2008 के आर्थिक विपर्यय के बाद जन्मी कुंठा के कारण हो रहा है और इसके ज्यादातर शिकार गरीब लोग है। जब लाखों लोगों का राजगार खत्म हो गया तो यह जले पर नमक की तरह दुखदायी हो गया। क्योंकि ये सभीमध्यमवर्गीय लोग गरीबी की ओर धकेल दिये गये। … और इसमें उनका कोई दोष नहीं है। इसके दोषी हैं बैंकर और शासक दलों के चमचे। वैश्वीकरण से गरीबों और मध्यमवर्गीय लोगों को लाभ नहीं हुआ। उसका फायदा अमीरों को ही मिला। यूरोपीय देशों में आउट सोर्सिंग के कारण नौकरियां खत्म हो गयीं। क्या विडम्बना है कि मजदूरों के लिये संघर्ष करने वाले अमरीकी वामपंथी दलों के टी शर्ट बंगलादेश में बनते हैं और अमरीकी मजदूर भूखों मर रहे हैं। अब लोगों के मन में धीरे धीरे यह बात ार करती जा रही हे कि चाहे जो चुनाव जीते चाहे जिस देश में जीते वही अमीर ओर बड़े लोग जीतते हैं। ये बड़े लोग जनता के बदले केवल बड़े लोगों के लिये ही काम करते हैं। इसलिये कोई भी क्रांतिकारी अंदाज में जब घोषणा करता है कि वह महंगाई घटायेगा, नौकरियां बढ़ायेगा और खुशहाली लायेगा लोग उसके आस पास जमा हो जाते हैं। कारण खोजने का साहस कोई नहीं करता। हम लोग एक पेड़ को बचाने के लिये पूरे जंगल का सत्यानाश करते दिख रहे हें। बात दरअसल यह है कि पश्चिमी असूलों की बाजीगरी अब पुरानी हो गयी। पूंजीवाद की चमक की कलई उतर गयी। एक नये प्रकार की वैश्विक व्यवस्था जन्म ले रही है ओर यह साफ पता चल रहा है कि सियासत का पुराना कारोबार अब नहीं चलने वाला। अब समय एक दूसरी व्यवस्था को गढ़ने का आ गया है।
Thursday, August 11, 2016
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