अखबारों की खबर है कि बिहार और अन्य क्षेत्रों में बाढ़ का पानी उतर रहा है और इसके बाद महामारी का खतरा बढ़ गया है। ख्घेतों की मेड़ गुम हो चुकी है। जगह जगह परे हुये पशुओं की सड़न से दुर्गंध फैल गयी है। चारों तरफ मच्छरों के लारवा पलते दिख रहे हैं जो कई महामारियों का संकेत दे रहे हैं। साधारण मलेरिया से लेकर इन्सेफेलाइटिस और डेंगू तक का प्रचंड भड़ व्याप्त है। डाक्टरों की कमी है तथा दवाएं भी पर्याप्त नहीं है।डाक्टरों के मुताबिक अधिकांश बीमारियां पानी के जरिए ही होती हैं। डाक्टरों का मानना है कि राहत शिविरों में अगर लोगों को उबला हुआ पानी उपलब्ध कराया जाये तो लोगों को स्वस्थ रखा जा सकता है, पर यह एक दुष्कर कार्य है। बाढ़ के दौरान लोग अपनी जान बचाना चाहते हैं, ऐसे में शुद्धता उनकी प्राथमिकता नहीं होती। बाढ़ का पानी उतरने के बात कुएं इत्यादि भी प्रदूषित हो जाते हैं। बिहार की इस विनाशकारी बाढ़ को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर जिस प्रकार की संवेदनहीनता दिख रही है वह अत्यन्त दुखद है। पीने के पानी की समस्या तो है ही। कुएं भर चुके हैं, हैण्डपम्प बेकार हो चुके हैं, घर-बार उजड़ चुके हैं। पुनर्वास का, घर-झोपड़ी बनाने का, स्कूलों-अस्पतालों के पुननिर्माण का सारा काम कैसे होगा? गुजरात के भूकम्प या आंध्र प्रदेश के भीषण चक्रवात के समय जो राष्ट्रीय चेतना और संवेदना उभरी थी वैसा बिहार को लेकर क्यों नहीं हो रहा है? बहुत बड़ा भूभाग डूब गया है। सड़कें बह गई हैं। नदियों के तटबन्ध जगह-जगह टूट गये हैं। कई लोग पानी में बह गये हैं। सैकड़ों मवेशी भी जल में विलीन हो चुके हैं। अभी तो लोग बांधों पर, कहीं पेड़ों पर या कहीं ऊंची जगहों पर आश्रय लिये हुए हैं। वहीं उनके माल मवेशी भी हैं और सांप-बिच्छू भी। जिसने इस त्रासदी को झेला नहीं है वे इसकी कल्पना तक नहीं कर सकते हैं। जो लोग बिहार के निवासी हैं खास कर उत्तर बिहार के वे जानते होंगे कि एक जमाना था जब बिहार में कहा जाता था- बाढ़े जीयनी, सुखारे मरनी। इसके साथ ही दरभंगा-मधुबनी के कमला बलान नदी के आस-पास के लोग कहते थे- ‘आएल बलान त बनल दलान, गेल बलान त धंसल दलान।’ यहउस दौर की बातें हैं जब विकास के नाम पर बिन सोचे समझे लम्बी – लम्बी रेल लाइने नहीं बनायी गयी थीं और जमीन को ऊंचा करके सड़कों के कारण पानी का प्रवाह अवरुद्ध नहीं होता था। तब नदियों के किनारे तटबन्ध नहीं होते थे। बाढ़ का पानी धीरे-धीरे आता था, लोग अपना सामान आदि नाव पर लादकर आराम से ऊंची जगह चले जाते थे। तब बाढ़ का इतना भय नहीं होता था। बाढ़ के पानी में आयी गाद होती है खेतों में जमा हो जाती थी। इससे मिट्टी की उर्वरता बढ़ जाती थी। यह उपजाऊ मिट्टी बिना किसी खाद के फसलों को लहलहा देती थी। जब नदियों के किनारे तटबन्ध बने तो नदियों का तल गाद और कचड़े से भरता गया तो तटबन्धों के टूटने का सिलसिला शुरू हुआ। लोगों ने अपनी बस्ती-गांव बचाने के लिये तटबन्धों को तोड़ना शुरू किया। इस बार भी तटबन्ध तोड़े गये। शहरों को बचाने के लिये नदी की दूसरी ओर के तटबन्धों को बिना किसी पूर्व सूचना के इस बार भी तोड़ा गया। फलत: गांव के गांव बह गये हैं। अब इन गांवों के मृत लोग और मवेशी कितनी बड़ी महामारी पैदा करेंगे इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है। यह केवल रोग तक ही सीमित नहीं होगा बल्कि आर्थिक महामारी का भी चक्र चलेगा। भुखमरी बढ़ेगी , कर्जे का जोर बढ़ेगा और फिर अन्य सामाजिक समस्याएं जन्म लेंगी। यही नहीं नहीं रिलीफ फंड की अफसरों और नेताओं द्वारा लूट खसोट का एक नया समां बंधेगा और इससे पीड़ितों की पीड़ा भी बढ़ेगी। कुछ साल पहले इस आपदा के प्रभाव पर बाहर कमाने वाले परिजनों की आर्थिक सहायता से थोड़ा मरहम लग जाता था। अब बिहार के प्रवासी जो विदेशों में या अन्य राज्यों में छोटी मोटी नौकरी कर के अर्थोपार्जन करते थे वे बेकार हो गये हैं। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 60.26 प्रतिशत लोग घर लौट आये हैं। इस बार सुख की कब्र पर उगी दुख की यह घास कई नयी समस्याओं को जन्म देगी।
Wednesday, August 31, 2016
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