आज स्वाधीनता दिवस है। आज के दिन ही हमारा देश अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त हुआ था और हमें अपनी सरकार चुनने का हक हासिल हुआ था। यह हक अनगिनत लोगों की बलि के बाद हासिल हुआ।
सरफरोशी की तमन्ना आज हमारे दिल में है
देखना है जोर कितना बाजुए कातिल में है
यह गीत किसी खास आदमी की जुबान था बल्कि उस समय की पूरी पीढ़ी का सपना था। तबसे अब तक 70 साल हो गये। हर बार आज के दिन उसके पहले एक परम्परा है कि लोगों से आजादी के मायने पूछे जाएं। सबलोग उसका अपनी तरह से व्याख्या करते हैं। लेकिन आज यहां एक महत्वपूर्ण सवाल उठाया जा रहा है कि जो आजाद हुआ या सवाधीन हुआ वह मेरा देश है, आप देश से क्या समझते हैं। भारत से आप क्या समझते हैं? आज कल तीव्र राष्ट्रभक्ति का ज्वार चला हुआ है ऐसे पूछना कि आप देश या राष्ट्र से क्या समझते हैं एक ऐसा सवाल है जिसका उत्तर खोजना जरूरी है। आपसे पूच जाय कि भाई कौन स्वतंत्र हुआ मैं या आप? अगर मैं कहूं कि हम आजाद हुये, सैकड़ों साल से देश वासियों को इकाई ना रख कर हम बनाती हुई एक अमूर्त भावना जो हमारे बाच मौजूद नहीं है फिर भी हमें बांदा रखी है उस अमूर्त भावना को आप क्या नाम देंगे? जैसा कि नादीन गाडीमर ने लिखा है कि भावनाएं होतीं हैं। आत्मा की घटनाएं। आप मेंलगभग सभी ने हावड़ा का पुल पार किया होगा और उस पुल से गुजरते हुये लोगों को बहुतों को देखा होगा कि सिर झुका कर प्रणाम करते। अगर आप पुल से नीचे झांके तो एक चौड़ी मटमैली धारा बहती हुई सी दिखेगी। यह किसी ाटना की प्रतिक्रिया नहीं है बल्कि भीतर स्वउच्छावासित है। जैसे आप कहीं उंगली रख कर यह नहीं कह सकते कि देखो यही देश है उसी तरह आप इस भाव का मूर्त स्वरूप नहीं दिखा सकते। यही भावना देशप्रेम है जो ना कहीं इतिहास में लिखा और जिसे ना भूगोल की जरीब से नापा जा सकता है। दरअसल यह एक स्मृति है जीवन से अधिक विराट और समय की सीमा से परे। हमारे समस्त पूर्वजनमों का पवित्र धाम जहां हमारे पुरखे रहते आये हैं। जैसा कि गाडीमर ने कहा है कि हर भावना एक घटना है तो देशप्रेम एक चिरंतन घटना है जो हर पीढ़ी की आत्मा में घटित होता है। यह घटित होना या इसका अहसास किसी कविता की नहीं है जो हमेशा टीसता रहता हो। देशप्रेम चूंकि आत्मा की घटना है इसलिये यह एक ऐसी संस्कृति में घटित होता है जहां मन के एक कोने में स्मृति अंतर्गुम्फिमत होती है। इसी अंतर्गूम्फन के कारण पत्थर शिव बन जाता है पहाड़ कैलाश और नदी मां बन जाती है। सब एक जीवन्त पवित्रता का गौरव , एक प्रकार की धार्मिक संवेदना ग्रहण कर लेता है। इन्हीं आत्मीय उपकरणों ने देशभक्ति की भावना को जन्म दिया है। आपने गौर किया है कि रामायण, महाभारत या अन्य पौराणिक कथाओं में मनुष्य ही रुपक है। यह वहीं संभव है जहां भूगोल की देह पर संस्कृति के स्थल अंकित रहते हैं। सोचें कि पहाड़ पर चढ़ते हुये हम ऐसे प्रतीकों के पदचिन्हों पर चलते हैं जो हमारी इस यात्रा को तीर्थ की यात्रा में बदल देती है। आज हमारे बुद्धिजीवियों को ईश्वर और पूर्वजों की स्मृति का उल्लेख करना अच्छा नहीं लगता या कहें उनहें यह सब अजीब सा लगता है। वे लोग वंदेमातरम में भी साम्प्रदायिकता खोज लेते हैं। लेकिन देशप्रेम की भावना को देश से जुड़ी स्मृतियों और इतिहास की कीचड़ में सनी व्यथाओं को अलग कर देने से भावना की पवित्रता और गरिमा नष्ट हो जाती है। इसीलिये हम अपने आख्यानों में देश के महान सपूतों का जिक्र करते हैं ताकि इतिहास की पीड़ा को उस स्मृति के साथ देख सकें, महसूस कर सकें। आपने इतिहास जरूर पढ़ा होगा। कभी कभी उसके समाजशास्त्र और दर्शन को महसूसा है। सोच है कभी कि पांच हजार साल पुरानी परम्परा से एक इेसे राष्ट्र का जनम हो सकता है जो एक होते हुये भी अनेक स्त्रोतों से संजीवनी शक्ति खींच सकता है। भारत को राष्ट्र का सवरूप देना इक तरह से संगीत लयबद्धता हे जिसमें छोटे से छोटे वाद्य का सुर सुनायी पड़ता है। भारत की कोई परम्परा इतनी छोटी या नगण्य नहीं थी जिसका सुर मुख्य धारा में जुड़ कर सुनायी ना पड़ता हो। विख्यात इतिहासकार इ पी टाप्सन ने लिखा है कि ‘भारत केवल महत्वपूर्ण नहीं, दीनिया का शायद सबसे महत्वपूर्ण देश है , जिसपर सारी दुनिया का भविष्य निर्भर करता है। पूरब या पश्चिम का इेसा कोई विचार नहीं है जो भारतीय मनीषा में क्रियाशील ना हो।’ दरअसल यही विचार तत्व इस देश को बचाये हुये है। आज कश्मीर को लेकर सबसे ज्यादा विवाद है। शुक्रवार को प्रधानमंत्री ने कहा अधिकृत कश्मीर हमारा अंग है। ऐसा क्यों? इसलिये कि कश्मीर केवल भगौलिक दृष्टि से भारत का नहीं है बल्कि अल बरूनी के शब्दों में ‘हिंदू दर्शन और आध्यात्मिक शोध का काशी के बाद यदि कोई केंद्र था तो वह कश्मीर ही था।’ क्या आप शैव- बैद्ध दर्शन या राजतरंगिनी जैसी इतिहासिक रचनाओं को हम अपनी पारम्परिक सम्पदा से पृथक कर सकते हैं। समय बीतने के साथ साथ जमीन की हदें-सरहदें धीरे- धीरे संस्कृति के नक्शे में बदल जाती हैं। एक के खंडित होते ही दूसरे की गरिमा को भी आघात लगता है। भारत की आजादी के संघर्ष को संस्कृति की इसी लौ ने जिला रखा था। बेशक विभिनन दबावों से वह लौ थोड़ी मद्धम हो गयी है, लेकिन आज भी हावड़ा पुल से गुजरते लोगों का प्रणाम करते देखना एक रुपक है कि देश में ऐसे ही अनगिनत नदियों , जल स्रोतों और सरिता को करोड़ों लोग प्रणाम करते होंगे। साथ ही यह एक आश्वासन है कि देश में सस्कृति की लौ अभी प्रकाशमान है ओर यही भावना हमारा देश है।
ऐ शहीदे मुल्को मिल्लत मैं तेरे ऊपर निसार
अब तेरी हिम्मत की चर्चा गैर की महफिल में है
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