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Monday, August 29, 2016

बढ़ती आबादी के खतरे

देश की आबादी के आंकड़े को अगर देखें तो अगरे चार वर्षों में हमारे देश की आबादी में काम करने वाले लोगों की संख्या लगभग 87 करोड़ हो जायेगी। यह दुनिया में काम करने वालें की सबसे बड़ी आबादी होगी। जब किसी राष्ट्र में इस तरह आबादी का विस्तार होता है तो उससे होनी वाले लाभ को आबादी का लाभ कहते हैं। साधारण तौर पर कहें तो यह कह सकते हैं कि जब अधिकांश लोग काम करेंगे तो स्वमेव आर्थिक विकास होगा। लेकिन यहां जो सामाजिक स्थिति है उससे तो हालत कुछ दूसरी नजर आती है। प्राप्त आंकड़ों के मुताबिक 2015 में संगठित क्षेत्रों में बहुत मामूली रोजगार पैदा हुये। यहां संगठित क्षेत्र का अर्थ है बड़ी कम्पनियां या फैक्ट्रियां। इनके मुकाबले असंगठित क्षेत्र में ,जहां किसी सामाजिक सुरक्षा या वेतन का हिसाब किताब नहीं है, 2017 तक 93 प्रतिशत रोजगार के सृजन हो सकते हैं। इसमे हालात ये हैं कि ग्रामीण मजदूरी बहुत कम है और ठेके पर काम में 0.2 प्रतिशत वृद्धि है और 2015-16 में इसमें 1 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। सम्पूर्ण आबादी में60 प्रतिशत वे लोग है जिनकी नौकरियां रोजगार में नहीं बदल पा रहीं है और ये लोग अर्द्धनियोजित लोग हैं या अस्थाई काम में लगे हैं। नयी कम्पनियों का बनना कम हो रहा है और जो कम्पनियां हैं उनका विकास बहुत  धीमा है। इतना धीमा जितना 2009 में हुआ करता था लगभग दो प्रतिशत की दर से। बड़ी कम्पनियां , बड़े कारपोरेशंस और बड़े बैंक आर्थिक दबाव में हैं। जबकि रोजगार सृजन या नौकरियों की संख्या में वृद्धि के लिये इनका विकास जरूरी है। इसका अर्थ है कि एक बहुत बड़ी आबादी ऐसे वातावरण में फंसी हुई जिसमें रोजगार की भारी कमी है। आंकड़े बताते हैं कि भारत का 1991 के बाद तेजी से विकास हुआ तब भी चीन की तुलना में काम करने वाले लोगों की आधी आाबादी ही रोजगार पा सकी। 1991 से 2013 के बीच नौकरियों की तादाद  62 करोड़ 80 लाख से बढ़ कर 77 करोड़ 20 लाख होगयी जबकि इसी अवधि में जन संख्या में काम करने वाली उम्र के लोगों की संख्या पहले से 24 करोड़ 10 लाख बढ़ गयी। इससे साफ लगता है कि यह एक गंभीर चुनौती है। अगर आर्थिक स्थिति में बहुत बड़ा बदलाव नहीं आया तो यही स्थिति बनी रहेगी। दरअसल जिन देशों में अर्थ व्यवस्था का विकास हुआ है वहां शुरुआत कम मुनाफे और कम पूंजी वाले धंधे से हुई मसलन रेडीमेड कपड़ों से और अंत हुआ ज्यादा मुनाफे वाले और ज्यादा पूंजी वाले धंधों से जैसे मोटर गाड़ी उद्योग और इलेक्ट्रॉनिक उद्योग  से।  भारत में ये सारे सेक्टर्स हैं पर बहुत छोटे स्तर पर। उदाहरण के लिये देखें की तैयार कपड़ों के मामले में हम बंगलादेश, श्री लंका और वियतनाम जैसे देशों का मुकाबला नहीं कर पाते। वहां के कपड़े भारत की तुलना में सस्ते होते हैं। लेकिन विगत सात वर्षों से अर्थ व्यवस्था में मंदी की वजह से यह साफ पता चलता है कि इनकी भी मांग अच्छी नहीं है लिहाजा इसे उतना उपयोगी नहीं माना जा सकता है और ना इस पर निर्भर रहा जा सकता है। अतएव अगर पारम्परिक उपायों को नहीं अपनाया गया तो हालात बहुत खराब हो सकते हैं और अब समय भी कम है। ऐसे में यह सोचना कि सबकुछ सरकार ही कर देगी अक्लमंदी नहीं है। हमारे देश में विदेशी पूंजी आकर्षित नहीं हो पाने का मुख्य कारण है ढांचे की कमी और सम्पर्क का अभाव। इसके साथ ही एक दूसरा मुख्य कारण है हमारे देश में काम के योग्य लोगों का अभाव। यही कारण है कि शहरी उच्च वर्ग के लोगों को जल्दी काम मिल जाता है क्योंकि वे उचित शिक्षाड के सम्पर्क में होते हैं। लेकिन अधिकांश भारतीयों को यह सुविधा हासिल नहीं है इसलिये वे आधुनिक अर्थ व्यवस्था रोजगार पाने में कामयाब नहीं हो पाते हैं। यही नहीं बड़ी आबादी में बुनियादी कुशलता भी नहीं पायी जाती है ताकि वे ठीक से मजदूरी कर सकें खास करके जहां कौशल की जरूरत है। मसलन मोटर गाड़ी की असेम्बली लाइन में काम, छोटे छोटे पुर्जों की कारीगरी इत्यादि। दूसरी तरफ हरसाल स्वचालन की प्रक्रिया बढ़ती जा रही है और रोजगार घटते जा रहे हैं। प्रधानमंत्री ने इस समस्या को अच्छी तरह समझा है और इसीलिये ‘स्किल इंडिया’ का अभियान आरंभ किया है। लेकिन इसका परिणाम हासिल करने में समय लगेगा। क्योंकि अपने देश में सामान्य स्कूली शिक्षा की औसत स्थिति अच्छी नहीं है। इस पर जितना सोचा जाय समस्या उतनी गंभीर दिखने लगती है। अगर जल्दी कोई राह नहीं निकाली गयी तो व्यापक सामाजिक अशांति की प्रबल आशंका है।

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