इन दिनों सोशल मीडिया में एक संदेश वायरल हो रहा है कि ‘125 करोड़ भारतीय मिलकर अपने देश में बेटियों की इज्जत नहीं बचा पाते हैं जबकि भारत की दो बेटियों ने दुनिया भर में 125 करोड़ भारतीयों की इज्जत बचा ली।’ बड़ा इमोशनल संदेश है यह। जब साक्षी और सिंधु को मेडल मिला तो सारा देश भावुक हो उठा। जिनको खेल में दिलचस्पी नहीं थी वे लोग भी टी वी से चिपक गये। टी वी रिपोर्टर ने आम लोगों की बातें सुनवाई। लोग अपनी बेटियों को सिंधु और साक्षी बनाने की बात कर रहे थे। पूरे देश के सामने देखते ही देखते भारत की दो बेटियां बिम्ब बन गयीं, मिथक बन गयीं। इसके पीछे उनी तपस्या और उनका संघर्ष सबके लिये प्रेरक तत्व रहेगा। लेकिन सवाल है कि हमारा देश और ऐसी कई साक्षियां या सिंधु या इसी तरह के पुरुष बिम्ब क्यों नहीं तैयार कर पा रहा है। यह देश के लिये खोज का विषय है। इसके पीछे सरकार की डायनामिक्स और राजनीतिक पेच- ओ –खम की पड़ताल जरूरी है। आखिर क्या बात है कि हम अंतरराष्ट्रीय स्तर के कुछ खिलाड़ी नहीं पैदा कर पा रहे हैं। जबकि सरकार कह रही है कि उसने 2008-9 से 2013-14 के बीच 800 करोड़ रुपयों की लागत से गावों , पंचायतों तथा प्रखंड स्तर पर 60 हजार खेल के मैदान बनवाये हैं या विकसित किये हैं। लेकिन आज हमारे देश में खेल की दुर्दशा के लिये सरकारी उदासीनता सबसे बड़ा कारण बतायी जा रही है। 2008- 09 से2013-14 के बीच युवा और क्रीड़ा विकास मंत्रालय द्वारा ग्राम स्तर पर खेलों के विकास, प्रतियोगिता की भावना इत्यादि को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से पंचायत युवा क्रीड़ा एवं खेल अभियान आरंभ किया गया। इसके लिये सभी राज्यों ने वित्तीय प्रावधान किया ताकि ग्रामीण क्षेत्रों में खेल का विकास किया जा सके। लोक सभा में प्रस्तुत रिपोर्ट के मुताबिक 2008- 09 से2013-14 के बीच देश के लगभग 60 हजार गांवों में 62609 खेल के मैदान तैयार किये गये। प्राप्त आंकड़ों के मुताबिक 2008 –2010 के बीच हर साल औसतन पंजाब, मध्य प्रदेश , उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र इत्यादि प्रांतों में 806 करोड़ खर्च किये गये। ओसतन हर मैदान पर 1028 लाख रुपये खर्च किये गये। विडम्बना यह है कि केवल उत्तर प्रदेश में 100 करोड़ रुपये गर्च किये गये जबकि आंध्र प्रदेश में 95.8 करोड़ और उसी के बराबर आबादी वाले पश्चिम बंगाल में 4.6 करोड़ रुपये खर्च किये गये। पंचायत युवा क्रीड़ा एवं खेल अभियान के तहत वार्षिक प्रतियोगिताएं कराने की बात थी और आंकड़े बताते हैं कि प्रतियोगिताएं हुई भी और2008- 09 से2013-14 के बीच इन पर कुल 224.9 करोड़ रुपये खर्च हुये तथा लगभग 22 लाख लोगों ने हिस्सा लिया। आंध्र प्रदेश , उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में लगभग 20 – 20 करोड़ रुपये खर्च हुये। लेकिन परिणाम क्या निकला? इन सबके बावजूद दोषी केवल सरकार ही नहीं है बल्कि क्रिकेट और प्रमियर लेग फुटबॉल एवं फारमूला 1 जैसे खेल भी इसके लिये जिममेदार है। टी वी के आविष्कार और बढ़ी हुई लोकप्रियता के बाद आप खुद अपने सीने पर हाथ रख कर कहें कि आप इनके अलावा कौन सा खेल देखते हैं। ओलिम्पिक में जाने के पहले दीपा करमकार और ललिता बाबर को कितने लोग जानते थे। दरअसल खेल वही विकसित होते हैं जो लोकप्रिय होते हैं। क्रिकेट एक कमर्शियल खेल है तथा कमर्शियल हितों के कारण इसे इतना ज्यादा प्रचारित किया गया कि लोगों की भावना इससे जुड़ गयी। लोग खुद को क्रिकेट की टीमों के साथ जोड़ कर देखने लगे। हाकी एक ऐसा खेल था जिसमें भारत को लगातार मेडल मिलते आये थे। 1980 में मास्को ओलिम्पिक में भारत को आखिरी मेडल मिला। लगभग इसी काल में भारत में क्रिकेट लोकप्रिय हुआ और 1983 में उसने विश्वकप जीता। इससे साफ समझा जा सकता है कि भारतीय खेलों का पतन और क्रिकेट का विकास लगभग एक साथ हुआ। ईमानदारी से कहें तो हम क्रिकेट से इतने सम्मोहित रहते हैं कि हमें अन्य खेलों की तरफ देखने का समय ही नही मिलता। हम हर चार साल के अंतराल पर कुछ हमफ्तों के लिये क्रिकेट के मोह से जागते हैं। इसी के कारण सरकार द्वारा किये जा रहे सारे खर्च व्यर्थ हो जाते हैं। प्रचार की इस झंझा में हम यह नहीं समझ पाते कि खेलों का मनोविज्ञान भीतर की हिंसा का निकास है और क्रिकेट एक मात्र इेसा खेल है जिससे आंतरिक हिंसा का विकास होता है। क्योंकि इसमें प्रतियोगिता दौलत के लिये होती है। समाज को चाहिये कि क्रकेट के अलावा अन्य खेलों के विकास का प्रयोजन करें और तदनुसार अभियान आरंभ करें।
Sunday, August 21, 2016
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